Wednesday, March 30, 2016

संविधान

एक, दो ,तीन...चार सौ अड़तालीस
मेरे भीतर एक क्‍लाउन गिनकर लेता है
हर चुटकुले पर अट्टहास
साश्रु कभी-कभी,
संविधान साला चुटकले की किताब हो गया है।

Tuesday, March 29, 2016

कैद

मैंने
आइनों को तोड़ा सबसे पहले
चकनाचूर, किरिच किरिच उड़ा दीं
फिर इत्‍मीनान से गढ़ा खुद को
मैं जानती थी हमेशा से
कहा भी मुझे सपनों के उस सौदागर ने
जो बट्टे की मुद्रा में सौदे करता है
मैं जिसे मैंने गढ़ा है
वही मैं हूँ
वही हूँ मैं
मैं हूँ वही
आइनों में कैद न होंउंगी कभी
मैं अपनी गढ़न की कैद में हूँ प्रसन्‍न

Friday, March 18, 2016

आपकी कलैंडरी भारतमाता आपकी है, आप रखिए।

हम भी आपके वाले ही समाज में पैदा हुए इसलिए हमारे मन में भी छवियॉं राजा रविवर्माई कलैंडरों को देख देख मिथकीकृत हुई हैं उसी के आधार पर कहता हूँ कि तनिक ऑंख बंद कर भारतमाता बुदबुदाईए और देखिए आपके मन में कैसी छवि बनती है बहुत संभावना है कि कोई निर्गुण निराकार नहीं वरन नीचे जो संघी भारतमाता है उस किस्म की छवि बनेगी थोड़ा हेरफेर पर वही साड़ी पहनी आभूषणों से भरी शायद शेर, कोई हथियार और हो सकता भगवा (या तिरंगा भी, कोई बात नहीं) झंडा हाथ में लिए। पीछे एक नक्‍शा जिसमें पाकिस्‍तान/बांग्‍लादेश भारत में ही विलीन है।
मैं कलाकार नहीं हूँ इसलिए गूगल से ही तस्‍वीर लेकर रख रहा हूँ किंतु इस राजा रविवर्मा शैली वाली तस्‍वीर के स्‍थान पर कोई हिज़ाब/नकाब वाली, नमाज में झुकी दुआ मॉंगती - भारत माता (या मादरेवतन) की छवि आती तब भी आप इतना ही सहज होते ?
मैं दोनों से ही असहज हूँ क्‍योंकि मेरे लिए भारत इतना सगुणरूप नहीं है लेकिन उसे जाने दें सच यह है कि सिंहवाहिनी भारतमाता की कल्‍पना आप कितना भी शब्दिक मुलम्‍मे चढ़ाएं लेकिन वह है बहुसंख्‍यकवाद ही। औवेसी हो या कोई अन्‍य जब आप उसके प्‍यार (देश से या किसी से भी) करने के तरीके को तय करने की कोशिश करते हैं आप दरअसल बहुसंख्‍यक तानाशाही की आहट लिए होते हैं।

Wednesday, March 16, 2016

कम उदास कविता के लिए

उदास कविता मैं भी लिख सकता हूँ
आज
आज दिन
और आज रात भी
शायद आज के बाद की हर रात
मैं लिख सकता सबसे उदास कविता
पाब्लो नेरुदा।
तुम्हारी तरह मैंने भी उसे प्यार किया था
और कभी कभी उसने भी
हम सब की
कवियों की और कम कवियों की भी
उदासियाँ उपजती हैं
उस बहुत गहरे प्यार से
जो उन्होंने किया था
और कभी कभी उनसे भी किया गया था।
सुनो प्यार
काश तुम कुछ कम उपजाऊ होते
और सुनो
पाब्लो नेरुदा
उसकी बड़ी बड़ी शांत आँखों से
तुम्हारी इस शिकायत में शामिल समझो मुझे
दुनिया को कुछ कम
उदास कविताओं की जरूरत है
हर दिन
हर रात ।
(पाब्लो नेरुदा की कविता 'आज रात...मैं लिख सकता हूँ' को)

Friday, March 11, 2016

संवाद हो, असंवाद हो तो उस पर भी संवाद हो

हम जब प्‍यार में ताजा ताजा पड़े थे कैंपस में तो घंटों साथ रहने का मौका मिलता था, घंटों यानि घंटों... पता नही क्‍या क्‍या बात करते होंगे- स्‍वीकृत युगल थे इसलिए किसी से छिपना छिपाना न था इस हद तक साथ होते थे कि वाशरूम जाने में भी बैग दूसरे को पकड़ाकर जाते थे। दोस्‍त ही नहीं खुद भी हैरान होते थे कि आखिर सुबह से शाम तक करने के लिए बातों के विषय कहॉं से लाते हैं। फिर एहसास हुआ कि हम शायद अच्‍छे संवाद में थे एक दूसरे के कहने से पहले समझ लेते थे इस संवाद को और बेहतर करने की कोशिश भी कर रहे थे, फिर शादी हुई आगे की पढ़ाई, शोध, बच्‍चे और नौकरियॉं इस क्रम में शायद ग्रो भी किया होगा। लेकिन फिर एहसास होना शुरू हुआ कि एक शिकायत अक्‍सर एक-दूसरे से की जा रही है खासकर मेरे खिलाफ कि 'मैं साथी से बात नहीं करता' हमारे जिंदगी में अब तक पेशे पड़ोस प्‍यार की इतनी समानताएं थी कि विषयों की कमी नहीं हो सकती थी पर फिर भी शिकायत थी कि आपस में संवाद उतना नहीं हो रहा है जितने की चाह है, घर बच्‍चे सब्‍जी होमवर्क बिल जैसी मुंडेन गृहस्‍थी वाली बात की बात नही कर रहा हूँ, संवाद की बात कर रहा हूँ। गहरा संवाद जैसा दोस्‍तों से होता है...उठते समय तृप्ति के अहसास वाला।
ये एक दूसरे पर किसी अविश्‍वास से उपजा असंवाद नहीं था, ऊब वाला भी शायद नहीं था विषयों का कम होना हो सकता है हो पर मुझे इसकी वजह नहीं दिखती। आज से तेईस साल पहले जाहिर है जिन विषयों पर बात कर सकते थे आज उनसे ज्‍यादा विषय हैं। ढेर सुख तो बढे़ ही हैं कितने ही दु:ख भी आ जमे हैं जिनपर कितना तो कहा रोया जा सकता है। फिर भी एक अर्थपूर्ण संवाद के लिए तरसते क्‍यों रह जाते हैं हम। मनीषा ने अपनी एक पोस्‍ट में इसे इवोल्‍यूशन के संकट की तरह चीह्नने की कोशिश की है-
''हम दूर हो जाते हैं क्‍योंकि बात ही नहीं कर पाते। न समझ पाते हैं और न समझा पाते हैं। समझने-समझाने की जरूरतें भी सबकी एकसमान नहीं होतीं।''
मुझे यह समझने समझाने से ज्‍यादा वाकई समझने की जरूरत समझाने का संकट ज्‍यादा लगता है। मैं जब अपना संकट समझाने की चेष्‍टा करता हूँ तुम समझती हो मैं कह रहा हूँ - कि तुम नहीं समझ सकती जाने दो, जाहिर है यह अहम पर चोट देने वाली समझ है और इसके बाद तो संवाद की संभावना ही समझो खत्‍म, शायद दोबारा तत्‍काल कोशिश भी मुश्किल और लो फिर ऐसा मौन पसरता है कि क्‍या खाएंगे, क्‍लास कब है बच्‍चों ने होमवर्क किया या नही...बस यही बचता है अगले कितने ही घंटे या दिन। फिर हम समझाते हैं कि देखो हम दु:खी नहीं है कितना सुखी और प्‍यार भरा तो परिवार है। बाकी सब आह भरें ऐसा। फिर कोशिश करते हैं अक्‍सर एक रिक्ति फिर भी जमी रहती है। हम जानते हैं कि हमारा संवाद और संवाद की जरूरत का एहसास निन्‍यानवें फीसदी से बेहतर है पर ये अपने आप में कोई दिलासा देने की तो बात न हुई... संवाद तो वैसी ही जरूरत है जैसी खाने पीने या साथ सोने की। संवाद इसलिए अहम है और किसी पर न हो तो असंवाद पर से ही श्‍ुारू किया जाए।

Saturday, March 05, 2016

खटमलों की कसम आपको कुछ समझ नही आ रहा

ज्ञानदद्दा अब पेंशनयाफ्ता होकर गॉंव में रह रहे हैं बड़े अधिकारी हैं मैं खुद सरकारी नकरी में हूँ इसलिए साफ अनुमान लगा सकता हूँ कि सीनियर एडमिनिस्‍ट्रेटिव ग्रेड से रिटायर होने पर लगभग कितनी पेंशन मिलती होगी। पर ये सब बातें बदतमीजी ही कही जानी चाहिए आखिर पेंशन व्‍यक्ति का हक है कोई खैरात नही है। बस ज्ञानजी को समझना चाहिए कि अगर लाखों की पेंशन खैरात नहीं है तो सिर्फ पॉंच हजार की फैलोशिप और इस किस्‍म की छोटी मोटी मदद जो शोधार्थी पाते हैं यह भी उनका हक है खैरात नहीं। यह सब कहने की नौबत इसलिए आई कि ज्ञानजी ने कन्‍हैया कुमार समझाईश देते हुए यह स्‍टेटस लिखा-
छड्ड पुत्तर। अपनी पढ़ाई पूरी कर। काम धाम कर मां बाप का हाथ बटा। अठ्ठाईस साल की उमर हो गयी। कब तक टेक्सपेयर्स के बल पर मिली स्कॉलरशिप की रोटियां तोड़ चौधराहट करेगा।

ज्ञानजी जैसे वरिष्‍ठ ही नही सरकार और उसके मंत्री भी अब अचानक अभिभावकीय मुद्रा में आ गए हैं। ये कन्‍हैया इस उम्र तक पढ़ाई क्‍यों कर रहा है, जा मॉं बाप का ध्‍यान रख, पढ़ाई में मन लगा किस्‍म के चौपट तर्क रखे जा रहे हैं। एक तो वयस्‍कों को बच्‍चा समझकर व्‍यवहार करने की हमारी सामाजिक ग्रंथि का इलाज आवश्‍यक है।
 दूसरा वो कह रहा है कि कैंपस में खटमल हैं तो उसका भी व्‍यवस्‍थागत विश्‍लेषण होना चाहिए उसे 28 की साल की उम्र में यह बात और इसका महत्‍व पता है आप इस उम्र में पहुँचकर शोध में लगे युवाओं की रोजगार की स्थिति के लिए उसे ही जिम्‍मेदार बनाने पर तुले हैं। उसकी सुपरवाइजर बाकायदा घोषणा कर बात चुकी हैं कि वह गर्व करने लायक शोधार्थी है पर न जी, आप भले ही उसका शोधविषय भी न जानते हों उसे नकारा सिद्ध करने पर तुले हैं।

मैं दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में ही पढ़ाता हूँ और जानता हूँ कि इस समय शोध में लगे लाेगों को नौकरी मिलने में कितना वक्‍त लग रहा है और हॉस्‍टलों के खटमल की कसम इसकी वजह ये शोधार्थी नहीं है, सरकारें इतनी शोषक हो गईं हैं कि वे नहीं चाहतीं कि शोधार्थी गरिमा के साथ शिक्षण का या कोई शोध का रोजगार पा सकें। कितने गेस्‍ट एडहॉक अपनी शादी करना, बच्‍चे पैदा करना यहॉं तक कि निर्भय होकर किताब या लेख लिखना तक टालते हैं कि नौकरी पर फर्क पड़ेगा।
अभी इसमें इस बात को शामिल नहीं कर रहा हूँ कि 28 वर्षीय सुवक को इस बात की आजादी होनी चाहिए कि नहीं कि वह अपने भविष्‍य के बारे में खुद फैसला करे, उसे देश समाज को महत्‍व देना है या अपने निजी जीवन को, यह फैसला आप उसके लिए करने पर इतना उतारू क्‍यों हैं।
अब टेबल टेनिस की तरह आपका घटिया तर्क आप पर ही वापस फेंक रहा हूँ कि इसी तर्ज पर अब बुढऊ हो रहे मोदीजी को घर परिवार पत्‍नी के लिए कुछ करना चाहिए था कि शाखाओं में ध्‍वजप्रणाम में जिंदगी लगाानी चाहिए थी ?

कलम की आड़ में

हंसने की नहीं,
मरने की नहीं
करने की भी नहीं
नहीं मुझसे और कोई उम्मीद न रखो
कि मेरे हाथ में कलम है।

लड़ने की नहीं
अड़ने की नहीं
धरने की भी नहीं
नहीं मुझसे और कोई उम्मीद न रखो
कि मेरे हाथ में कलम है।

कलम को मैंने बना लिया है
अपना ढाल हथियार और मोर्चा सब
शब्दों की नहीं
भाव की नहीं
त्रास की नहीं
सच की नहीं
अपने कुछ की भी नहीं
नहीं मुझसे और कोई उम्मीद न रखो
कि मेरे हाथ में कलम है।

Tuesday, March 01, 2016

है ये भी एक नैपकिन विवाद ही, जरा ज्‍यादा बड़ा है

हो नहीं सकता कि आपको नारद याद न हो। हिन्‍दी का पहला ब्‍लॉग एग्रीगेटर था और सही मायने में हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग को एक समुदाय बनाने का श्रेय इसी मंच को जाता है। नारद के वक्त में कई विवाद भी हुए थे उनमें से एक विवाद आज के वक्‍त में सहज याद आता है। हमलोग इसे नैपकिन विवाद के रूप में याद करते हैं। एक पत्रकार ब्‍लॉगर राहुल ने दोस्‍त संजय बेंगाणी को गंदे नैपकिन जैसी किसी संज्ञा से पुकारा था...बात कई लोगों को नागवार गुजरी उन्‍होंने जिनमें हम खुद भी शामिल थे इस भाषा की आलोचना की, यहॉं तक सब ठीक था लेकिन फिर इसका अगला चरण आया जब लोगों ने गुहार लगाई कि इस गुनाह के लिए, राहुल के ब्‍लॉग को नारद से हटा देना चाहिए माने बैन कर देना चाहिए। अनेक तर्क दिए गए अधिकतर खाप पंचायती तर्क थे माने कि इससे माहौल बिगड़ता है, सजा देना जरूरी है आदि। हम तब भी इस बैन के खिलाफ थे..खूब बहस मुबाहिसा हुआ, बैन हुआ...होते होते नारद चूंकि बैनवादियों के ही प्रभाव में रहा अत: स्‍व-बैनत्‍व को स्‍वत: प्राप्‍त हुआ। उसने अपनी भूमिका अदा की थी सो अहम है पर लोकतंत्र की कसौटियों पर हारने से वह हार गया। इस एक विवाद भर के कारण नहीं पर कारणों में से एक यह भी रहा।
यह विवाद मुझे क्‍यों आज याद आ रहा है इसे समझना इतना भी कठिन नहीं है। हम लगभग एक किस्‍म के नैपकिन विवाद के ही वक्‍त में हैं। इस बार 'गंदा नैपकिन' नहीं कहा गया, 'भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी' कहा गया है। मसला एक एग्रीगेटर का नही एक पूरे विश्‍वविद्यालय का है बल्कि कहिए कि पूरे देश का है। नारद को ढहने दिया जा सकता था, बंद होने दिया जा सकता था... ऐसे लोग थे जो एक नारद के बंद होते ही (दरअसल पहेल ही) ब्‍लॉगवाणी खड़ा कर सकते थे। पर जेएनयू के बंद/बर्बाद होने से पहले या बाद में एक और एक और जेएनयू खड़ा करने का बूता फिलहाल किसी में नहीं है। देश के बंद/बर्बाद होने पर की तो कल्‍पना ही सिहरा देने के लिए काफी है। लेकिन यकीन कीजिए कि जेएनयू विवाद अपनी प्रकृति में नेपकिन विवाद से अलग नहीं है। इसका एक मजेदार प्रमाण ये भी है कि पुराने ब्‍लॉगर याद करेंगे तो मानेंगे कि उस समय के बैनवादी और आजकल के 'शटडाउन जेएनयू' वाले भी दरअसल एक ही हैं। अवसर चेतने का है, अतीत से सबक लेने का है।

सबकुछ किंतु वैसा ही नहीं है। खाप वाले तो नहीं बदले सो नहीं बदले पर जिन्‍हें हम लोकतांत्रिक मानते रहे वे भयानक तौर पर बदले हैं। जिस कचोट में यह पोस्‍ट लिख रहा हूँ उसे शेयर करता हूँ। उस नैपकिन विवाद और बाद की भी अनेक लोकतांत्रिक संघर्षों में जिनके साथ शामिल रहे उनमें से एक हैं। हम आजीवन लोकतांत्रिक मानते रहे। एक मंच के संचालन की अदना सी भूमिका में हैं। आज अचानक देखता हूँ कि इस साझे मंच (लगभग नारद की ही तरह) के सदस्‍यों की सूची से हमें अचानक गायब कर दिया गया। नहीं मंच उनके पिताजी की जागीर नहीं था कितने ही हम साझीदारों ने मिलके ही सींचा था और यहॉं कोई नैपकिन विवाद भी नहीं है। वे अभी भी लोकतांत्रिक होने के ही दावेदारों में हैं। बस फर्क इतना है कि बाकी से ज्‍यादा लोकतांत्रिक होने की होड़ में कुछ को कलम करना जरूरी था। अगर खापवाले और संगठित हुए हैं और जनपक्षीय बेशर्म होने की दिशा में हैं तो मान चलिए कि हम हारने वाली लड़ाई लड़ रहे हैं।