आजकल गाड़ी चलाने की बात करना खतरे से खाली नहीं है और ये बात मैं चुहल में नहीं कह रहा हूँ। किसी सैडिस्टिक प्लेजर को पाने के लिए भी नहीं। पर आप अगर उस जमात से हैं जो हाशियाई विमर्श में दूसरे पाले में है तो आपके दिन खराब चल रहे हैं- गाड़ी चलाने से बात शुरू इसलिए की कि तब मैं भी गाड़ी ही चला रहा था जब यह हुआ-
हुआ यह कि हमारे एक मित्र हैं- नेत्रहीन बोले तो 'विज्युअली चैलेंज्ड' और पोलिटिकली करेक्ट होना चाहें तो 'डिफ्रेंटली एबल्ड' पर ये सब वे बाद में हैं पहले मित्र हैं और हमारी ही तरह पचास कमियों के मालिक हैं पर तब से दोस्त हैं जब हम अपने कॉलेज से डिबेट करते थे वे स्टीफेंस में थे। बहसियाते थे- अब भी खूब करते हैं। डिसेबिलिटी के विमर्श से हमारी पहचान उन्हीं के रास्ते हुई है। दिल्ली में मुबाहिसा नाम की संस्था हुआ करती थी जो लुईब्रेल पर कार्यक्रम करती थी हम भी जाया करते थे। कुल मिलाकर ये कि हम भी सहमत थे- और हैं, कि संरचनाएं पूरे शरीर वालों ने खड़ी की हैं और वे शारीरिक पूर्णता वालों के ही लिए हैं तथा इसी के सहारे यह सिद्ध कर दिया जाता है कि कमी विकलांगों में है जबकि सच्चाई ये है कि खड़े किए गए ढांचे गलत हैं जो किसी को कमतर सिद्ध करते हैं- ये बात हम समझते थे और हैं, पर उस दिन मित्र के साथ गाड़ी में जा रहे थे- हम ही ड्राईव कर रहे थे- सामने एक साईकल वाला था जिसे न अपनी सुध थी न किसी ओर की- बिना किसी भी किस्म के संकेत झट साइकल मोड़ी और बस....वह बच तो गया पर हमारे मुँह से निकला 'अंधा है क्या....'
क्या बताएं क्या गत हुई। पर उसे छोडें मित्र था जानता था कि कमी है हममें भी हो सकती है। लाख संवेदनशीलता दिखाएं पर अंदर के संस्कारों से पीछा छुटाने में अरसा लगता है और तब भी कब संस्कार जोर मारने लगेंगे नहीं कह सकते। इसलिए दलितों का सवर्ण मित्र, फेमिनिस्ट का पति, विकलांग का संकलांग साथी, समलैंगिक का लोकतांत्रिक हैट्रोसेक्सुअल मित्र, कुल मिलाकर हर वह व्यक्ति जो हाशियाई विमर्श में मुख्यधारा से है पर हाशिए के सवालों के प्रति संवेदनशील है वह लगातार निशाने पर होता है। दरअसल वह खुद हाशियाई हमलों का पहला निशाना होता है।
मुझे इस हालत जैसी एक रोचक स्थिति तब दिखाई देती है जब हम अध्यापक कक्षा से गायब रहने वालों को लेकर अपनी खीज कक्षा में व्यक्त करते हैं- अरे भई जो गायब है वो तो गायब है- सुना रहे हैं उसे जो गायब नहीं है, पर नहीं तब तो 'छात्र बिरादरी' निशाने पर होती है। :)
यदि आप सवर्ण, पुरुष, वयस्क, शरीर से पूरे हैं बहुसंख्यक हैं तो आप लाख संवेदनशीलता हासिल करें इतना तो तय है कि कहीं न कहीं से आपकी जाति, लिंग, वय, धर्म का कीड़ा कुलबुला ही बैठेगा, इसलिए भी कि सच्ची-झूठी संवेदनशीलता के कारण आप बार बार सामने आकर इस दोषदर्शन के पात्र बनते हैं। कम से कम हमारे साथ तो ऐसा होता है और खूब। स्त्री संवेदनशीलता पर लिखे, छपे, पुरस्कृत हैं पर जानते हैं कि पत्नी की कसौटी पर पुरुषवादी ठहरेंगे- दिल्ली के कथित तौर पर मुसलमान कॉलेज से पढे और पढ़ाया करते हैं दोस्त, छात्र मुसलमान है इसलिए उनकी ही नजर से बहुसंख्यकवादी ठहरते होंगे, बेटा अभी आठ का नहीं हुआ पर उसे साफ दिखता है कि हम बडे होने के कारण रौब गांठते हैं (उसका वाक्य है कि इस दुनिया में कुछ भी बच्चों के हिसाब से नहीं है), एक दलित के खिलाफ लडे़ कि उसने अपनी बीबी को मरने पर मजबूर कर दिया था तो उसने कहा-कहलवाया कि राजपूत है-सवर्ण, इसलिए दलित के खिलाफ मोर्चा खोला है। तो इतना तय जानें कि हाशियाई विमर्श एक क्रूर विमर्श है पर उसकी ये क्रूरता जो जाहिर है प्रतिहिंसा है शत्रु को बाद में आहत करती है शत्रुओं में मित्र को पहले।
5 comments:
बहुत अच्छा व सही लिखा है । इन सब श्रेणियों में मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग को भी गिन लीजिये । बहुत सी बातें व हरकतें अनजाने में बिना किसी बुरी मंशा के हो जाती हैं , पर लज्जित तो होना ही पड़ेगा,यदि वह आपके गिनाए वर्गों में से हो ।
घुघूती बासूती
सत्यवचन गुरुदेव, आज सीरियस टाइप लग रहे हो। :)
अब कोई लाख परिवारवाद कह कर अपनी भडास और सडान्ध निकाले ,पर हमें तो जब आपका लिखा अच्छा लगेगा हम बिन्दास कमेन्टियाएंगे ।
सही लिखा है।बिल्कुल मन की बात कह दी। उदय प्रकाश की "पीली छतरी वाली " कहानी में भी आपकी बात पुष्ट होती है ।और ब्लाग पर भी यदा-कदा कुछ प्रसन्गों में यह पुष्टि पा जाती है ।बस उसे देख भर कम लोग पाते हैं ।
अब इतना भी मत सिरिसियाईयेगा,अजी रूठ कर अब कहा जाईयेगा..:)
सचमुच बड़ी दमदारी से कहा है. युग बीत जाने के बावजूद साधुवाद.
Post a Comment