Monday, September 29, 2008

यौन-व्यापार का यह अध्‍याय

यह आकर्षक विजिटिंग कार्ड पड़ोस के मॉल की पार्किंग में इस तरह छोड़ा गया था कि इस पर नजर पड़े। आकर्षक हैंडमेड पेपर पर छपे इस विजिटिंग कार्ड पर कोई पता नहीं था पर फोन नंबर था जिसे मैंने हटा दिया है।

playboy

हमें लगता था कि ये फाइव स्‍टार संस्‍कृति की चीजें हैं पर छनते छनते ये अब मध्‍यवर्गीय जगहों तक पहुँच गई लगती हैं।

 

Saturday, September 20, 2008

दिल्‍ली घेट्टो के एनकाउंटर की एक साइडलाइन रिपोर्ट

मैंने एनकाउंटर की टीवी रिपोर्टिंग नहीं देखी थी, उस रिपोर्टिंग की रिपोर्टिंग जो ब्‍लॉग पर हुई उसे जरूर पढ़ा है। मुझे टीवी पर समाचार न देख पाने पर अब कोई मलाल नहीं होता, इस बार भी नहीं हुआ। पर मीडिया की भयानक तौर पर गिर गई साख से हो रही हानि को गहरे तौर पर बाद में अनुभव किया।

सुबह स्‍टाफरूम में प्रवेश किया तो हवा में कुछ बदलाव था, महसूस करने में कुछ देर लगी। चुप्‍पाचुप्‍पी की फुसफुसाहट थी। मेज पर अखबार बिछे हुए थे...खबरों में एनकाउंटर ही छाया था। दरअसल कम से कम 10-12 शिक्षक साथी उसी इलाके से आते हैं जहॉं ये एनकाउंटर हुआ। उनका कहना था कि उस क्षेत्र के निवासियों की साफ राय ये है कि एनकाउंटर फर्जी था। जिन लड़कों को आतंकवादी कहकर मारा गया उन्‍हें दो दिन पहले ही उठा लिया गया फिर वापस लाकर उसका एनकाउंटर किया गया। इस मान्‍यता का स्रोत क्‍या है ये किसी शिक्षक मित्र को नहीं पता पर ये लोग भी इस राय से सहमत लग रहे थे। उनका कहना था कि यदि इंस्‍पेक्‍टर की मौत की घटना नहीं होती तो जामिया नगर में हालत विस्‍फोटक थी, वो तो इस मौत ने लोगों के मन में शक पैदा किया कि हो सकता है कि एनकाउंटर असली हो, पर तब तक तो वे तमाम मीडिया व पु‍लिस की बातों की तुलना में मोहल्‍ले की अफवाहों में ही ज्‍यादा यकीन कर रहे थे।

मुझे इन लोगों की बात सुनकर राष्‍ट्रवाद के दौरे नहीं पड़े, आप चाहें तो मुझे राष्‍ट्रद्रोही करार दे सकते हैं। मुझे स्‍पेशल सेल के पुलिसवाले जॉंबाज राष्‍ट्ररक्षक भी नहीं लगते ये भी सच है। पर मैं उन्‍हें खास दोषी भी नहीं मानता, मुझे लगता है कि वे राज्‍य की लाचारी के प्रतीक हैं, राज्‍य को अपनी वैधता के रास्‍ते में आ गए तत्‍वों का निपटान करने में जब लाचारी महसूस होती हे तो उसे एनकाउंटर करने पड़ते हैं। इसे करने वाले तो औजार भर हैं, तथा उनकी शहादत एक कोलेट्रल डैमेज है। इस सबके बावजूद जामिया नगर के बहुत से लोगों का राष्‍ट्रीय मीडिया तथा प्रशासनिक ढॉंचे की तुलना में सुनी सुनाई बातों पर विश्‍वास कर लेना बेहद अवसादी परिघटना लगा। माना जा सकता है कि पुलिस ने इन आतंकवादियों को गिरफ्तार करने की तुलना में मार डालने का निर्णय लिया होगा ताकि ढिल्‍लू होम मिनिस्‍टर की छवि को धोया जा सके। पर राज्‍य ही नहीं वरन मीडिया पर भी इतने बड़े स्‍थानीय समुदाय का ऐसा अविश्‍वास कि वे बजाय राज्‍य की अपेक्षाकृत वैध संस्‍था के समर्थन में आने के, आतंकवादियों से सहानुभूति रखें ये त्रासद है।

मुझे लगता है कि दशकभर के संप्रदायीकरण ने अब लगभग पूरे समाज में विभाजन की लकीर खींच दी है। राज्‍य व मीडिया ने अपनी वैधता पूरी तरह नहीं तो कम से कम अल्‍पसंख्‍यकों के लिए तो खो ही दी है। मुझे यह भी लगता है कि आने वाले दिनों में और एनकाउंटर देखने को मिलेंगे उससे भी दुर्भाग्‍यपूर्ण यह कि इन एनकाउंटरों का इस्‍तेमाल तंगअक्‍ल कठमुल्‍ले, आतंकवादियों की पैदावार बढ़ाने के लिए करेंगे, और मीडिया ...वो तो खैर केवल ब्रेक से ब्रेक तक की ही दृष्टि रखता है।

Saturday, September 13, 2008

दिल्‍ली के ये बम मीडिया के लिए सौदा हैं

ये पोस्‍ट बेहद गुस्‍से में लिखी गई है, विवेक की उम्‍मीद न करें।

दिल्‍ली में इस वक्‍त कुछ बम विस्‍फोट हो रहे हैं। लोग मारे जा रहे हैं' ये दुकानदारी का समय है चैनलों के लिए। जिस पैमाने पर गैर जिम्‍मेदाराना रिपोर्टिंग अभी चल रही है, उसके बिना पर तो खुद इन चैनलों पर आतंकवाद फैलाने का मुकदमा चलना चाहिए। मौके पर खड़े पत्रकार शोर सुनते ही शोर मचा रहे हैं नेशनल मीडिया में कि मानव बम मिला ... कमबख्त मुड़कर जॉंच भी नहीं रहे कि खबर है या अफवाह... दो ही मिनट बाद गुब्‍बारे वाला बच्‍चा- मानव बम नहीं .. सबसे अहम गवाह हो जा रहा है। मुझे तो लगता है कि मीडिया वालों से तो कहीं ज्‍यादा जिम्‍मेदार व पेशेवर खुद वे आतंकवादी हैं जिन्‍होंने बम प्‍लांट किए। उनका काम है आतंक फैलाना और वे वहीं कर रहे हैं। लेकिन ये कम्‍बख्‍त पत्रकार व चैनल क्‍या इनका काम भी आतंक फैलाना है..अगर नहीं तो वे क्‍यों ये कर रहे हैं।  कोई इन्‍हें बंद करो नहीं तो ये देश में आग लगवा देंगे- 

एक बानगी देखें-

 

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Thursday, September 11, 2008

बढ़ी सब्सिडी- सरकारी पैसे से बनें हाजी

वैसे ऐसा लिखने में चट से संघी करार दिए जाने का जोखिम है पर कम्‍यूनिस्‍ट करार व संघी करार दिए जाने का जोखिम हम पहले भी उठाते रहे हैं, एक बार और सही। आज की खबर है कि सरकार ने हज के लिए सब्सिडी फिर से बढ़ा दी है- बावजूद बेपनाह बढ़ गए ईंधन के दाम व किराए के हज करने वालों को वही बारह हजार देना होगा बाकी सरकार टैक्सपेयर्स की जेब से भरेगी। और हॉं इस बार और ज्‍यादा लोगों को हाजी होने का पुण्‍य दिलाने का ठेका सरकार ने लिया है। वैसे हमें मुसलमानों पर अधिक पैसा खर्च करने से दिक्‍कत नहीं है, सच्‍चर समिति से भी नहीं थी पर तीर्थयात्रा के लिए सब्सिडी हमें एक सबसे ऊत काम लगता है। शिक्षा, प्रवेश, पढ़ाई, वजीफा ठीक है पर क्‍योंकि ये प्रकाश की ओर ले जाने वाले कदम हैं पर धर्म के नाम पर हजारों खर्च करना वो भी अपनी मेहनत के नहीं खैरात के...ये तो ठीक नहीं। यूँ भी एक मुसलमान दोस्‍त ने बताया कि नियमत: जब ऐसा कोई व्‍यक्ति हज करता है जो खुद उसकी कीमत अदा न करे तो इसे धर्म में वर्जित किया गया है। खैर किताब कुछ भी कहती हो पर हमारा मानना है कि इस तरह के टंटे मुस्‍िलम समुदाय के आत्‍मसम्‍मान  के विरुद्ध हैं जिसका विरोध खुद इस समुदाय को भी करना चाहिए।

 

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