हमारा देश औपचारिक रूप से द्वि-राष्ट्र सिंद्धांत को खारिज करता है। इस सिद्धांत के पनपने और फिर भारत द्वारा खारिज किए जाने के अपने ऐतिहासिक कारण है। स्वाभाविक है कि वह सिद्धांत जिसके कारण देश का विभाजन हुआ उसे सिंद्धांतत: स्वीकार करना राष्ट्र के लिए कठिन है जबकि पाकिस्तान के लिए इस सिद्धांत का स्वीकार करना ही स्वाभाविक है। एेसे में जब कोई घूरे पर चढ़ा कुक्कुट बांग देकर कहे कि भारत में रहने वाला हर भारतीय हिंदू ही है, तो यह पुन: धार्मिक राष्ट्रवाद के उभरने की ओर संकेत करता है जो दो-राष्ट्र सिद्धांत का मूल आधार है। यानि यह पूर्व धारणा की हिंदू व मुसलमान दो अलग अलग राष्ट्रीयताएं है अत: उनके लिए अलग अलग राष्ट्र होना चाहिए।
अस्तु, हम अपनी नजर उस विभाजन पर डालें जो पाकिस्तान में हुआ उसका सिद्धांत भी एक तरह का दो-राष्ट्र सिंद्धांत ही था तथा बंग-मुक्तिवाहिनी की मूल चिंता पाकिस्तान से बंग राष्ट्र को अलग करने की थी। याानि भाषा भी एक अलग राष्ट्रीयता है तथा वहॉं भी एक अलग राष्ट्र होना चाहिए। धर्म की तुलना में आधुनिक समय में भाषिक राष्ट्रवाद को अधिक स्वीकृति प्राप्त हुई है। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण राज्यों के पुनर्गठन का आधार भाषा को बनाया जाना माना जा सकता है। भारत एक राष्ट्र के रूप में इस बात को स्वीकार करता है कि भारत की विभिन्न 'राष्ट्रीय' भाषाएं दरअसल उसकी राष्ट्रीयताएं है। इनके आधार पर ''राज्य'' बनाए गए तथा भारत कहा जाने वाला राष्ट्र इन राज्यों का ही एक संघ भर है जो गणतंत्रात्मक है। इस बात का विधिक-तकनीकी मतलब मात्र इतना है कि विभिन्न भाषिक राष्ट्रीयताएं मिलकर एक गणतंत्रात्मक ढांचा तैयार करती हैं जो भारत-राष्ट्र कहलाता है। ये राष्ट्रीयताएं भारत राष्ट्र की मातहत संरचनाएं नहीं हैं वरन उसकी स्रोत संरचनाएं है। ये हैं तो भारत है तथा 'किसी भारत' को हक नहीं कि वे इन राष्ट्रीयताओं का दमन करे या इन पर राज करे।
अब जरा विचार करें कि ''भारत बनाम इंडिया'' की जो बहस उठाई जाती है वो क्या है। मूलत: इस बहस की स्थापना है कि भारत के अवसरों, संसाधनों व निर्णयन पर इस तबके का कब्जा है जो ''इंडिया'' से व्यक्त होता है। इसकी पहचान के बाकी मानकों के अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ये खुद को अंग्रेजी में व्यक्त करता है तथा उसके साथ ही अपनी पहचान को देखता है। ये पुन: एक भाषिक राष्ट्रीयता ही है। किसी भी प्रकार के निर्णयन में भारतीय राष्ट्रीयताओं का दमन कर उनपर एक भिन्न राष्ट्रीयता का आरोपण उस आपसी समझदारी का सीधा उल्लंघन है जो इन भाषिक राष्ट्रीयताओं ने भारत की निर्मिति में अपनाई थी ऐसे में सहज स्वाभाविक अपेक्षा होनी चाहिए कि ये भाषिक राष्ट्रीयताएं अपने राष्ट्र का स्वयं निर्माण करें, राष्ट्र वे पहले से हैं बस उनके देया पर कब्जा किसी और का है उसे आजाद कराने का सवाल है।
भारतीय भाषाओं के लिए संघर्ष करने वाले एक मित्र अक्सर ये उदाहरण देते हैं कि हमारा देश लाख अहिंसावादी करार दिया जाए सच्चाई ये है कि वह सुनता तभी है जब कोई हथियार उठाए। सिखों का उदाहरण लें हम जीभर उन पर चुटकले गढकर..उनका उपहास करते रहे किंतु जब वे अपने राष्ट्र के लिए बंदूके उठाकर खड़े हुए तो कुछ कुर्बानियॉं गईं, आंतकवादी करार दिया गया, दमन कर दिया गया तथापि देश ने नरसंहार भी किया किंतु ये भी सच है कि मुख्यधारा में उनके लिए जगह तब ही बन पाई जब वे इस ''अखंडता'' के लालीपॉप से परे देख पाए। भाषिक राष्ट्रीयता अभी उस मुकाम पर पहुँची नहीं है लेकिन अंग्रेजियत के हाथो दमन व अपमान अब उस शिखर पर पहुॅच रहा है कि कुछ बलिदान देना पड़ेगा कुछ सजाएं भी दी जानी होंगी। ऐसे हर राष्ट्र को खारिज किए जाने की जरूरत है जो उन राष्ट्रीयताओं का अपमान करता है जिनसे वह बनता है। यह भी अहम है ये अंग्रेजी को हटाकर हिन्दी बैठाने की लड़ाई नहीं हो सकती, जैसे गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज बैठाना आजादी नहीं है। भारतीय भाषिक राष्ट्रीयताओं को मिलकर अंग्रेजी-राष्ट्रवाद के खिलाफ संघर्ष करना होगा। सीसैट/सेना की अफसरशाही/उच्च न्यायपालिका कई मोर्चे हैं जीत का रास्ता एक ही इंकलाब।
अस्तु, हम अपनी नजर उस विभाजन पर डालें जो पाकिस्तान में हुआ उसका सिद्धांत भी एक तरह का दो-राष्ट्र सिंद्धांत ही था तथा बंग-मुक्तिवाहिनी की मूल चिंता पाकिस्तान से बंग राष्ट्र को अलग करने की थी। याानि भाषा भी एक अलग राष्ट्रीयता है तथा वहॉं भी एक अलग राष्ट्र होना चाहिए। धर्म की तुलना में आधुनिक समय में भाषिक राष्ट्रवाद को अधिक स्वीकृति प्राप्त हुई है। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण राज्यों के पुनर्गठन का आधार भाषा को बनाया जाना माना जा सकता है। भारत एक राष्ट्र के रूप में इस बात को स्वीकार करता है कि भारत की विभिन्न 'राष्ट्रीय' भाषाएं दरअसल उसकी राष्ट्रीयताएं है। इनके आधार पर ''राज्य'' बनाए गए तथा भारत कहा जाने वाला राष्ट्र इन राज्यों का ही एक संघ भर है जो गणतंत्रात्मक है। इस बात का विधिक-तकनीकी मतलब मात्र इतना है कि विभिन्न भाषिक राष्ट्रीयताएं मिलकर एक गणतंत्रात्मक ढांचा तैयार करती हैं जो भारत-राष्ट्र कहलाता है। ये राष्ट्रीयताएं भारत राष्ट्र की मातहत संरचनाएं नहीं हैं वरन उसकी स्रोत संरचनाएं है। ये हैं तो भारत है तथा 'किसी भारत' को हक नहीं कि वे इन राष्ट्रीयताओं का दमन करे या इन पर राज करे।
अब जरा विचार करें कि ''भारत बनाम इंडिया'' की जो बहस उठाई जाती है वो क्या है। मूलत: इस बहस की स्थापना है कि भारत के अवसरों, संसाधनों व निर्णयन पर इस तबके का कब्जा है जो ''इंडिया'' से व्यक्त होता है। इसकी पहचान के बाकी मानकों के अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ये खुद को अंग्रेजी में व्यक्त करता है तथा उसके साथ ही अपनी पहचान को देखता है। ये पुन: एक भाषिक राष्ट्रीयता ही है। किसी भी प्रकार के निर्णयन में भारतीय राष्ट्रीयताओं का दमन कर उनपर एक भिन्न राष्ट्रीयता का आरोपण उस आपसी समझदारी का सीधा उल्लंघन है जो इन भाषिक राष्ट्रीयताओं ने भारत की निर्मिति में अपनाई थी ऐसे में सहज स्वाभाविक अपेक्षा होनी चाहिए कि ये भाषिक राष्ट्रीयताएं अपने राष्ट्र का स्वयं निर्माण करें, राष्ट्र वे पहले से हैं बस उनके देया पर कब्जा किसी और का है उसे आजाद कराने का सवाल है।
भारतीय भाषाओं के लिए संघर्ष करने वाले एक मित्र अक्सर ये उदाहरण देते हैं कि हमारा देश लाख अहिंसावादी करार दिया जाए सच्चाई ये है कि वह सुनता तभी है जब कोई हथियार उठाए। सिखों का उदाहरण लें हम जीभर उन पर चुटकले गढकर..उनका उपहास करते रहे किंतु जब वे अपने राष्ट्र के लिए बंदूके उठाकर खड़े हुए तो कुछ कुर्बानियॉं गईं, आंतकवादी करार दिया गया, दमन कर दिया गया तथापि देश ने नरसंहार भी किया किंतु ये भी सच है कि मुख्यधारा में उनके लिए जगह तब ही बन पाई जब वे इस ''अखंडता'' के लालीपॉप से परे देख पाए। भाषिक राष्ट्रीयता अभी उस मुकाम पर पहुँची नहीं है लेकिन अंग्रेजियत के हाथो दमन व अपमान अब उस शिखर पर पहुॅच रहा है कि कुछ बलिदान देना पड़ेगा कुछ सजाएं भी दी जानी होंगी। ऐसे हर राष्ट्र को खारिज किए जाने की जरूरत है जो उन राष्ट्रीयताओं का अपमान करता है जिनसे वह बनता है। यह भी अहम है ये अंग्रेजी को हटाकर हिन्दी बैठाने की लड़ाई नहीं हो सकती, जैसे गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज बैठाना आजादी नहीं है। भारतीय भाषिक राष्ट्रीयताओं को मिलकर अंग्रेजी-राष्ट्रवाद के खिलाफ संघर्ष करना होगा। सीसैट/सेना की अफसरशाही/उच्च न्यायपालिका कई मोर्चे हैं जीत का रास्ता एक ही इंकलाब।
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