हम जब प्यार में ताजा ताजा पड़े थे कैंपस में तो घंटों साथ रहने का मौका
मिलता था, घंटों यानि घंटों... पता नही क्या क्या बात करते होंगे-
स्वीकृत युगल थे इसलिए किसी से छिपना छिपाना न था इस हद तक साथ होते थे कि
वाशरूम जाने में भी बैग दूसरे को पकड़ाकर जाते थे। दोस्त ही नहीं खुद भी
हैरान होते थे कि आखिर सुबह से शाम तक करने के लिए बातों के विषय कहॉं से
लाते हैं। फिर एहसास हुआ कि हम शायद अच्छे संवाद में थे एक दूसरे के कहने
से पहले समझ लेते थे इस संवाद को और बेहतर करने की कोशिश भी कर रहे थे, फिर
शादी हुई आगे की पढ़ाई, शोध, बच्चे और नौकरियॉं इस क्रम में शायद ग्रो भी
किया होगा। लेकिन फिर एहसास होना शुरू हुआ कि एक शिकायत अक्सर एक-दूसरे
से की जा रही है खासकर मेरे खिलाफ कि 'मैं साथी से बात नहीं करता' हमारे
जिंदगी में अब तक पेशे पड़ोस प्यार की इतनी समानताएं थी कि विषयों की कमी
नहीं हो सकती थी पर फिर भी शिकायत थी कि आपस में संवाद उतना नहीं हो रहा है
जितने की चाह है, घर बच्चे सब्जी होमवर्क बिल जैसी मुंडेन गृहस्थी वाली
बात की बात नही कर रहा हूँ, संवाद की बात कर रहा हूँ। गहरा संवाद जैसा
दोस्तों से होता है...उठते समय तृप्ति के अहसास वाला।
ये एक दूसरे पर किसी अविश्वास से उपजा असंवाद नहीं था, ऊब वाला भी शायद नहीं था विषयों का कम होना हो सकता है हो पर मुझे इसकी वजह नहीं दिखती। आज से तेईस साल पहले जाहिर है जिन विषयों पर बात कर सकते थे आज उनसे ज्यादा विषय हैं। ढेर सुख तो बढे़ ही हैं कितने ही दु:ख भी आ जमे हैं जिनपर कितना तो कहा रोया जा सकता है। फिर भी एक अर्थपूर्ण संवाद के लिए तरसते क्यों रह जाते हैं हम। मनीषा ने अपनी एक पोस्ट में इसे इवोल्यूशन के संकट की तरह चीह्नने की कोशिश की है-
ये एक दूसरे पर किसी अविश्वास से उपजा असंवाद नहीं था, ऊब वाला भी शायद नहीं था विषयों का कम होना हो सकता है हो पर मुझे इसकी वजह नहीं दिखती। आज से तेईस साल पहले जाहिर है जिन विषयों पर बात कर सकते थे आज उनसे ज्यादा विषय हैं। ढेर सुख तो बढे़ ही हैं कितने ही दु:ख भी आ जमे हैं जिनपर कितना तो कहा रोया जा सकता है। फिर भी एक अर्थपूर्ण संवाद के लिए तरसते क्यों रह जाते हैं हम। मनीषा ने अपनी एक पोस्ट में इसे इवोल्यूशन के संकट की तरह चीह्नने की कोशिश की है-
''हम दूर हो जाते हैं क्योंकि बात ही नहीं कर पाते। न समझ पाते हैं और न समझा पाते हैं। समझने-समझाने की जरूरतें भी सबकी एकसमान नहीं होतीं।''मुझे यह समझने समझाने से ज्यादा वाकई समझने की जरूरत समझाने का संकट ज्यादा लगता है। मैं जब अपना संकट समझाने की चेष्टा करता हूँ तुम समझती हो मैं कह रहा हूँ - कि तुम नहीं समझ सकती जाने दो, जाहिर है यह अहम पर चोट देने वाली समझ है और इसके बाद तो संवाद की संभावना ही समझो खत्म, शायद दोबारा तत्काल कोशिश भी मुश्किल और लो फिर ऐसा मौन पसरता है कि क्या खाएंगे, क्लास कब है बच्चों ने होमवर्क किया या नही...बस यही बचता है अगले कितने ही घंटे या दिन। फिर हम समझाते हैं कि देखो हम दु:खी नहीं है कितना सुखी और प्यार भरा तो परिवार है। बाकी सब आह भरें ऐसा। फिर कोशिश करते हैं अक्सर एक रिक्ति फिर भी जमी रहती है। हम जानते हैं कि हमारा संवाद और संवाद की जरूरत का एहसास निन्यानवें फीसदी से बेहतर है पर ये अपने आप में कोई दिलासा देने की तो बात न हुई... संवाद तो वैसी ही जरूरत है जैसी खाने पीने या साथ सोने की। संवाद इसलिए अहम है और किसी पर न हो तो असंवाद पर से ही श्ुारू किया जाए।
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