हमारी भाषा
- राजेश जोशी
भाषा में पुकारे जाने से पहले वह एक चिडि़या थी बस
और चिडि़या भी उसे हमारी भाषा ने ही कहा
भाषा ही ने दिया उस पेड़ को एक नाम
पेड़ हमारी भाषा से परे सिर्फ एक पेड़ था
और पेड़ भी हमारी भाषा ने ही कहा उसे
इसी तरह वे असंख्य नदियॉं झरने और पहाड़
कोई भी नहीं जानता था शायद
कि हमारी भाषा उन्हें किस नाम से पुकारती है
उन्हें हमारी भाषा से कोई मतलब न था
भाषा हमारी सुविधा थी
हम हर चीज को भाषा में बदल डालने को उतावले थे
जल्दी से जल्दी हर चीज को भाषा में पुकारे जाने की जिद
हमें उन चीजों से कुछ दूर ले जाती थी
कई बार हम जिन चीजों के नाम जानते थे
उनके आकार हमें पता नहीं थे
हम सोचते थे कि भाषा हर चीज को जान लेने का दरवाजा है
इसी तर्क से कभी कभी कुछ भाषाऍं अपनी सत्ता कायम कर लेती थीं
कमजोरों की भाषा कमजोर मानी जाती थी और वह हार जाती थी
भाषाओं के अपने अपने अहँकार थे
पता नहीं पेड़ों, पत्थरों, पक्षिओं, नदियों, झरनों, हवाओं और जानवरों के पास
अपनी कोई भाषा थी कि नहीं
हम लेकिन लगातार एक भाषा उनमें पढ़ने की कोशिश करते थे
इस तरह हमारे अनुमान उनकी भाषा गढ़ते थे
हम सोचते थे कि हमारा अनुमान ही सृष्टि की भाषा है
हम सोचते थे कि इस भाषा से
हम पूरे ब्रह्मांड को पढ़ लेंगे
(कविता संग्रह - 'दो पंक्तियों के बीच ' से साभार)
7 comments:
अच्छी कविता।
बहुत अच्छी कविता।
इसे पढवाने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया ।
achchi kavita hai
Bahut acchi lagi aapki yah rachana....Shubhkamnae!!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
हम सोचते थे कि हमारा अनुमान ही सृष्टि की भाषा है
हम सोचते थे कि इस भाषा से
हम पूरे ब्रह्मांड को पढ़ लेंगे...
गज़ब का अंदाज़ है...राजेश जोशी का...
कितने गहरे इशारे...सहजता से...
bahut achchi kavita
हम सोचते थे कि हमारा अनुमान ही सृष्टि की भाषा है....wakai.
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