Monday, August 27, 2007

टेक्‍नोफोबिया और बैग-दुपट्टे की दुखद प्रणयलीला

मैट्रो अब दिल्‍ली की लाईफ लाइन बन चुकी है। इसकी कई तकनीक मजेदार हैं और इन्‍होंने दिल्‍ली की सिविक सेंस को काफी प्रभावित किया है। मसलन एक तो लें एस्‍केलेटर्स और दूसरे बात करें ट्रेन के स्‍वचलित दरवाजों की। गैर दिल्‍लीवासियों को बताया जाए कि चूंकि मैट्रो अंडरग्राउंड, भूतल तथा एलीवेटिड तीनों सतर पर चलती है तथा अक्‍सर लोगों को ट्रेनें बदलनी पड़ती हैं अत: यात्रियों को खूब ऊपर नीचे की सीढि़यॉं चढ़नी-उतनी पड़ती हैं अत: मैट्रो ने हर स्‍टेशन पर बहुत से एस्‍केलेटरों की व्‍यवस्‍था की है

- इन बिजली की सीढियों के सार्वजनिक स्‍तर पर इतने बढ़े पैमाने पर उपयोग को इस शहर (और शायद किसी भी भारतीय शहर) ने पहले कभी नहीं देखा था अत: बहुत से लोगों के लिए ये प्रोद्योगिकी तथा टैक्‍नोफोबिया को उभारता स्‍थल होता है। अक्‍सर इन सीढि़यों के पास ऐसे भयभीत लोग खड़े अनिर्णय में खड़े दिखते हैं कि पैर आगे बढ़ाएं कि नहीं- अकसर फिर वे साथ में बनी सामान्‍य सीढि़यों से जाने का निर्णय लेते हैं- बहुधा ये लोग बुजुर्ग होते हैं क्‍योंकि उम्र के बढ़ने के साथ साथ नई तकनीकों को लेकर अविश्‍वास बढ़ता जाता है। कुल मिलाकर होता ये हैं कि युवा लोग तो मजे में एस्‍केलेटर से जाते हैं और बुजुर्ग हॉंफते हॉंफते तीस तीस मीटर या तो सामान्‍य सीढि़यों से चढ़ते हैं या फिर लिफ्ट का लंबा इंतजार करते हैं।

दूसरी तकनीक यानि स्‍वचलित दरवाजे भी कम नहीं है। ट्रेन के ड्राईवर के सामने कैमरे से सीसीटीवी के माध्‍यम से पूरे प्‍लेटफार्म का दृश्‍य रहता है- जब सब उतर चढ़ जाते हैं तो वह अरवाजे बंद करता है, यदि कुछ सामान या कोई व्‍यक्ति टकराता है दरवाजे से तो दरवाजे स्‍वमेव पुन: खुल जाते हैं तथा फिर बंद करने होते हैं- ट्रेन दरवाजे बंद होने पर ही चल सकती है।


पिछले सप्‍ताह चॉंदनीचौक स्टेशन पर एक महिला (अधेड़, आकार नाशपाती पर आप इस वृतांत को  रोचक बनाना चाहें तो कल्‍पना में कमनीयता का समावेश करें) ट्रेन में थी और एक बंधु उतरना चाहते थे, उतरे पर जनाब के बैग की चेन में इन महिला का दुपट्टा जा फँसा- अब वे प्‍लेटफार्म पर और ये ट्रेन में- न वे ट्रेन में वापस आएं न ये ही ट्रेन से उतरें और बैग है कि दुपट्टे को छोड़ नहीं रहा। ट्रेन के सपीकर उवाच रहे हैं ' यात्री कृपया दरवाजों से हटकर खड़े हों'    बैग और दुपट्टे का प्रणय जारी था और दरवाजे लगे बंद होने हम सब दर्शक दम साधे देख रहे हैं कि हैं अब क्‍या होगा- कोई इन महिला को सलाह दे रहा है कि वे उतर जाएं तो कोई उन साहब से ही वापस चढ़ आने की गुजारिश कर रहा है :) :) दरवाजे साहब के बैग और हाथ से टकराकर वापस खुले और फिर बंद होने को आए तब अंतत: उन्‍होंने बिना इस बात की परवाह के कि उस दुपट्टे का कया होगा उसे पूरी ताकत से खींचा और छेददार दुपट्टा छोड़कर तथा उसका एक अंश, स्‍मृति के रूप में अपने बैग की चेन के मुँह में दबाए अपने रास्‍ते चले- तब जाकर दरवाजे बंद हो पाए और दर्शकों के लिए इस शो का पटाक्षेप हुआ। 

Friday, August 24, 2007

ब्‍लॉगरों पर कब बरसेंगी नौकरियॉं

बहुधा इस बात पर हम लोगों ने चर्चा की है कि जब तक चिट्ठाकारी के साथ आजीविका का सवाल नहीं जुड़ेगा तब तक यह गैर पेशेवर सिमटा हुआ समुदाय ही रहेगा। पहले तो इस बात को लेकर ही असहजता थी पर धीरे धीरे अब विज्ञापन दिखने लगें हैं हम भी चेप चुके हैं मुख्‍यत: यह बताने के लिए हमारी सैद्धांतिक सहमति है कि व्‍यावयायिकता के सवाल को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। रविजी इस मामले में हम लोगों पथ प्रदर्शक हैं। किंतु पेशेवर ब्‍लॉगिंग का मतलब केवल यही नहीं लिया जाना चाहिए कि ब्‍लॉग पर लगे विज्ञापनों से कितनी आय हुई। हिंदी ब्‍लॉगिंग को एक और जमीन तलाशनी चाहिए वह है उन नौकरियों की जो आपके हाथ इसलिए लगें क्‍योंकि आप ब्‍लॉगर हैं। जॉब्‍स फार ब्‍लॉगर्स के प्रस्‍ताव अक्‍सर विज्ञापनों में दिखने लगे हैं। इन नौकरियों में अकसर कंटेंट-डेवेलपमेंट, संपादन, लेखन, पत्रकारिता आदि की नौकरियॉं हैं। वेतन आदि शुरुआती लिहाज से ठीकठाक ही होता है। पर समस्‍या अभी यह है कि नौकरियॉं सामान्‍यत: अंगेजी के ब्‍लॉगरों के लिए हैं पर इसकी वजह यह नहीं कि हिंदी ब्‍लॉगरों के उपयुक्‍त नौकरियॉं बाजार में नहीं हैं वरन यह है कि जॉब-मार्केट में हिंदी वाले लोगों को खोज रहे नियोक्‍ताओं में जागरूकता का अभाव है- वे स्किल्‍स तो वे ही खोज रहे हैं जो ब्‍लॉगरों में होती हैं- मसलन तत्‍काल लिख पाना, हल्‍के फुल्‍के गद्य में बात कह पाना, कंटेस्‍टड वातावरण में प्रतिक्रिया कर पाना, अंतर-वैयक्तिक संप्रेषण में योग्‍य होना आदि  किंतु ये नियोक्‍ता अभी इस बात से अपरिचित हैं कि हिंदी में ब्‍लॉगरों का एक समुदाय बन रहा है जहॉं उन्‍हें आसानी से अपने मतलब के लोग मिल सकते हैं। यानि वे हमें खोज रहे हैं पर बिना ये जाने कि वे हमें खोज रहे हैं।

पर सवाल यह भी कि यदि हिंदी के ब्‍लॉगरों के लिए नौकरियॉं मिलने की नौबत आए भी तो क्‍या लेने वाले लोग हम लोगों में से हैं। हिंदी में संघर्षशील युवा ब्‍लॉगर कम हैं- लोग अपने अपने जमे जमाए नौकरी या पेशे में हैं। और स्‍वांत: सुखाय या भविष्‍य में निवेश के लिहाज से ब्‍लॉगिगं में हैं (कुछ 'हिंदी-सेवा'  के क्षेत्र से भी हैं पर उस राजनीति की अभी नौकरियॉं निकलनी शुरू नहीं हुईं)  पर फिर भी अनजमे अधजमे पत्रकार, विद्यार्थी आदि यदि हों तो उन्‍हें चाहिए कि वे इस प्रासंगिक नौकरियों में आवेदन करते हुए अपनी ब्‍लॉगिंग स्किल्‍स का उल्‍लेख प्रमुखता से करें।  इसी प्रकार कंप्‍यूटर व पत्रकारिता के जमे जमाए लोग अगर नौक‍रियॉं देने की स्थिति में आ गए हों तो वे भी अपने अपने संस्‍थानों में योग्‍यताओं को तय करते समय ब्‍लॉगिंग का उल्‍लेख करना शुरू करें। एक बार शुरूआत होगी तो उम्‍मीद है कि हिंदी के चिट्ठाकारों पर भी नौकरियों की बरसात शुरू होगी। एक बार हिंदी ब्‍लॉगिंग के नाम पर नौकरियॉं मिली तो ये अपने आप में चिट्ठाकारी का ऐसा विज्ञापन होगा कि फिर तो बल्‍ले बल्‍ले हो जाएगी।

Tuesday, August 21, 2007

क्‍या भारतीय कम्‍यूनिस्‍ट चीनी हितों के लिए काम कर रहे हैं

अमरीका से रिश्‍तों में गर्माहट हो इससे हमें मनमोहन सिंह टाईप खुशी नहीं होती और इस न्‍यूक्लियर डील पर प्रतिक्रिया किए बिना हमारा काम चल रहा था पर हाल की वाम नौटंकी ने चिढ़ा दिया है। हमारा जन्‍म ही 1962 के युद्ध के 10 साल बाद हुआ था पर फिर भी हमें ये बात कुढ़न पैदा करती है कि वाम के लोगों ने उसउस युद्ध में भारतीय पक्ष का खुला समर्थन करने से इंकार कर दिया था- लेकिन असल नग्‍न नृत्‍य हम तो इस बार देख रहे हैं। परमाणु समझौता एक अंतर्राष्‍ट्रीय करार है, ये कोई अंधा प्रेम नहीं है कि कोई पक्ष अपना सर्वस्‍व लुटाने के लिए तैयार हो इसलिए कुछ गिव एंड टेक रहा ही होगा पर हमें वाम की लाइन आव ऐक्‍शन से दिक्‍कत ये है कि वे पूरी तरह से अपने चीनी आकाओं के इशारे पर काम करते दिखाई दे रहे हैं।



हम बल्‍ले बल्‍ले वाले देशभक्‍त नहीं हैं- उकसाऊ इशारों पर तिरंगा लहलहाते हुए वावले हुए नहीं फिरते पर फिर भी इतना तार्किक तो हैं कि मानें कि अगर देश है तो उसके नियामक सिद्धांत इस देश के हितों के अनुसार होने चाहिए किसी लाल-पीले पड़ोसी के लिए नहीं। ऐसा भी नहीं कि दूसरों के इशारों पर नाचते प्राधिकारी हमने देखे नहीं- हमारा प्रधानमंत्री कठपुतली है- राष्‍ट्रपति तो है ही और भी है पर कम से कम इनकी डोर तो इसी देश में ही थी इस परमाणु प्रपंच में तो डोर साफ साफ नाथुला दर्रे के उस ओर से आ रही है। आजकल मीडिया में छप रही खबरें भी साफ साफ प्‍लांट की हुई दिखाई दे रही हैं- इस पक्ष या उस पक्ष के द्वारा पर फिर भी आज के हिंदुस्‍तान टाइम्‍स में प्रकाशित बी रमन के लेख द मंच्‍यूरियन कैंडीडेट को पढें, हो सकता है ये भी सी आई ए की प्‍लांट की गई स्‍टोरी हो पर इस लेख से पहले भी हम यही मान रहे थे कि लेफ्ट के आचरण के पीछे चीनी आकाओं के हितों की रक्षा का भाव है न कि भारत के हित।


Sunday, August 19, 2007

हाशिए का क्‍या कहें-क्‍या करें-हमें नहीं बूझता

आजकल गाड़ी चलाने की बात करना खतरे से खाली नहीं है और ये बात मैं चुहल में नहीं कह रहा हूँ। किसी सैडिस्टिक प्‍लेजर को पाने के लिए भी नहीं। पर आप अगर उस जमात से हैं जो हाशियाई विमर्श में दूसरे पाले में है तो आपके दिन खराब चल रहे हैं- गाड़ी चलाने से बात शुरू इसलिए की कि तब मैं भी गाड़ी ही चला रहा था जब यह हुआ-

हुआ यह कि हमारे एक मित्र हैं- नेत्रहीन बोले तो 'विज्‍युअली चैलेंज्‍ड' और पोलिटिकली करेक्‍ट होना चाहें तो 'डिफ्रेंटली एबल्‍ड' पर ये सब वे बाद में हैं पहले मित्र हैं और हमारी ही तरह पचास कमियों के मालिक हैं पर तब से दोस्‍त हैं जब हम अपने कॉलेज से डिबेट करते थे वे स्‍टीफेंस में थे। बहसियाते थे- अब भी खूब करते हैं। डिसेबिलिटी के विमर्श से हमारी पहचान उन्‍हीं के रास्‍ते हुई है। दिल्‍ली में मुबाहिसा नाम की संस्‍था हुआ करती थी जो लुईब्रेल पर कार्यक्रम करती थी हम भी जाया करते थे। कुल मिलाकर ये कि हम भी सहमत थे- और हैं, कि संरचनाएं पूरे शरीर वालों ने खड़ी की हैं और वे शारीरिक पूर्णता वालों के ही लिए हैं तथा इसी के सहारे यह सिद्ध कर दिया जाता है कि कमी विकलांगों में है जबकि सच्‍चाई ये है कि खड़े किए गए ढांचे गलत हैं जो किसी को कमतर सिद्ध करते हैं- ये बात हम समझते थे और हैं, पर उस दिन मित्र के साथ गाड़ी में जा रहे थे- हम ही ड्राईव कर रहे  थे- सामने एक साईकल वाला था जिसे न अपनी सुध थी न किसी ओर की- बिना किसी भी किस्‍म के संकेत झट साइकल मोड़ी और बस....वह बच तो गया पर हमारे मुँह से निकला 'अंधा है क्‍या....' 

क्‍या बताएं क्‍या गत हुई। पर उसे छोडें मित्र था जानता था कि कमी है हममें भी हो सकती है। लाख संवेदनशीलता दिखाएं पर अंदर के संस्‍कारों से पीछा छुटाने में अरसा लगता है और तब भी कब संस्‍कार जोर मारने लगेंगे नहीं कह सकते। इसलिए दलितों का सवर्ण मित्र, फेमिनिस्‍ट का पति, विकलांग का संकलांग साथी,  समलैंगिक का लोकतांत्रिक हैट्रोसेक्‍सुअल मित्र,  कुल मिलाकर हर वह व्‍यक्ति जो हाशियाई विमर्श में मुख्‍यधारा से है पर हाशिए के सवालों के प्रति संवेदनशील है वह लगातार निशाने पर होता है। दरअसल वह खुद  हाशियाई हमलों का पहला निशाना होता है।

मुझे इस हालत जैसी एक रोचक स्थिति तब दिखाई देती है जब हम अध्‍यापक कक्षा से गायब रहने वालों को लेकर अपनी खीज कक्षा में व्‍यक्‍त करते हैं- अरे भई जो गायब है वो तो गायब है- सुना रहे हैं उसे जो गायब नहीं है, पर नहीं तब तो 'छात्र बिरादरी' निशाने पर होती है। :)

यदि आप सवर्ण, पुरुष, वयस्‍क, शरीर से पूरे हैं बहुसंख्‍यक हैं तो आप लाख संवेदनशीलता हासिल करें इतना तो तय है कि कहीं न कहीं से आपकी जाति, लिंग, वय, धर्म का कीड़ा कुलबुला ही बैठेगा, इसलिए भी कि सच्‍ची-झूठी संवेदनशीलता के कारण आप बार बार सामने आकर इस दोषदर्शन के पात्र बनते हैं। कम से कम हमारे साथ तो ऐसा होता है और खूब। स्‍त्री संवेदनशीलता पर लिखे, छपे, पुरस्‍कृत हैं पर जानते हैं कि पत्‍नी की कसौटी पर पुरुषवादी ठहरेंगे- दिल्‍ली के कथित तौर पर मुसलमान कॉलेज से पढे और पढ़ाया करते हैं दोस्‍त, छात्र मुसलमान है इसलिए उनकी ही नजर से बहुसंख्‍यकवादी ठहरते होंगे, बेटा अभी आठ का नहीं हुआ पर उसे साफ दिखता है कि हम बडे होने के कारण रौब गांठते हैं (उसका वाक्‍य है कि इस दुनिया में कुछ भी बच्‍चों के हिसाब से नहीं है), एक दलित के खिलाफ लडे़ कि उसने अपनी बीबी को मरने पर मजबूर कर दिया था तो उसने कहा-कहलवाया कि राजपूत है-सवर्ण, इसलिए दलित के खिलाफ मोर्चा खोला है। तो इतना तय जानें कि हाशियाई विमर्श एक क्रूर विमर्श है पर उसकी ये क्रूरता जो जाहिर है प्रतिहिंसा है शत्रु को बाद में आहत करती है शत्रुओं में मित्र को पहले।

Wednesday, August 15, 2007

साठ सालों पर कार्टूनिया नजर

स्‍वतंत्रता दिवस के मौके पर द हिंदू ने एक विशेष परिशिष्‍ट प्रकाशित किया है जिसमें नामी गिरामी लोगों के लेख हैं साथ ही एक पूरे पन्‍ने पर छ: दशकों से खास खास कार्टून हैं- अच्‍छा संकलन लगा, इन्‍हीं में से कुछ कार्टून पेश हैं-
















Tuesday, August 14, 2007

कहीं से नहीं आए जहाँपनाह, हम यहीं थे

विश्‍वविद्यालयों के क्‍लासरूम, शोधपत्रों, और नई पीढ़ी के दिमाग में लड़ी जा रही एक बड़ी और अहम जंग यह है कि 'आर्य कहॉं से आए'। कई बेचारे विद्यार्थी बड़े भोलेपन से पूछते हैं कि सर इससे क्‍या फर्क पड़ जाएगा- पर जल्‍द ही सब मान जाते हैं कि यह अहम लड़ाई है - जैसे ही तय पाया जाएगा कि आर्य भारत के ही मूल निवासी है- तुरंत फुरत अनार्य 'बाहरी' हो जाएंगे और देश- आर्यों का, यानि आर्यवर्त हो जाएगा- इसके बाद क्‍या क्‍या हो सकता है इस पर काफी लिखा गया है, इसलिए कौन कहॉं से आया, कब आया ये बड़ा सवाल, अहम सवाल है। जो पहले आया उसने जमीन घेरी और वो उसकी हो गई- जो बाद में आया उसके लिए कायदे भी पहले से जमे जहॉंपनाह तय करेंगे बाकी सब के आचरण को मर्यादा में रखने की 'पुनीत जिम्‍मेदारी' भी फिर जाहिर है- पहले आए लोगों को निबाहनी पड़ेगी।


कहॉं देश में आर्यों के आने की बात, कहॉं चिट्ठासंसार की चूं..चूं चवन्निया जागीर, पर बात बदली नहीं। अब देखें जीतू भाई जनवरी 2004 में अवतरित हुए ब्‍लॉग जगत पर, वैसे पहली पोस्‍ट शायद सितम्‍बर की है, पर जनवरी ही माने लेते हैं। हम बहुत जूनियर हैं, हम दिखें ब्‍लॉगर पर दिस्‍मबर 2004 में- अब दिख रही पहली पोस्‍ट जो अब मिल पाएगी वो और बाद में जून 2005 की। तो भई आर्यपुत्र जितेंद्र चौधरी का अवतरण इस आर्यावर्त पर कम से कम तीन महीने और अधिक से अधिक 17 महीने पहले का है। तो भई ये आर्यावर्त हम बाहरी लोगों का नहीं है- जीतेंद्र चौधरी सर का है- अत: उन्‍हें तीन साल बाद हमारी रैगिंग की सुध आई और उन्‍होंने घोषणा की-



@मसिजीवी
आपके बारे मे कुछ कहने को बचा ही नही, आपने आकर हिन्दी चिट्ठाजगत मे जो द्वेष/नफ़रत को फैलाया है वो सर्वविदित है, मै आपके तमाशे चुपचाप देख रहा हूँ, लेकिन शायद अब पानी सर से ऊपर हो रहा है।


रैगिंग के खिलाफ हम लिख चुके हैं पर वह सभ्‍य समाज की बात थी, जितेंद्र हमारी राय मानने के लिए मजबूर नहीं हैं पर भई बात तो तथ्‍यात्‍मक कहोगे हमें आए तीन साल होने को आए, अगर हम इतना विद्वेष फैलाते हैं तो इतने महीनों बाद याद आई- पहले तो आपका कुछ रौब-दाब भी था कहते तो हम शायद मान भी जाते :) पर मामला दरअसल ये है कि शरीया और हुदूस के इलाके में नोट कूटते-कूटते शेखों से कदम कदम पर दुरदुराए जाते हुए जितेंद्र चौधरी जहॉंपनाह दरअसल भूल गए हैं कि लोकतंत्र क्‍या होता है- सम्‍मान क्‍या होता है तथा सम्‍मान देना क्‍या होता है। पर ये जितेंद्र जी की व्‍यक्तिगत समस्‍या है- उनके व्‍यक्तिगत चयन हैं- हमें उससे दिक्‍कत नहीं- हम आज भी लोकतंत्र में ही रहते हैं और उसी से अपने विमर्श के लहजे को अंगीकार करते हैं। ये नहीं कि गलतियॉं नहीं करते पर उन गलतियों को ओन करने का जिगर रखते हैं।


आर्यो का सवाल या जितेंद्रजी की राय केवल भूमिका थी जो अकारण लंबी हो गई। मूल मामला वही है जो अविनाश प्रकरण में था, राहुल प्रकरण में था कि भई जो आपको पसंद नहीं है उसे भी उसका स्‍पेस दो- जब तक वह आपकी जमीन पर तंबू गाड़ता था तब तक तो आपसे स्‍पेस मांगना पड़ता था अब वह बात नहीं है पर विमर्श के उसी जागीरदारी लहजे पर लगाम देने की जरूरत है। आप नहीं चाहते कि जरा सा भी असहमत स्‍वर रहे, ऐसा आपके आका सुल्‍तानों की सल्‍तनत में होता है, यहॉं तो आपकी इच्‍छा के खिलाफ मुसलमान भी रहेंगे, औरतें भी रहेंगी, और भी लोग रहेंगे। मसलन आपके सर के ऊपर से पानी गुजर गया जहॉंपनाह तो क्‍या करेंगे भई? तमाम विकारों के वावजूद इस देश के लोकतंत्र में हम अपनी बात कहते हैं- कभी कभी नाराजगी भी होती हैं और असहमति तो हमेशा होती हैं- मैं आपके जबाव में कह सकता हूँ कि आप क्‍या कर लोगे- कुछ नहीं, पर इस तेवर से बात वह करे जिसे अपने कहे के असर में विश्‍वास न हो। आपने अविनाश से भी यही सब बातें कहीं थीं अब आप हमें कह रहे हो- इस चौधराहट को जेब में रखें- आपको हमारी बात ठीक नहीं लगती कह दें कि भई ठीक नहीं है- हममे ऐंठ नहीं है, आपमें हैं, हम सुन लेंगे- जो चार बात कहता है उसमें आठ सुनने का हाजमा भी होना चाहिए, हम यह जानते हैं


हम तो केवल विनम्रता से बात कहकर बात खत्‍म करते हैं कि जहॉंपनाह जितेंद्र चौधरी आप कहते हैं कि हमने यहॉं आकर हमने द्वेष फैला दिया, हमारी सीधी सी राय है कि हम 'कहीं नहीं आए' हम यहीं थे जहॉंपनाह।

तस्‍वीर जितेंद्रजी के ही कैमरे से :)



Sunday, August 12, 2007

गंगा और रामचरितमानस से मुक्ति का क्रूर प्रसंग

' मैं मानता हूँ कि इस हिंदी प्रदेश की जड़ता, पिछड़ेपन और निष्क्रियता निठल्‍लेपन के लिए जिम्‍मेदार दो चीजें हैं- एक का नाम 'रामचरितमानस' और दूसरे का का नाम 'गंगा' नदी है। ये दो नहीं होते तो शायद हम इनसे उबरने की कोशिश कर लेते'

उपर्युक्‍त कथन किसका हो सकता है इसके अनुमान पर कोई ईनाम नहीं रखा जा सकता- जी सही बूझा...ये हँस के संपादक राजेंद्र यादव के उवाच हैं जो उन्‍होंने स्‍वप्निल प्रजापति के साथ बातचीत में रखे थे और जो वाक के पिछले अंक में प्रकाशित हुए थे (वाक 1, पृ. 28)

इसके पीछे का तर्क पुन: उद्धरण में इस प्रकार है- ' लेकिन गंगा के साथ जो पौराणिकता, जो मिथक जोड़े गए हैं, वे ही गंगा को इस रूप में बनाते हैं। कहीं गंगा विष्‍णु के चरणों से निकल रही है। कहीं शिव के सिर से निकल रही है। मतलब उसमें बहुत से देवताओं को शामिल करने की कोशिश की गई है। कृष्‍ण इसमें शामिल नहीं हैं। इसके महत्‍व में शामिल नहीं हैं। राम तो गंगा के ही हैं। गंगा इन्‍हीं धार्मिकताओं की वजह से है .....गंगा ने निठल्‍ले यानि मात्र खाने पीने वाले, अफीम गांजे का नशा करके पड़े रहने वाले करोड़ो साधुओं की जमात पेदा कर दी है, जो इनके किनारे पर पलते हैं। कहीं पुजारियों के रूप में, कहीं पंडों के रूप में कहीं किसी रूप में। आप जानते हैं कि जो धन परिश्रम से कमाया नहीं जाता, मुफ्त में आता है वह अपराधों का जनक है। कोई अपराध ऐसा नहीं जो यहॉं न होता हो और ये लोग न करते हों' 

इसी प्रकरण में और एक बार राजेंद्र यादव का- 'और रामचरितमानस अपरिवर्तनशीलता का सबसे बड़ा शास्‍त्र है। राम जैसा बनने के लिए आपको दलितों और शूद्रों का वध करना पड़ेगा। गभ्रवती स्‍त्री को घर से भगा देना पड़ेगा'

हिंदी की दुनिया में एक जुमला आजकल कहा जाता है कि 'भई तुलसी के दिन बुरे चल रहे हैं' एक समय था कि आचार्य शुक्‍ल, निराला जैसे रचनाकार तुलसीदास को सर ऑंखों पर बैठा रहे थे (अब ये ब्राह्मणों के रूपों में पहचाने जा रहे हैं) और आजक वर्णवाद व स्त्रीविरोध के प्रतीकों के रूप में।

राजेंद्र यादव की बातों में दम है इससे इंकार नहीं किया जा सकता, प्रतिक्रिया में लिखते हुए हमारे गुरू कृष्‍णदत्‍त पालीवाल जो बकौल खुद के ' ब्राह्मण हैं, पिशाच हैं, नीच हैं- वे कोशिश करते हैं पर कन्विंसिंग नहीं हैं। हम तो बात सामने इस मकसद से रख रहे थे कि देखो भाई हाशियाई विमर्श क्रूर है, किसी को नहीं बख्‍शता। क्‍या बख्‍शना चाहिए ?

आपका ब्‍लॉग भौत अच्‍छा है- मुजको गपडचौथ डॉट इन....

आपका blog अच्छा है
मे भी ऐसा blog शुरू करना चाहता हू
आप कोंसी software उपयोग किया
मुजको *******डाट इन अच्छा लगा
आप english मे type करेगा तो hindi मे लिपि आएगी

 

पिछले दिनों इस मार्के के संदेश लगभग हर हिंदी चिट्ठे पर दिखे हैं। ये रंजू, मनोज, रानी, .. और न जाने किस किस नाम से किए गए हैं। कोई सर्च मूल्‍य न जुड़ जाए उनके उत्‍पाद में इसलिए उसका नाम तो नहीं लूंगा, उस औजार की तरफ गया भी नहीं क्‍योंकि जो अपने प्रचार में ईमानदार नहीं उसके उत्‍पाद में ईमानदारी की भला क्‍या गुंजाइश।  पर हमारी दिक्‍कत उत्‍पाद से नहीं है, प्रचार की इस बेईमानी से है जिसमें अलग अलग नामों से एक ही संदेश दिया जा रहा है जो प्रचार है। बाजारवाद के  आने का एक मतलब कई लोगों को यह लगता है कि मूल्‍यों की कोई जगह या जरूरत ही नहीं रह गई है, बहुत खुंदक आती है...

पर इस तरह के स्‍पैम कम से कम एक बहुत भरोसा देने वाली बात करते हैं जो इस टैक्‍स्‍ट की क्‍लोज रीडि़ग से उभरता है। टैक्‍स्‍ट जानबूझकर दक्षिण भारतीयों की शैली में हिंदी (और उसकी गलतियॉं) करता है- यह भाव जगाने की कोशिश है कि देखो कोई दक्षिण भारतीय हिंदी में कोशिश कर रहा है, चलो देख आएं- मुझे सद्भाव का यह विश्‍वास राहत देता है। निहित स्‍वार्थ को जाने दें- ऐसे नौसिखिए नहीं हैं कि जाएंगे और उत्‍पाद खरीद/इंस्‍टाल कर बैठेंगे पर कितनी मनोहारी है यह धारणा कि लोगों को लगता है कि हिंदी भाषी दक्षिण भारतीयों की हिंदी विषयक छोटी सी बात से ही आकर्षित होकर खिंचे चले आएंगे- दो भाषाओं के बीच इस सद्भाव से आनंद अनुभव होता है।

Saturday, August 11, 2007

वर्नाक्‍यूलर इंडैम्निटी बांड की शर्मिंदगी से गुजरे हैं कभी ?

अगर आपको कभी बैंक लोन लेना पड़ा हो , बीमा पॉलिसी लेनी पड़ी हो या किसी हाई कोर्ट या सर्वोच्‍च न्‍यायालय में कोई कागज दाखिल करना पड़ा हो- तथा अगर आप हिंदी में हस्‍ताक्षर करने वाले जीव हों तो आपको बेहद अपमानजनक प्रक्रिया से गुजरना पड़ा होगा- इस प्रक्रिया का नाम है- 'वर्नाक्‍यूलर इंडैम्निटी बांड' यानि गुलामों की भाषा विषयक दायित्‍वमुक्ति का करार।




अब हम लाख खुद को प्रगतिशील व रैशनल घोषित करें पर राष्‍ट्रवाद का इतना कीड़ा तो हममें भी है (और सच कहें हमें कोई शर्मिंदगी नहीं) कि हमें ये बात बेहद चुभती है कि ये देश है किसका... अगर अपनी भाषा में लिखने/बोलने पर हम जाहिल मान लिए जाते हैं और हमें लिख कर देना पड़ता है (गवाह के साथ) की हमें हमारी औकात वाली भाषा में समझा दिया गया है हजूर। हमारे नाम के सामने डा. लिखा था, हमारी बैंक सेल्‍स एजेंट बेचारी पत्राचार से बीए थी, खिसियाते हुए पर्चा आगे करती है- सर क्‍या करें रूल्‍स ऐसे हैं- गलत हैं पर पुराने चले आते हैं- हम भी पूरी व्‍यवस्‍था की खीज भला उस बेचारी पर क्‍यों निकालें पर अगर कहें कि अपमानित महसूस नहीं किया तो झूठ होगा।


न्‍यायपालिका की भाषा बिना किसी तैं पैं के अंग्रेजी है- संविधान नाम की वह किताब जो संविधान सभा नाम के जमावड़े ने लिखी जिसमें भाषा को लेकर आत्‍मविश्‍वास की गहरी कमी थी, उससे यही उम्‍मीद की जा सकती थी। हम कोई सिद्धांत नहीं गढ़ रहे, बुरे अनुभव को साझा कर रहे हैं, पर सब बुरा ही बुरा नहीं हो रहा भाषा के मोर्चे पर। हिंदी राष्‍ट्रवाद की कैद से आजाद हो रही है, और गनीमत है कि हो रही है। हिंदी जब एक भाषा की तरह जीने की राह छोड़कर राष्‍ट्र या संस्कृति का बोझा ढोने वाली डांगर बनती है तो वह बहुत कुछ से वंचित होती है। वह दूसरी देशी-विदेश भाषाओं से अठखेलियॉं करने का अवसर गंवाती है, कभी कभार संसर्ग या संभोग के उन अवसरों से भी वंचित होना पड़ता है जिनसे भाषा गाभिन होकर सृजन करती है। केवल हाल में मीडिया के उफान व बाजार की जरूरतों के चलते हिंदी 15 अगस्‍तों और 14 सितम्‍‍बरों से मुक्‍त होती दिख रही है और - आई एम लविंग इट :)


Friday, August 10, 2007

ताजा कीवर्ड विश्‍लेषण

हमारे स्‍टेटकाउंटर के अनुसार इस चिट्ठे तक हाल में सर्च इंजनों के माध्‍यमों से पहुँचे लोग दरअसल निम्‍न चीजों को तलाशते हुए पहुँचे थे।

मसिजीवी

hi.mustdownloads.com

कामसूत्र

mentapan

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masijeevi

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suno nigam

हैरी पॉटर इन

रिपुदमन

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क्या चल रहा है

क्‍यों जरूरी है पॉलीमिक

रिवर्स स्‍वीप सचिन की अपनी ईज़ाद नहीं है पर इसके वे बेहतरीन खिलाड़ी हैं। एक साक्षात्‍कार में उन्‍होंनें इस शाट में अपनी दक्षता के कारण का खुलासा किया कि गली क्रिकेट के दिनों में बाल खोने से बचने के लिए एक नियम होता था कि सीधे हाथ के बल्‍लेबाजों को खब्‍बू बनकर खेलना होता था तथा खब्‍बू बल्‍लेबाज सीधे हाथ से बल्‍लेबाजी करते थे। बचपन के इस अभ्‍यास ने उन्‍हें ऐसी दक्षता दी कि वे रिवर्स स्‍वीप जैसे शाट आसानी से लगा पाते थे। हम किसी रिवर्स स्‍वीप के माहिर नहीं हैं, न तो अक्षरश: न ही प्रतीकात्‍मक रूप से। पर बहस के ककहरे को हमने भी इसी अंदाज में सीखा है।

कालेज के दिनों में हम खुद या कोई मित्र बहसबाज जब कोई विचार पटकते थे, गिराते थे तो वे गुजारिश करते थे कि एक सत्र थेथेरोलॉजी का किया जाए, इसका मतलब होता था कि अपनी राय को तह रखकर बगल में रखो, और विचार के ईमानदार विपक्ष बनकर उन सभी आपत्तियों को यथासंभव ताकत से सामने रखो ताकि विचार की दरारें स्‍पष्‍ट हो जाएं। इस प्रक्रिया का फायदा यह था कि ये गर्म बहस को जन्‍म देती थी और इससे बहस आगे बढ़ती थी। हमारी बौद्धिक ट्रेनिंग किसी संघी बौद्धिक शिविर में नहीं हुई है, न ही नक्‍सली या वामपंथी कैंपों का ही अनुभव है पर वाम लोगों से संघी तर्को का इस्तेमाल कर बहसियाने में गुरेज नहीं हुआ- लोग सांप्रदायिक कहें तो कहें, इसी तरह संघी मित्रों के साथ लोकतांत्रिक तर्कों से लोहा लिया है। बहुत बार बहस आगे बढ़ पाई है। इससे किसी को भ्रम होता होगा... उस पर फिर कभी, यूँ ये बातें गली क्रिकेट के जमाने की हैं। इस तरह की बहस की संरचना पर अपनी बात कह दें- खैर यही वजह है कि जब 'साधुवाद का अंत' दृष्टिगत हुआ तो खुश हुए, मातम नहीं मनाया। साधुवाद टकराव का निषेध करता है और टकराव बिना विकास नहीं हो सकता।

परिभाषा में पॉलिमिक बहसियाने की वह पद्धति है जो असहमतियों में मुखर होती है तथा प्रतिक्रियाओं को जन्‍म देने के इरादे से अपनाई जाती है। शब्‍द का स्रोत प्‍लेटो का रिपब्लिक है जिसमें इस जैसे नाम के पात्र का ऐसा रवैया है। शाब्दिक अर्थ 'युद्ध जैसी' बनता है। इसमें कभी कभी गैर अनुपातिक आत्‍मविश्‍वास भी होता है। जाहिर है इसका प्रवेश किसी भी विमर्श वृत्‍त में तभी होता है जब विमर्श का एक लोकतांत्रिक स्‍पेस निर्मित हो चुका हो।

जैसे कि माना जाता है कि विमर्शों की शुरूआत के लिए पॉलिमिक एक अच्छी विमर्श संरचना है क्‍योंकि वह प्रतिक्रियाओं को जन्‍म देती है, किंतु साथ ही इसकी सीमाएं भी स्‍पष्‍ट हैं, पॉलिमिक चूंकि एक तरफ की बात कहते हैं इसलिए वे संतुलन के मामले में दरिद्र होते हैं।

यह भी तय रहा कि जिस पॉलिमिक संरचना में हम कभी कभी अपनी बात कहते हैं वह ' आदतन' की गई खुराफात नहीं है, अगर कोई उसे खुराफात भी कहे तो भी हम उसे आदतन हो गया, गलती से हो गया कहकर डिस्‍ओन नहीं करते उसकी जिम्‍मेदारी लेते हैं। वैसे हमारी हर बात इस संरचना में कभी कभी ही होती है तथा अक्‍सर कोशिश केवल बात के दूसरे पक्ष को आमंत्रित करना ही होता है और ऐसा हमेशा इतने सकारात्‍मक तरीके से हो पाता हो ये जरूरी नहीं। इस संरचना में ये जोखिम तो हमेशा है ही, लोग अपने तरीके से अपने लहजे में ही बात करेंगे, गली क्रिकेट सबने खेली होती है पर सबके मुहल्‍ले के नियम अलग अलग होते हैं।

Wednesday, August 08, 2007

आवरण पेज के बहाने एक नई बहस का पूर्वाभास

पुस्‍तकें कहती हैं बहुत कुछ, इसे शायद कहने की जरूरत ही नहीं। पर पुस्‍तक में भी सबसे पहले संदेश देता है उसका आवरण पृष्‍ठ, बोले तो कवर पेज। इधर एक नई तिलमिला देने वाली चर्चा का पूर्वाभास आज हुआ। आलोक राय (अमृत राय के पुत्र और प्रेमचंद के पोते और फिलहाल दिल्‍ली में अंग्रेजी के प्रोफेसर) की पुस्‍तक हिंदी नेशनलिज्‍म ने हिंदी के इतिहास पर पुनर्विचार को 'इन थिंग' बना दिया था। आज कॉलेज में जाने माने पत्रकार व समाज विज्ञानों में हिंदी के जमे हुए शोधक अभय कुमार दुबे आंमंत्रित थे- अवसर था, भीष्‍म साहनी स्‍मारक व्‍याख्‍यान। अभय 'हिन्‍दी और हिन्‍दी राष्‍ट्रवाद' विषय पर बोले और अपनी उस सैद्धांतिकी को प्रस्‍तुत किया जो हिंदी में आउटसाइडर (शब्‍द उन्‍हीं का) चिंतन करने वाले अंग्रेजींदा लोगों की सैद्धांतिकी का उत्‍तर देती है। उन्होंने श्रमसाध्‍य शोधों के आधार पर आलोक राय, आदित्‍य निगम, बसुधा डालमिया, कृष्‍ण कुमार, फ्रंचेस्‍का ओरसीनी, अनिरुद्ध देशपांडे आदि का एक प्रोवोक करता क्रिटीक पेश किया। इन सबके विषय में जानकारी उसे पचा लेने और उससे टकरा लेने के बाद प्रस्‍तुत की जाएगी पर फिलहाल केवल आलोक राय की पुस्‍तक के कवर पेज का विश्‍लेषण देते हैं पर पहले देखें इस पुस्‍तक का मुखपृष्‍ठ-




यह कवर पेज पार्थिव शाह ने डिजाइन किया है।


अपने ताजा लेख 'अंगेजी में हिंदी' के खंड इतिहास की उलटयात्रा/पहला पड़ाव' में इस कवरपेज का विश्‍लेषण करते हुए अभय लिखते हैं .....अपने इस तर्क पर जोर देने के लिए संभवत: लेखक की सहमति से पुस्‍तक के आवरण पर त्रिपुंड और रूद्राक्षधारी दो ब्राह्मणों का चित्र छाप दिया गया है जिसकी पृष्‍ठभूमि में सींखचों वाला एक शटर है। उसके भी पीछे भारतेंदु हरिश्‍चंद्र और सरस्‍वती के टिकटाकार चित्र हैं। मतलब साफ है । हिंदी और सरस्‍वती सांखचों के पीछे पंडितों के पहरे में कैद है। जो हिंदी बाहर है और पंडितों के नेतृत्‍व में चल रही है वह मुरझा गई है, मर गई है या मरने वाली है।


वाकई आवरण पृष्‍ठों के सही पाठ भी लेखक की नीयत/कुनीयत को बेनकाब करते हैं। अभय ने अपने आलेख में इस अभिजनवादी सो की खूब बखिया उधेड़ी है। लेख 'वाक' के नवीनतम अंक में है- मिले तो जरूर पढें।


Monday, August 06, 2007

अच्‍छे मानचित्र कितना कुछ कहते हैं

भूगोल मेरा अपना विषय कभी नहीं था पर मानचित्र पढ़ना मेरा ऐसा शौक है जिसका कारण मैं खुद ही अच्‍छे से नहीं समझ पाता। बचपन में घर में एक एटलस होती थी शायद ब्रजवासी एटलस या ऐसा ही कुछ नाम था, बहुत अच्‍छी शायद नही ही रही होगी पर काली पक्‍की जिल्‍द की एटलस हमारी प्रिय किताबों में से थी। घंटों हम भाई-बहन इसमें शहर-नगरों के नाम खोजने का खेल खेलते थे। एटलस में मानचित्रों के रंग, रेखाएं कितनी सारी सूचनाएं समेटे होते हैं इसे जानना सदैव ही प्रिय होता था। एक सेमेस्‍टर तक सिविल इंजीनियरिंग के फंडामेंटल्‍स पढे़ थे, मानचित्र बनाना तो इतने से समय में क्‍या आता पर इतना जरूर पता लग गया कि इस छोटे से चित्र को बनाने में कार्टोग्राफरों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। आज भी जब हम कहीं बाहर घूमने का कार्यक्रम बनाते हैं तो जनपथ के सर्वे आफ इंडिया से उस इलाके के नक्‍शे ,खरीदना एक जरूरी काम लगता है- ये बात अलग है कि अक्‍सर 10-12 साल पुराने नकशे हाथ लगते हैं जो जमीनी हालात से काफी अलग होते हैं :( । जो भी हो नक्‍शे आज भी हाथ लगते हैं तो रम के पढ़ता हूँ।



गूगल अर्थ सर्वे आफ इंडिया से अद्यतन तस्‍वीरें देता है- विकी मैपिया जिस पर हाल में कई सवाल उठाए गए हैं से भी नक्‍शों का आनंद मिलता है और जब भी वक्‍त मिलता है इस पर खूब लुटाते हैं। खासकर स्‍थानीय नक्‍शों या उपग्रह चित्रों पर। मसलन दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्‍टी का यह चित्र देखें





या फिर यह चित्र जो जेएनयू के संस्‍कृत अध्‍ययन विभाग का है तथा इसके स्‍वास्तिक चिन्‍ह के आकार में होने के कारण प्रगतिशीलता से जूएनयू का रिश्‍ता थोड़ा दरकता है, कुछ लोगों के लिए। रिवर तो एक बार बहुत दुखी हुईं थीं इस कारण।



आजकल हम विकीमैपिया में जो सूचनाएं लोग जोड़ते हैं, उन्‍हें पढ़ पढ़ मजे लेते हैं- कोई अपनी गर्लफ्रेंड के घर पर निशान लगाता है ता कोई अपने पंसारी पर। मानचित्र व भौगोलिक छविचित्र शायद इसलिए आकर्षित करते हैं क्‍योंकि स्‍मृतियॉं स्‍पेस के सहारे ही स्‍थाई हो पाती हैं। अब देखिए जब हम अनूपजी के पास कानपुर गए तो पते को विकीमैपिया पर देखकर गए थे- उनका गुलमोहर, केंद्रीय विद्यालय और भी बहुत कुछ जो आप उनकी पोस्‍टों में पढ़ते रहे हैं इसमें ही कहीं न कहीं हैं- :)




Sunday, August 05, 2007

क्‍यों बेबात सामने पड़ जाती हो - बेचारों को बार बार बलात्‍कार करना पड़ता है

अगर आपको लगता है कि ये ऊपर लिखा शीर्षक कोई ऐसा संवाद है जो केवल किसी नाटक में खलनायक ने किसी को बोला होगा तो जरा थमें। इन शब्‍दों में तो नहीं पर दिल्‍ली पुलिस ने ये शिकायत उत्‍तर-पूर्व की लड़कियों से की है। जी वही जिन्‍हें दिल्‍ली के मुखर्जी नगर व कैंप इलाके में बसे दिल्‍ली वासी जिनमें बिहार उत्‍तर प्रदेश के छात्र-छात्राएं भी शामिल हैं 'चिंकीज' के नाम से पुकारते हैं। जो पता नहीं क्‍यों दुपट्टे वाले सूट नही पहनतीं, हमेशा ऐसे कम वाले कपड़े पहनती हैं कि बेचारे भोले-भाले घरबारी मर्दों को उनका गाहे बगाहे बलात्‍कार करना पड़ता है। पता नहीं से ऐसा क्‍यों करती हैं- दिल्‍ली पुलिस भी यह समझ नहीं पा रही है और उसने बाकायदा एक पुस्तिका निकालकर अब इन 'चिंकीज' को ये सलाह दे डाली है कि वे अपने आप को सुधार लें।


सभी ब्‍लॉगर दिल्‍ली में नहीं रहते इसलिए थोड़ा पृष्‍ठभूमि स्पष्‍ट कर दी जाए। दिल्‍ली भारत का एक शहर है और इसकी राजधानी है। इस राजधानी वाले भारतवर्ष नामक देश में मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, असम, त्रिपुरा, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर जैसे राज्‍य हैं जिनकी संस्‍कृति के सभी तत्‍व जरूरी नहीं कि दिल्‍ली जैसे हों- उनका पहनावा, भोजन व दूसरी बातें कुछ अलग हैं, हो सकती हैं। तो इस राजधानी दिल्‍ली में जैसा कि हर शहर में होती है, एक पुलिस है जिसने अनुभव किया कि यहॉं पर इन क्षेत्रों के से शिक्षा व कामकाज के लिए दिल्‍ली आने वाली स्त्रियों से बलात्‍कार व छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ी हैं इसलिए दिल्‍ली पुलिस ने इन महिलाओं के लिए सुरक्षा की सलाहों वाली एक पुस्तिका जारी की है।



यहॉं तक तो सब ठीक ठाक है पर गड़बड़ खुद इस पुस्तिका की सामग्री में है। पुस्तिका एक तरह से महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की जिम्‍मेदारी एक तरह से खुद इन महिलाओं पर ही डाल देती है। मसलन वह सलाह देती है कि आप ऐसे नहीं वैसे कपड़े पहनें- ये एक पुराना जुमला है कि लड़कियों के इस तरह के कपड़े पहनने की वजह से उनके खिलाफ अपराध होते हैं- सभी जानते हैं कि ये अपराधी को बचाना और शिकार को अपराधी ठहराना है। दिल्‍ली में पूरी तरह ढंकी महिलाओं, बच्चियों, बेटियों, पड़ोसिनों से बलात्‍कार किया जाता रहा है।



यही नहीं पुलिस ये भी सलाह देती है कि आप अपनी रसोई में बैंबू शूट्स, अखुनी जैसे पकवान न पकाएं क्‍योंकि इसकी गंध से लोग परेशान होकर आपके खिलाफ अपराध कर सकते हैं। यह सलाह सिर्फ इतना बताती है कि खाकी वरदी पहनने भर से यह तय नहीं हो जाता कि आप संवेदनशील हो जाएंगे।


वस्‍तुत: यह केवल पुलिसिया समझ में संवेदनशीलता का अभाव ही नहीं है यह मुख्‍यधारा संस्‍कृति की अन्‍य संस्‍कृतियों के प्रति घोर अवहेलना भी है। गनीमत है कि पुलिस ने यह सलाह नहीं दी कि अपराध होने पर भी थाने जाने से बचें कहीं वहीं किसी पुलिसवाले को आपका बलात्‍कार न करना 'पड़ जाए'


हिंदू में कल्‍पना शर्मा ने दिल्‍ली पुलिस की इस पुस्तिका पर अपनी टिप्‍पणी देते हुए व्‍यंग्‍य में कुछ काम बताए हैं जो इन 'चिंकीज' को करने से बचना चाहिए-



  1. रात में अकेले बाहर मत जाओ- इससे पुरुषों को बढ़ावा मिलता है

  2. किसी भी समय अकेले बाहर मत जाओं - कुछ पुरुषों को किसी भी हालत में बढ़ावा मिलता है

  3. घर पर मत रहो - घुसपैठिए या रिश्‍तेदार बलात्‍कारी हो सकते हैं

  4. कम कपड़ों में बाहर मत जाओ- इससे पुरुषों को बढ़ावा मिलता है

  5. किसी कपड़े में बाहर मत जाओ- किसी कपड़े से पुरुषों को बढ़ावा मिलता है

  6. बचपन से बचें- कुछ बलात्‍कारी बच्चियों को देखते ही उत्‍तेजित हो जाते हैं

  7. वृद्धवस्‍था से बचें- कुछ बलात्‍कारी ज्‍यादा उम्र की औरतें अधिक पसंद करते हैं

  8. पिता, दादा, अंकल व भाइयों से बचें- ये युवा स्त्रियों के बलात्‍कार में अधिक लिप्‍त पाए गए रिश्‍तेदार हैं

  9. पड़ोस के बिना रहें- वे अक्‍सर बलात्‍कारी पाए जाते हैं

  10. विवाह न करें- विवाह में किया गया बलात्‍कार वैध है

  11. बचने का सबसे सही रास्‍ता है - तुम गायब हो जाओं

Saturday, August 04, 2007

आपकी नेकनीयती सरमाथे पर कुछ सलाहें अंग्रेजी वालों को भी दें।

रचना हिंदी और अंग्रेजी में ब्‍लॉग में लिखती हैं, अंग्रेजी में शायद पहले से लिखती हैं और हिंदी में भी खूब लिख रही हैं, अगर पोस्‍टों की संख्‍या को मापदंड माना चाहे तो चिट्ठाजगत के धड़ाधड़ पैमाने के अनुसार उन्‍होंने हाल में 10 दिनों में 29 पोस्‍टें लिखी हैं। उनकी पंचलाइन ही है -हिंदी को आगे लाए जाने के लिये इंग्लिश का बहिष्कार ना करके उसका उपयोग करें तो ज़्यादा बेहतर होगा

मुझे यह कार्यसूची रूचती है, वे पहली नहीं हैं हमारे ज्ञानदत्‍त जी तो इसके पहले से ही बड़े पैरोकार रहे हैं, इतने कि वो कई बार जानबूझकर केवल उकसाने भर के लिए अपनी पोस्‍ट में रोमन में लिखी अंग्रेजी का इस्‍तेमाल करते रहे हैं। आप नहीं ही पूछेंगे कि हमें कैसे पता कि ये उकसाने के लिए लिखा गया है, अरे भई हमसे बेहतर कौन पहचानेगा कि उकसाने के लिए लिखना क्‍या होता है- क्‍यों अनूपजी ? :)

तो खैर हिंदी और अंग्रेजी के बीच स्वाभाविक वैमनस्‍य का काल्‍पनिक संधान कर उसे पाटने का महत जिम्‍मा अपने ऊपर लेने का काम रचना और ज्ञानदत्‍तो द्वारा अक्‍सर किया जाता रहा है। जबकि सही बात यह है कि चिट्ठाकारी में इसकी शायद कोई जरूरत ही नहीं, क्‍योंकि यहॉं अंग्रेजी विरोध कोई स्‍वाभाविक बीमारी की तरह लोगों के मन में जमा नहीं बैठा है, कम से कम उस तरह तो नहीं ही जैसा कि अंग्रेजी के चिट्ठाकारों में इस 'फिल्‍थी' हिंदी जमात के लिए रहा है। पुराने चिट्ठाकारों को खूब याद होगा कि ब्‍लॉगमेला या इंडीब्‍लॉगीज के आरंभिक संस्‍करणों में ही कैसे अंग्रेजी चिट्ठाकारों ने अपने 'पवित्र' गुबार हिंदी वालों के लिए प्रकट किए थे- बिल्‍कुल नए लोगों को बताया जाए कि एक समय था जब चिट्ठों व चिट्ठाकारों की कमी के चलते पुराने चिट्ठाकारों ने यह सोचा कि उन भारतीय ब्‍लॉगरों तक पहुँचा जाए जो अंग्रेजी में ब्‍लॉग लिखते हैं- इनके ब्‍लॉगों पर हिंदी में टिप्‍पणियॉं करने का बीड़ा कुछ लोगों ने उठाया इसके लाभ भी हुए पर कुछ पवित्रहृदयी अंगरेजों को यह उनके ब्‍लॉगों का अपमान लगा, जरा इस टिप्‍पणी पर गौर फरमाएं-

Thousands of NRIs (inlcuding Hindi speaking people) have got jobs offshore because they speak good english. Thousands of them are working in non hindi states because their beloved Hindi heartland (BIMARU states) have nothing to offer in terms of good jobs.
So what is the problem in expressing your thoughts in english when you earn bread and butter from this language. If a bunch of people want to read and write in their regional language they should keep it confined to their web sites.
By sneaking into greater disopera like BBM or english blog writers, by leaving nice comments at our sites with their URLs pointing to their hindi sites, they want to lure us to read the material written in hindi plagiarized from english blogs.
And dear indiablogger, what a pity, looks like you are pushing some sort of Hindi agenda from your blogger awards too.You have managed to make two jury members who have hindi blogs, you have managed to get 3 sponsors including Microsoft for hindi blogs (except Sidharth Sivasailam )

यहॉं बीबीएम से आशय भारतीय ब्लॉग मेला है। इस तरह की टिप्‍पणियों के जबाव भी दिए गए थे पर इतना तय है कि ये विचार नकचढ़े भारतीय अंग्रेजी ब्‍लॉगरों की काफी प्रचलित राय को व्‍यक्‍त करते हैं जो शायद अब भी काफी बदली नहीं है। एक अर्जित भाषा से उधारी का दर्प हमारी समझ से बाहर रहा है, इसलिए जहॉं कुछ परिचित लोगों के अंग्रेजी चिट्ठों पर हम टिप्‍पणियॉं यदा कदा करते रहे हैं पर इससे ज्‍यादा नहीं। अंग्रेजी व हिंदी सद्भाव के घोषित ऐजेंडे वालों की नीयत पर हमें कोई शक नहीं है पर एक बात उन्‍हें समझनी चाहिए कि वे कोई मौलिक काम नहीं कर रहे हैं, वे कोई आसान काम नहीं कर रहे हैं, और सबसे जरूरी ये कि वे रोग का इलाज रोगी में करने के स्‍थान पर एक स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति का इलाज करने सिर्फ इसलिए जुट गए हैं कि यह स्वस्‍थ व्‍यक्ति इलाज करवाने के लिए तैयार है और असल रोगी आपको कोई भाव दे नहीं रहा है। दरअसल प्रिंट या विश्‍वविद्यालयी दुनिया में जो भी हो पर अंतर्जाल की दुनिया में हिंदी के लोग अंग्रेजी भाषा के प्रति दुराग्रह से पीडि़त नहीं है या कम पीडित हैं इसलिए आपकी नेकनीयती सरमाथे पर कुछ सलाहें अंग्रेजी वालों को भी दें।

Friday, August 03, 2007

एक अच्‍छी बाढ़ सबको पसंद है

मेगासेसे सम्‍मान के लिए चुने गए विचारक-पत्रकार पी साईंनाथ ने अपनी पुस्‍तक 'एवरीबॉडी लव्‍स ए गुड ड्राउट' में भारत के कुछ सबसे गरीब जिलों के अध्‍ययन से कई सच खोजे हैं जो हमारे नेता, पत्रकार व नौकरशाह पहले से जानते हैं। हम भी जानते व मानते हैं- हर संकट एक अवसर होता है। पर इसका मतलब हम मानते थे कि हर संकट व्‍यक्तित्‍व के लिए अवसर हाता है निखरने का। पर हम अहमक थे, दरअसल हर संकट- देश पर, समाज पर, पड़ोसी पर गोया खुद को छोड़कर किसी पर भी आया संकट एक अवसर होता है अपने वर्तमान व भविष्‍य के संकटों से सुरक्षा का इंतजाम कर लेने का।
अब बाढ़ को ही लें, हर साल इस बाढ़ का आना कितना जरूरी है यह केवल हमारे नेता और नौकरशाह ही समझ सकते हैं- अब पत्रकार भी समझने लगे हैं- पत्रकार को साथ ले, चना चबैना साथ रख नेता लोग हवाई सर्वेक्षण करते हैं, पत्रकार लोग इस अमेजिंग सीन का आनंद लेते हैं- अब कलमघिसाई से तो बहुत हुआ तो देकन एयरलाईन का मजा मिल सकता है पर ये तो चार्टर प्‍लेन के मजे हैं। और अगर आपके साथ परम नौटंकीबाज रेलमंत्री हुए तो 'हाऊ डेयरिंग' ये आपको बाकायदा हाईवे पर लैंडिंग का आनंद भी दिला देंगे। हे संतोषी माता जैसन बाढ़ तुम उस मंत्री को दिख्‍खई वैसन सब को दिखाए- जै माता की।



पर सच्‍चे राजू भैया तो नौकरशाह हैं। बाढ़ की असली मलाई तो नौकरशाह और नेता काटेंगे जब इस बाढ़ से राहत का काम शुरू होगा- होगा का मतलब ये न मान लें कि वाकई कोई राहत वाहत शुरू होगी- मतलब बस इतना कि खजानों से राहत के लिए पैसा निकलेगा- इस एकाउंट में जाएगा उस सूटकेस में जाएगा बहुत मंहगाई है भई। और कंपीटिशन भी कौन कम है- लालूजी हो आए बिहार के ऊपर, पासवानजी भी हो आए, नीतीश भी गए होंगे- आसान काम है क्‍या- इतने नेता ऊपर मंडराते हैं कि लगता है कि कहीं ऊपरै जाम न हो जाए ट्रेफिक। अब तो चाहिए कि कुछ फंड वंड का इंतजाम कर इन बाढ़ प्रभावित इलाकों में एयर ट्रेफिक कंट्रोल की टावरें बनाई जाएं। ताकि हवाई सर्वेक्षणों में सुविधा रहे।

वैसे बाढ़ सबके लिए आनंद लाती है- नेता, नौकरशाह पत्रकार तो चलो भौतिक कारणों से खुश होते हैं और बच्‍चे जो बच जाएं वो इस बात से खुश हो जाते हैं कि इस बहाने नौका विहार का आनंद मिलता है, स्‍कूल नाम की कोई चीज हो तो उससे छुट्टी मिलती है। बड़े इसलिए खुश हैं कि गंगा/यमुना/ब्रह्मपुत्र मैया या जो भी मैया हो वह घर आकर दर्शन देती है। तो कुल मिलाकर ये कि बाढ़ मैया को हम कोई पसंद करता है- एवरीबॉडी लव्‍स ए गुड फ्लड


क्‍या आपको जल्‍द ही गूगल की ओर से मुफ्त मोबाइल मिलने वाला है ?

गूगल आउट ऑफ बाक्‍स परिकल्‍पनाएं करने के लिए जाना ही जाता है। जरा इस बात की कल्‍पना कीजिए कि आपको एक ऐसा मुफ्त (या बहुत कम शुरूआती कीमत तथा मुफ्त मासिक बिल के साथ) मोबाइल फोन उपलब्‍ध करवाया जाए जिसमें कैमरा हो, जीपीआरएस हो जिससे आपको जहॉं आप हैं वहॉं का मानचित्र तत्‍काल मिल पाएगा, वाई फाई तकनीक के हाटस्‍पाट भी उपलब्‍ध कराए जाएंगे--- हॉं भई गूगल ऐसा कर सकता है बल्कि कर रहा है। खालाजी का घर नहीं है वरन स्‍मार्ट बिजनेस समझ है। आपकी तस्‍वीरें, आपकी मूवमेंट का डाटा, आपके मोबाइल नेट का डाटा जिसमें ईमेल व सर्फिंग शामिल है, इन सब से गूगल आपके मोबाइल पर टेक्‍स्‍ट व वॉइस के ऐसे विज्ञापन उपलब्‍ध करवा पाएगा जिनकी आपको जरूरत होगी और इससे गूगल को मिलेंगे नोट, नोट और नोट। इसे कहते हैं बिजनेस और भविष्‍य की समझ जो गूगल दिखा रहा है। हाल में वाल स्‍ट्रीट जर्नल में इस आशय का एक लेख छपा है जो गूगल के इन इरादों का खुलासा करता है। वैसे ऐसा सुविधा संपन्‍न मोबाइल अमरीका व यूरोप में 2008 तक उपलब्‍ध करवा दिया जाएगा फिर बाकी दुनिया का भी नंबर आएगा।



वैसे सभी अमरीकी इस प्रस्‍ताव से बल्‍ले बल्‍ले नहीं कर रहे हैं- सबसे पहले तो सेलफोन कंपनियॉं चीखोपुकार कर रही हैं कि गूगल भी अब माइक्रोसॉफ्ट की तरह मोनोपोलिस्टिक हो रही है और उनका खानाखराब करने पर उतारू है तिस पर ग्राहकों को जबरिया विज्ञापन दिखाने को लेकर भी आपत्ति दर्ज की जा रही है, किंतु चूंकि अभी उतपाद पूरी तरह बाजार में नहीं हैं केवल प्रोटोटाईप ही उतारे गए हैं इसलिए पूरी तरह नहीं मालूम कि अंतिम उत्‍पाद में विज्ञापन देखने व क्लिक करने या न करने की आजादी अब की ही तरह उपभोक्‍ता के पास रहेगी कि नहीं, पर गूगल आमतौर पर इस बारे में समझदारी दिखाता रहा है। इतना जरूर है कि गूगल ने औपचारिक तौर पर अपने मोबाइल पोजेक्‍ट के बारे में गंभीर होने को स्‍वीकार कर लिया है तथा स्‍पैक्‍ट्रम के लिए दावेदारी भी पेश की है- मायने ये हैं कि गूगलफोन अफवाह नहीं वरन घटना है।


Thursday, August 02, 2007

नुक्‍ता चीन्‍हीं

 

दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के बहुत कम कॉलेजों में उर्दू पढ़ाई जाती है, फारसी कुल जमा दो कॉलेजों में और अरबी, फारसी और उर्दू पढ़ाने वाला कॉलेज सिर्फ हमारा है। इससे 'अलग' होने का जो आनंद आता है उसे जाने दें पर इसके कई गंभीर और बेतुके निहितार्थ हैं। पहला तो ये है कि आप लगातार पॉलीटिकल करेक्‍टनेस के पाखंड से दो-चार रहते हैं।  हम ब्लॉगिंग में जो होते हैं उससे ठीक उलट स्थिति इस पाखंड में होती है। समझिए कि हर कोई मैं ज्‍यादा बड़ा अविनाश हूँ का दावा ठोंक रहा होता है। अक्‍सर लोग भूल जाते हैं कि माना उर्दू का सवाल अल्‍पसंख्‍यक से जोड़ा जा सकता है इसलिए उर्दू को समर्थन देने से एकबारगी मान भी लिया जाएगा कि आप 'महान सेकुलर' हैं सिद्ध होता है पर जनाब फारसी और अरबी तो विदेशी भाषाएं हैं, चाहे विदेशी की जो परिभाषा आप तय करें। इन भाषाओं के अपने भाषाक्षेत्र आज भी दुनिया में  हैं इसलिए इन्‍हें इसी आलोक में ही देखा जाना चाहिए। और यह भी कि यदि कोई इन भाषाओं पर बिछ बिछ जाने को जरूरी नहीं मानता तो वह न तो संघी हो जाता है न ही सांप्रदायिक।

थोड़ा सीधे बात करें- अपने दोनों तरह के मित्र हैं - खूब हैं। एक तो बिहार से दिल्‍ली आए पहली पीढ़ी के लोग जो पत्रकारिता में, और हिंदी या अन्‍य विषयों के शिक्षण में पसरे हुए हैं। रवीश, अविनाश, नीलूरंजन किस्‍म के। इनमें से बहुत सों ने अपने को प्रशिक्षित कर लिया है, खूब जद्दोजहद के बाद पर अब भी वे गाहे बगाहे श को स बोल जाते हैं। दूसरे अन्‍य मित्र हैं जो या तो मूल दिल्‍ली- बोले तो दिल्‍ली-6, यानि पुरानी दिल्‍ली के बाशिंदे हैं या अन्‍य मुसलमान साथी हैं- ये अक्‍सर इन बिहारियों के उच्‍चारण पर ठठ्ठा मार कर हँसते हैं और साथ ही ताकीद करते हैं कि उनके नाम को **** खान नहीं ख़ान(ख़ान यानि नुक्‍ते के साथ)  बोला जाएं क्‍योंकि सही उच्‍चारण ख़ान है। ऐसी की तैसी... हम बिहारी नहीं है भाषा दिल्‍ली की बस्तियों में ही सीखी है पर ये बिंदी वानी हिंदी हमें रास नहीं आती, इससे तो हिंदी का भोजपुरिया जाना हमें ज्‍यादा अच्‍छा लगता है।

हमें जो समझ आता है कि मामले की जड़ हिंदी-उर्दू विवाद में है। पोलिटिकल करेक्‍टनेस के झंडाबरदारों ने ये गलतफहमी चारों ओर फैलाने की खूब चेष्‍टा की है  कि हिंदी और उर्दू दो लिपियों में लिखी जा रही 'एक भाषा' हैं। ऐसा मनवा लेने से एक संप्रदाय को हिंदी का स्‍पेस मुहैया होता है (वैसे अपन को  मुगालता नहीं है, हिंदी का बढ़ा हुआ स्‍पेस राजनैतिक भर है न कि साहित्यिक या भाषा वैज्ञानिक या ऐतिहासिक)  मुस्लिम संप्रदाय  को यह विश्‍वास दिलाना सरल हो जाता है कि आप एलिनिएट अनुभव न करें। हमें इस 'राष्‍ट्रीय एकता' के इन महान प्रयासों से कोई खास परेशानी न होती अगर इसकी कीमत चुकाने की जिम्‍मेदारी हिदी भाषा को न दी जा रही होती। अब वे ध्‍वनियॉं जो हिदी में नहीं हैं (नहीं है का मतलब है कि ये हिदी में स्‍वनिम नहीं है- इनके इस्‍तेमाल से हिंदी में अर्थ का अनर्थ नहीं होता) तथा उनके लिए लिपि में खुद ब खुद इंतजाम नहीं है (नुक्‍ता तो जुगाड़ है) उसे थोपना, और जनाब थोपना ही नहीं ऐसा न करने वालों को अशुद्ध या गलत भी ठहराना- माफ करें हिंदी खुद ही अस्तित्व की लडाई लड़ रही है वह हर वर्ण के नीचे एक अलहदा नुक्‍ते का बोझ नहीं सह सकती। अगर जनाब ***खान रोमन में khan से किसी किस्‍म के अपमान को महसूस नहीं करते,  k के नीचे किसी नुक्‍ते का बोझ नहीं लादते, हमारे राम भी Rama होना सह लेते हैं तो फिर खानसाहब ही हिदी भाषा में नुक्‍ते की जंजीरे डालने पर क्‍यों तुले हैं। एक बात साफ है कि एक भाषा का शब्‍द जब दूसरी भाषा में जाता है तो वह भले ही संज्ञा ही क्‍यों न हो इस भाषा के अनुसार या इसकी लिपि के अनुसार थोड़ा बहुत बदलता है, उसे बदलना चाहिए न कि भाषा पर दबाब बनाना चाहिए कि वह बदले।

जब हम उर्दू बोलते हैं या उसे लिखते हैं, मसलन शेरो शायरी में, तो हम उर्दू की प्रकृति के अनुसार ही व्‍यवहार करते हैं पर जब बात बाकायदा हिंदी की हो तो मानना होगा कि ये दो लिपियों में एक भाषा नहीं है - वरन जैसा नामवर सिंह स्‍थापित करते हैं तथा जिसका संकेत प्रेमचंद ने किया था- ये दो लिपियों में दो भाषाएं हैं। एक पर दूसरे को न लादें। और हॉं ये शुद्धतावादी आग्रह नहीं है हिंदी -उर्दू में आगत निर्गत होना चाहिए, हम समर्थक हैं पर ये दोनो भाषाए अपनी प्रकृति के अनुसार करें।

हिंदी-उर्दू का मसला बर्र का छत्‍ता है, ब्‍लॉग की दुनिया है इसलिए लिख दिया तो लिख दिया देखा जाएगा। :)

Wednesday, August 01, 2007

बिना मुर्ग के सेहराबंदी- ऐ वी कोई गल ओई

सिख दिल्‍ली में एक खाती-पीती प्रभावशाली कौम है और यूँ भी सिख बिरादरी टेंशन न लेने वाली बिरादरी है। खूब मेहनत करते हैं कमाते हैं और शान से जीना पसंद करते हैं। शान से जीने का मतलब ही है अच्‍छा पहना, अच्‍छा खाना, अच्‍छा पीना। अब हाल में दिल्‍ली सिख गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी के निर्देश जारी हुए हैं जिसके तहत सिख समुदाय को विवाह गुरूद्वारों में ही करने होंगे तथा शाम को होने वाले विवाह समारोहों पर कड़े प्रतिबंध लागू किए गए हैं- न तो मांसाहारी भोजन न ही शराब। लो कल्‍लो बात... ये भी भला क्‍या सिख शादी।।

कारण यह बताया जा रहा है कि ऐसा करने शादियों को कम खर्चीला बनाया जा सकेगा जिससे कन्‍या भ्रूण हत्‍या तथा औरतों पर हो रहे अत्‍याचारों को कम किया जा सकेगा।
अब ये इतने 'पवित्र' उद्देश्‍य हैं कि लगता है कि वाह धर्म तो समाज सुधार की महत भूमिका में आ गया है, कितनी अच्‍छी बात है। अब कैसे कोई खिलाफ बोले पर हमें फिर भी बात कुछ जम नहीं रही, कुछ वर्ष पहले ऐसा ही फरमान जम्‍मू कश्‍मीर में सरकार की तरफ से भी जारी किया गया था। भले ही हम इसके उद्देश्‍यों को इतना बुरा नहीं मानते और हमें ये भी लगता है कि फिजूलखर्च विवाहों को थामा जाना चाहिए पर धर्म या राज्‍यों की इसमें क्‍या भूमिका होनी चाहिए ?



राज्‍य या धर्म जब ऐसी नियामक भूमिकाओं में आने लगें कि वे अपने धर्मावलंबियों की जीवन शैलियों को नियंत्रित करने लगें तो ये आधुनिक समाजों के लिए हितकर बात नहीं है- वैसे यह सिर्फ आधुनिक समाजों के ही लिए कहा जा रहा है वरना मध्‍ययुगीन समाज में तो जीवन का प्रत्‍येक पक्ष ही धर्म ही नियंत्रित करता था। पर आधुनिक समाजों को ये नियंत्रण व्‍यक्ति के ही हाथ में रहने देने चाहिए हॉं कभी कभी राज्‍य को ये नियंत्रण हस्‍तगत करने पड़ सकते हैं पर राज्‍य एक प्रक्रिया से वैधता हासिल करता है किंतु धर्म इस मामले में एक गैर जबावदेह संस्‍था है इसलिए भले शुभेच्‍‍छा से ही सही, उसे ऐसा करने से परहेज करना चाहिए। और तनिक इस बात पर भी विचार करें कि सिख शादी अगर बोटी-बोतल के बिना होगी तो क्‍या खाक होगी। अगर कुछ प्रतिबंध जरूरी ही था तो कह देते कि सिख शादी वधु के बिना होगी - फिर भी चल जाता- पर अच्‍छा खाना न हो, पीण वास्‍ते कुछ न हो- ऐ वी कोई गल ओई।