Sunday, August 24, 2014

रूप-क्षय से भय

उम्र के बीतने के साथ एक बड़ी गड़बड़ ये है कि ये अकेले आपकी नहीं बढ़ती और अगर आपने उम्र से बड़ों और छोटों के साथ बराबरी की दोस्ती की दुर्लभ कला नहीं सीखी हुई है तो आप अक्सर उन लोगों के इर्द गिर्द हो जाते हैं जो अापकी ही तरह बढ़ती उम्र के होते हैं। कल की मनीषा की ब्लॉग पोस्ट ने मजबूर किया कि अपने आस पास बढ़ती उम्र से भयाक्रांत चेहरों को याद करूं। पोशाक-पार्लर-प्रसाधन, खुशी या जरूरत के लिए नहीं - डर के कारण। हमने शायद सभी औरतों को ये अहसास करा दिया है कि रूप है तो तुम हो... उन्हें रूप बचाने में लगे रहने दो (सो भी कोई बची रहने वाली चीज़ थोड़े है) - इस तरह  औरतें रूप-क्षय के अपने भय में लड़ने के लिए मॉल दर मॉल पोशाकों के लिए भटकती हैं या फिर पार्लर या शीशे के सामने इस युद्ध के अपने हथियार मांजती हैं... दुनिया उनके ज़ेहन से थोड़ा धुंधला जाती हैा हम पुरुष दुनिया हम अपने लिए बचाए रख सकते हैं।

2 comments:

शचीन्द्र आर्य said...

फ़ेसबुक वाली कतरनें यहाँ देखकर मन थोड़ा और उदास हो जाता है, हम एक ही माल दोनों तरफ़ ठेले दे रहे हैं। पता नहीं यह कैसे भावों से भर जाना है, फ़ुरसतिया पर भी इधर पुलहिया पोस्टों से पटी पड़ी हैं।

ऐसा क्यों होता है, शायद वक़्त की कमी या उस 'धैर्य' जैसी किसी चीज़ का चुक जाना। थोड़ा ठहरकर यहाँ बैठिए तो.. हम जब इस जगह आए तबसे उस लद्दाख वाली पोस्ट को यादकर रह जाता हूँ। बस।

और वो जो 'हिन्द युग्म' वाली किताब की बात थी, उसपर फ़िर कभी..

मसिजीवी said...

बात तो सही है। जुटाते हैं हिम्‍मत फिर से शुरू करने की, तब तक सहेजे जाने के लिहाज से यही सही।