ये बात सद्भाववादियों को उतनी रास नहीं आएगी पर हमें लगता है तो बस लगता है। बात ये कि भाषा में अपना-पराया होता है। भाषा अपनी होती है और वह पराई तो होती ही है। हिन्दी अपनी भाषा है और अंग्रेजी पराई। आप रोजी रोटी के लिए भाषाएं सीखते हैं, सीखनी भी चाहिए। ऐसा करने से कई लाभ होते हैं। आप अपने भाषा ज्ञान के आधार पर भाषाओं में प्रकार्यात्मक बँटवारा कर लेते हैं। अफसर टाईप लोग अंग्रेजी में डॉंटना पसंद करते हैं भले हैं डँटने वाले को अंग्रेजी न आती हो (डँटने वाले को पता है उसे डॉंटा जा रहा उसमें समझना क्या...डॉंटने वाले को तो पता ही है कि भई डॉंटना है समझाना नहीं) तो डॉंटने की भाषा, पुचकारने की भाषा, बात-विमर्श की भाषा अलग अलग हो सकती है। अक्सर होती है। मुझे इसका शानदार उदाहरण सुरेश चिपलूनकर साहब की ये तीन पोस्टें लगती हैं-
मुर्दा कैसे फूंकना-पजारना है, इस पर लिखने के लिए अनुभव, हिम्मत और भाषा सभी चाहिए। संवेदना के साथ लिखने के लिए अपनी भाषा में लिखा जाना ही बेहतर है। एक अन्य लेख आज पढ़ा आज के अंग्रेजी दैनिक हिन्दुस्तान टाईम्स में, इसके विषय में हमें लगता है कि इसे हिन्दी में लिखना असंभव न भी हो तो मूर्खतापूर्ण तो होता। इस लेख के लिए भी संवेदनशीलता की जरूरत है पर अलग किस्म की। दामिनी पुरकायस्थ का यह लेख दिल्ली की कॉफी शाप्स में यूनीसेक्स यानि महिलाओं व पुरूषों के निबटने के लिए एक ही शौचालय के चलन के खिलाफ लिखा गया है तथा ग्राफिकल डिटेल्स के साथ बताता है कि इससे क्या तकलीफ हो सकती हैं।
अगर इसके समतुल्य विषय पर हिन्दी में लिखा जाना हो सरोकार एकदम बदल देने होंगे। पहले तो स्त्रियों के लिए शौचालयों की व्यवस्था ही नहीं है शहर में- मुझे नहीं लगता कि राष्ट्रमंडल खेल की तैयारियों में जुटी दिल्ली को एहसास भी है कि पूरे शहर में वास्तव में इस्तेमाल किए जा सकने महिला शौचालयों की बेहद कमी है। 100 रुपए की कॉफी बेचने वाली दुकानें ही ध्यान नहीं रख रही तो भला किसी और से क्या उम्मीद की जाए। गॉंधीजी के बाद के बहुत कम लोगों ने इस तरह के हश हश विषयों के राजनीतिक निहितार्थों को समझा है। और अब तो खैर ये एनजीओ के चंगुल में आ गए सरोकार हैं।
9 comments:
इस विषय पर बात करने के लिए, साधुवाद।
दुरुस्त फरमाया आपने..
अच्छा विचारा है आपने।
ऐसे ही एक सज्जन के विचार मैने कहीं पढ़ा था। उन्होने विचारा था कि जब हम शौचालय आदि बनाते हैं तो बच्चों की सुविधा/असुविधा का ध्यान ही नहीं रखते। कभी सोचते ही नहीं कि बड़ों के लिये बने "पाट" पर एक छोटे बच्चे को प्रतिदिन बैठाना कितना कष्टकर होता होगा। इसी तरह "वाश बेसिन" की उंचाई, मूत्र-पात्र की ऊँचायी, बस/रेलगाड़ी के पायदान और ऐसे ही बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे।
ऐसे में विकलांगों की सुविधा की बात करना तो...
दामिनी एवं सुरेश जी की पोस्टों का लिंक देने के लिए धन्यवाद। यदि आपने लिंक नहीं दिया होता तो शायद मैं सुरेश जी द्वारा लिखी गई इतनी अच्छी (उपयोगी) जानकारी से वंचित रह जाता। उनकी पोस्टें तो लाजवाब हैं ही। आपका भी बहुत-बहुत धन्यवाद। - आनंद
दुरुस्त,साधुवाद.
दिनेशराय द्विवेदी जी की बात से १०० फीसदी सहमत हू. इस विषय में बात करना ही बड़ी बात है
"लिंक" सम्बन्धी नजरे-इनायत का शुक्रिया जनाबेआली :) :) अभी तो हम लिखना सीख रहे हैं जी, सधी हुई रिपोर्टिंग कैसे की जाती है यह "विस्फ़ोट" से भी जाना जा सकता है, हम तो अभी बच्चे हैं जी…
बिल्कुल सहमत हूँ..शायद आपकी आवाज कहीं सुनाई दे जाये और इस ओर नजर चली जाये.
सुरेश जी के वो तीन आलेख वाकई हिम्मती हैं. हम तो हिम्मत के आभाव में इसके नजदीक का एक व्यंग्य लिखकर मिटा चुके.
ऐसी बातों पर ध्यान ही कितने लोग देते हैं... अच्छी बात कही आपने...
(आपके फ्रैक्टल वाली पोस्ट पर भी एक टिपण्णी ठेली है... देख लीजियेगा, धन्यवाद)
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