विचार डूबते हैं उतराते हैं- घात-प्रतिघात करते हैं। आपकी स्थिति को अक्सर त्रिशंकु बना देते हैं। मुझे अकसर ईर्ष्या होती है सीधे और केवल सीधे देख सकने वाले विचार बंदियों से मसलन- कम्युनिस्ट और संघी लोगों से। दाएं बाएं की बाते उन्हें परेशान नहीं करती- हमें करती हैं। संघियों को गुजरात परेशान नहीं करता और कम्युनिस्ट नंदीग्राम से दु:खी नहीं होते, हम बावरे ठहरे दोनों पर भिन्नाते रहते हैं (पाखंडी हम भी कम नहीं कहे जा सकते क्योंकि सिर्फ भिन्नाते ही तो हैं, करते क्या हैं?) पर उनकी तरह सोचते तो कम से कम एक दुख से तो बच जाते।
आजकल हम बिलबिला रहे हैं अमरनाथ पर। झकास ईश्वर-निरपेक्ष व्यक्ति हैं। पर कश्मीर में हो रहे पाखंड से चिढ़े हुए हैं, इसलिए भी कश्मीर की घटनाएं संघी लोगों की बात को सच साबित करने का मसाला दे रही हैं। नहीं होंगे बर्फ की किसी चट्टान में शिव-उव, पर अगर किसी को लगता है कि हैं- तो फिर उसके लिए तो हैं। और अगर किसी की श्रद्धा के लिए आप शहर शहर में हज टर्मिनल बनाने पर उतारू हैं तो बाकि लोगों को भी अपनी मान्यता के लिए बर्फ की इस चटृटान तक जाने का हक है और बुनियादी सुविधाएं पाने का भी। क्यों नहीं सरकार तय कर सकती कि वह टू-नेशन थ्योरी मानती है कि नहीं- अगर नहीं मानती तो ये उसका दायित्व है कि वह घोषित करे कि इन पर्यटकों को सुविधाएं देना उसका दायित्व है और वह देगी। ये सच है कि बात अधिक सरलीकृत तरीके से कही गई है तथा कश्मीर मुद्दे की पेचीदगियों को नजरअंदाज करती है। किंतु अमरनाथ जैसे जटिल भौगोलिक जगह पर जाने वालों को हगने-मूतने-आराम करने के लिए कुछ जगह चाहिए इस बात को कितना भी जटिल बना लो, व्यावहारिक सच तो यही रहेगा।
पर ये तो राजनैतिक सवाल है, मैं ज्यादा परेशान इस बात से होता हूँ कि कहीं हमारे देश में सेकुलरिज्म के विचार को हम लोगों ने अधिक रेडिकल तो नहीं बना दिया है। आश्चर्य की बात हे कि खुद को सेकुलर कहने वाले लोग (अगर नास्तिकों को सेकुलर होने की अनुमति तो हो मैं भी इनमें से ही हूँ) अक्सर तर्क का अतिक्रमण करते हैं। अमरनाथ एकमात्र मुद्दा नहीं है वे पहले अनेक बार ऐसा कर चुके हैं। इससे उन लोगों को हवा मिलती है जिनकी दुकानदारी तुष्टिकरण के आरोपों से चलती है। अमरनाथ का मुद्दा तो चलो ग्लोबल वार्मिंग से निबट जाएगा (न रहेगी बर्फ की चट्टान न बजेगी बांसुरी) पर सोच तो लगता है बनी रहेगी।