Sunday, June 29, 2008

अमरनाथ पर मेरा त्रिशंकु प्रलाप

विचार डूबते हैं उतराते हैं- घात-प्रतिघात करते हैं। आपकी स्थिति को अक्‍सर त्रिशंकु बना देते हैं। मुझे अकसर ईर्ष्‍या होती है सीधे और केवल सीधे देख सकने वाले विचार बंदियों से मसलन- कम्‍युनिस्‍ट और संघी लोगों से। दाएं बाएं की बाते उन्‍हें परेशान नहीं करती- हमें करती हैं। संघियों को गुजरात परेशान नहीं करता और कम्‍युनिस्‍ट नंदीग्राम से दु:खी नहीं होते, हम बावरे ठहरे दोनों पर भिन्‍नाते रहते हैं (पाखंडी हम भी कम नहीं कहे जा सकते क्‍योंकि सिर्फ भिन्‍नाते ही तो हैं, करते क्‍या हैं?) पर उनकी तरह सोचते तो कम से कम एक दुख से तो बच जाते।

आजकल हम बिलबिला रहे हैं अमरनाथ पर। झकास ईश्‍वर-निरपेक्ष व्‍यक्ति हैं। पर कश्‍मीर में हो रहे पाखंड से चिढ़े हुए हैं, इसलिए भी कश्‍मीर की घटनाएं संघी लोगों की बात को सच साबित करने का मसाला दे रही हैं। नहीं होंगे बर्फ की किसी चट्टान में शिव-उव, पर अगर किसी को लगता है कि हैं- तो फिर उसके लिए तो हैं। और अगर किसी की श्रद्धा के लिए आप शहर शहर में हज टर्मिनल बनाने पर उतारू हैं तो बाकि लोगों को भी अपनी मान्‍यता के लिए बर्फ की इस चटृटान तक जाने का हक है और बुनियादी सुविधाएं पाने का भी। क्‍यों नहीं सरकार तय कर सकती कि वह टू-नेशन थ्‍योरी मानती है कि नहीं- अगर नहीं मानती तो ये उसका दायित्‍व है कि वह घोषित करे कि इन पर्यटकों को सुविधाएं देना उसका दायित्‍व है और वह देगी। ये सच है कि बात अधिक सरलीकृत तरीके से कही गई है तथा कश्‍मीर मुद्दे की पेचीदगियों को नजरअंदाज करती है। किंतु अमरनाथ जैसे जटिल भौगोलिक जगह पर जाने वालों को हगने-मूतने-आराम करने के लिए कुछ जगह चाहिए इस बात को कितना भी जटिल बना लो, व्‍याव‍हारिक सच तो यही रहेगा।

पर ये तो राजनैतिक सवाल है, मैं ज्‍यादा परेशान इस बात से होता हूँ कि कहीं हमारे देश में सेकुलरिज्‍म के विचार को हम लोगों ने अधिक रेडिकल तो नहीं बना दिया है। आश्‍चर्य की बात हे कि खुद को सेकुलर कहने वाले लोग (अगर नास्तिकों को सेकुलर होने की अनुमति तो हो मैं भी इनमें से ही हूँ) अक्‍सर तर्क का अतिक्रमण  करते हैं। अमरनाथ एकमात्र मुद्दा नहीं है वे पहले अनेक बार ऐसा कर चुके हैं। इससे उन लोगों को हवा मिलती है जिनकी दुकानदारी तुष्टिकरण के आरोपों से चलती है।   अमरनाथ का मुद्दा तो चलो ग्‍लोबल वार्मिंग से निबट जाएगा (न रहेगी बर्फ की चट्टान न बजेगी बांसुरी) पर सोच तो लगता है बनी रहेगी।

 

Saturday, June 21, 2008

शौचालय पर बात- भाषा जुटाने की चुनौती

ये बात सद्भाववादियों को उतनी रास नहीं आएगी पर हमें लगता है तो बस लगता है। बात ये कि भाषा में अपना-पराया होता है। भाषा अपनी होती है और वह पराई तो होती ही है। हिन्‍दी अपनी भाषा है और अंग्रेजी पराई। आप रोजी रोटी के लिए भाषाएं सीखते हैं, सीखनी भी चाहिए। ऐसा करने से कई लाभ होते हैं। आप अपने भाषा ज्ञान के आधार पर भाषाओं में प्रकार्यात्‍मक बँटवारा कर लेते हैं। अफसर टाईप लोग अंग्रेजी में डॉंटना पसंद करते हैं भले हैं डँटने वाले को अंग्रेजी  न आती हो (डँटने वाले को पता है उसे डॉंटा जा रहा उसमें समझना क्‍या...डॉंटने वाले को तो पता ही है कि  भई डॉंटना है समझाना नहीं) तो डॉंटने की भाषा, पुचकारने की भाषा, बात-विमर्श की भाषा अलग अलग हो सकती है। अक्‍सर होती है। मुझे इसका शानदार उदाहरण सुरेश चिपलूनकर साहब की ये तीन पोस्‍टें लगती हैं-

  • शवयात्रा, श्मशान और शवदाह के बारे में (भाग-3)
  • शवयात्रा, श्मशान और शवदाह के बारे में (भाग-2)
  • शवयात्रा, श्मशान और शवदाह के बारे में (भाग-1)
  • मुर्दा कैसे फूंकना-पजारना है, इस पर लिखने के लिए अनुभव, हिम्‍मत और भाषा सभी चाहिए। संवेदना के साथ लिखने के लिए अपनी भाषा में लिखा जाना ही बेहतर है। एक अन्‍य लेख आज पढ़ा आज के अंग्रेजी दैनिक हिन्‍दुस्‍तान टाईम्‍स में, इसके विषय में हमें लगता है कि इसे हिन्‍दी में लिखना असंभव न भी हो तो मूर्खतापूर्ण तो होता। इस लेख के  लिए भी संवेदनशीलता की जरूरत है पर अलग किस्म की। दामिनी पुरकायस्‍थ का यह लेख दिल्‍ली की कॉफी शाप्‍स में यूनीसेक्‍स यानि महिलाओं व पुरूषों के निबटने के लिए एक ही शौचालय के चलन के खिलाफ लिखा गया है तथा ग्राफिकल डिटेल्‍स के साथ बताता है कि इससे क्‍या तकलीफ हो सकती हैं।

    toilets

    अगर इसके समतुल्‍य विषय पर हिन्‍दी में लिखा जाना  हो सरोकार एकदम बदल देने होंगे। पहले तो स्त्रियों के लिए शौचालयों की व्‍यवस्‍‍था ही नहीं है शहर में- मुझे नहीं लगता कि राष्‍ट्रमंडल खेल की तैयारियों में जुटी दिल्‍ली को एहसास भी है कि पूरे शहर  में वास्‍तव में इस्‍तेमाल किए जा सकने महिला शौचालयों की बेहद कमी है। 100 रुपए की कॉफी बेचने वाली दुकानें ही ध्‍‍यान नहीं रख रही तो भला किसी और से क्‍या उम्‍मीद की जाए। गॉंधीजी के बाद के बहुत कम लोगों ने इस तरह के हश हश विषयों के राजनीतिक निहितार्थों को समझा है। और अब तो खैर ये एनजीओ के चंगुल में आ गए सरोकार हैं।

    Wednesday, June 18, 2008

    शहर के मूक आहट चिह्नित स्‍थल

    कुछ तस्वीरों से शुरू करते हैं-

    Annie. Defence Colony. Petrol Pump, Delhi

    डिफेंस कालोनी पैट्रोल पंप, नई दिल्‍ली ^

     

    Suparna, New Delhi- Taking it Inside

    कक्षा सात क्‍लासरूम, पब्लिक स्‍कूल, दिल्‍ली^

     

    July, New Delhi

    उत्‍तरी दिल्‍ली का व्‍यस्‍त रास्‍ता^

     

    Mohini. Delhi

    दिल्‍ली ^

     

    STREET SIGNS FOR 'UNSAFE SITES'

    जिस शहर से आप बेतहाशा प्‍यार करते हों उसके बदसूरत चेहरे से भी आप बखूबी परिचित होते हैं। मुझे ये तस्‍वीरें 'ब्‍लैंक न्‍वाइज' अर्थात मूक आहट से मिली हैं। अन्‍यथा शहर की खूबसूरत तस्‍वीरें लगने वाली ये जगहें वे हैं जहॉं कभी न कभी किसी महिला ने यौ‍न प्रकृति की छेड़खानी सही है। महिलाओं से छेड़खानी के खिलाफ सक्रिय इस समूह ब्‍लैं न्‍वाइज  की एक परियोजना है ब्‍लैंक न्‍वाइज जगहों का चिन्हित करने की। यदि आपके साथ कभी छेड़खानी की कोई घटना हुई (क्‍या ऐसी भी कोई महिला है जिसके साथ ऐसा नहीं हुआ) तो पुन: उस स्‍थान पर जाएं तथा उस जगह की तस्‍वीर अपने अनुभव के साथ यहॉं लगाएं इस तरह जगहों के छेड़खानी वाले मानचित्र तैयार होंगे। मैंने अपने शहर की तस्‍वीरें चुन लीं। इस साइट पर कलकत्‍ता, मुंबई, मनाली, पुष्‍कर आदि जगहों की तस्‍वीरें भी हैं ।

    पूरी जानकारी

    http://blog.blanknoise.org/ पर है।