मैंने एनकाउंटर की टीवी रिपोर्टिंग नहीं देखी थी, उस रिपोर्टिंग की रिपोर्टिंग जो ब्लॉग पर हुई उसे जरूर पढ़ा है। मुझे टीवी पर समाचार न देख पाने पर अब कोई मलाल नहीं होता, इस बार भी नहीं हुआ। पर मीडिया की भयानक तौर पर गिर गई साख से हो रही हानि को गहरे तौर पर बाद में अनुभव किया।
सुबह स्टाफरूम में प्रवेश किया तो हवा में कुछ बदलाव था, महसूस करने में कुछ देर लगी। चुप्पाचुप्पी की फुसफुसाहट थी। मेज पर अखबार बिछे हुए थे...खबरों में एनकाउंटर ही छाया था। दरअसल कम से कम 10-12 शिक्षक साथी उसी इलाके से आते हैं जहॉं ये एनकाउंटर हुआ। उनका कहना था कि उस क्षेत्र के निवासियों की साफ राय ये है कि एनकाउंटर फर्जी था। जिन लड़कों को आतंकवादी कहकर मारा गया उन्हें दो दिन पहले ही उठा लिया गया फिर वापस लाकर उसका एनकाउंटर किया गया। इस मान्यता का स्रोत क्या है ये किसी शिक्षक मित्र को नहीं पता पर ये लोग भी इस राय से सहमत लग रहे थे। उनका कहना था कि यदि इंस्पेक्टर की मौत की घटना नहीं होती तो जामिया नगर में हालत विस्फोटक थी, वो तो इस मौत ने लोगों के मन में शक पैदा किया कि हो सकता है कि एनकाउंटर असली हो, पर तब तक तो वे तमाम मीडिया व पुलिस की बातों की तुलना में मोहल्ले की अफवाहों में ही ज्यादा यकीन कर रहे थे।
मुझे इन लोगों की बात सुनकर राष्ट्रवाद के दौरे नहीं पड़े, आप चाहें तो मुझे राष्ट्रद्रोही करार दे सकते हैं। मुझे स्पेशल सेल के पुलिसवाले जॉंबाज राष्ट्ररक्षक भी नहीं लगते ये भी सच है। पर मैं उन्हें खास दोषी भी नहीं मानता, मुझे लगता है कि वे राज्य की लाचारी के प्रतीक हैं, राज्य को अपनी वैधता के रास्ते में आ गए तत्वों का निपटान करने में जब लाचारी महसूस होती हे तो उसे एनकाउंटर करने पड़ते हैं। इसे करने वाले तो औजार भर हैं, तथा उनकी शहादत एक कोलेट्रल डैमेज है। इस सबके बावजूद जामिया नगर के बहुत से लोगों का राष्ट्रीय मीडिया तथा प्रशासनिक ढॉंचे की तुलना में सुनी सुनाई बातों पर विश्वास कर लेना बेहद अवसादी परिघटना लगा। माना जा सकता है कि पुलिस ने इन आतंकवादियों को गिरफ्तार करने की तुलना में मार डालने का निर्णय लिया होगा ताकि ढिल्लू होम मिनिस्टर की छवि को धोया जा सके। पर राज्य ही नहीं वरन मीडिया पर भी इतने बड़े स्थानीय समुदाय का ऐसा अविश्वास कि वे बजाय राज्य की अपेक्षाकृत वैध संस्था के समर्थन में आने के, आतंकवादियों से सहानुभूति रखें ये त्रासद है।
मुझे लगता है कि दशकभर के संप्रदायीकरण ने अब लगभग पूरे समाज में विभाजन की लकीर खींच दी है। राज्य व मीडिया ने अपनी वैधता पूरी तरह नहीं तो कम से कम अल्पसंख्यकों के लिए तो खो ही दी है। मुझे यह भी लगता है कि आने वाले दिनों में और एनकाउंटर देखने को मिलेंगे उससे भी दुर्भाग्यपूर्ण यह कि इन एनकाउंटरों का इस्तेमाल तंगअक्ल कठमुल्ले, आतंकवादियों की पैदावार बढ़ाने के लिए करेंगे, और मीडिया ...वो तो खैर केवल ब्रेक से ब्रेक तक की ही दृष्टि रखता है।