Monday, December 17, 2007

जरूरतमंद तक सबसे बाद में क्‍यों पहुँचती है तकनीक

तकनीक को जो लोग मूल्‍यों से निरपेक्ष समझते हैं वे शायद उसे पूरी तरह नहीं समझते। विज्ञान का इतिहास इस बात का साक्षी है कि विज्ञान जगत भी उतनी ही किस्‍म राजनीतियों से दो चार होता है जितना कि मानविकी के क्षेत्र। मूल्‍यों का संघर्ष तकनीक के अखाड़े में भी वेसे ही होता है जैसा कि दूसरे हर क्षेत्र में। इसलिए जब ऐस्‍क्लेटर्स पर झपट कर सवार होते जवान लोगों के लिए तकनीक 'बराबरी' का ही मामला है जबकि जिन अक्षम या उम्रदराज लोगों को इस तकनीक की जरूरत है जिनके लिए तकनीक इनेबलिंग हो सकती है वे या तो टेक्‍नोफोबिया के कारण (आखिर इस तरह की चीजें उन्होंने कभी देखी नहीं...अज्ञात से भय इतना अस्वाभाविक भी नहीं)

परसों  की शाम अपने एक मित्र के साथ था, हम पिछले कम से कम 16-17 साल से कंप्‍यूटर वाले हैं (पहले कंप्‍यूटर की हार्डडिस्क 20 एमबी की थी, जी साहब मैं रैम नहीं हार्ड डिस्‍क की बात कर रहा हूँ)  इसलिए यदा कदा इन दोस्त को साफ्टवेयर या पेरीफेरल आदि में कोई मदद हो पाती है तो करता रहा हूँ । हिन्‍दी के वक्ता रहे हैं तथा संगीत पर अच्‍छा अधिकार है- राग, सुर सब समझते हैं तथा  संगीत कार्यक्रमों की समीक्षा आदि भी करते हैं। इसलिए हमें लालच रहा है कि किसी तरह घसीटकर अगर इन्‍हें हिंदी ब्‍लॉगिंग में लाया जा सके तो सच मजा आ जाए क्‍योंकि इतनी जानकारी के साथ संगीत को समर्पित कोई हिन्‍दी ब्‍लॉग अभी नहीं है, मतलब शास्‍त्रीय की समझ के साथ। पर हर बार तकनीक ही आड़े आती रही है। जो तकनीक हम दौड़ते कूदते लागों को और भी ज्‍यादा इनेबलिंग बनाती है वही डिसेबलिंग जान पड़ती है अगर हम डिसेबल्‍स की बात कर रहे हों।

accessibility-directory दरअसल हमारे ये मित्र दृष्टिहीन हैं। और मजा देखिए कि समझा जाता है कि कंप्‍यूटर तकनीक दृष्टि‍हीनों के लिए रामबाण है। जो पढ़ना है उसे स्‍कैन करो और ओसीआर से वह टेक्‍स्‍ट में बदल जाएगा और फिर जाज़ जैसे किसी स्‍क्रीनरीडर से उसे सुनो। यानि ये समस्‍या ही खतम हो गई कि आपको कोई इंसानी  रीडर चाहिए जो आपको पढ पढकर सुनाए, या सिर्फ वही पढें जो ब्रेल में  उपलब्‍ध हो। अब तो जो चाहो वह स्‍कैनर पर रखो और रीयल टाईम में पढो। पर इतनी संभावनाएं होते हुए भी सच बहुत ही गड़बड़ है- जाज़ अगर असली खरीदा जाए तो बहुत मंहगा है और आम पाठक की शक्ति से परे है। केवल पाईरेटेड का ही सहारा है वह भी 5-7 हजार में मिल पाता है। पर असल दिक्‍कत ये है कि आप इससे केवल अंग्रेजी ही पढ़ सकते हैं, हिन्‍दी की सुविधा आमतौर पर नहीं है। स्‍कैन व ओसीआर तो नहीं ही है। लेकिन पता चला कि यूनीकोड से हिन्‍दी रीडर जाज़ में चल सकता है अगर ईस्‍पीक नाम का वॉइस इंजन डाल में डाला जाए तो। परसों की शाम इसी में लगाई। पहले उनके लैपटॉप में ट्रांसलिटरेशन कीबोर्ड में आईएमई डाला इस तरह उनका कंप्‍यूटर हिंदी क्षमता वाला बना। अब इस्‍पीक से  हिंदी पढ़ने लायक बनवाया। अब वे खुद टाईप कर उसे पढ़ सकते हैं। जाहिर है ब्‍लॉगिंग की पहली शर्त तो बस इतनी ही है।

उनकी पहली पोस्‍ट अभी नहीं आई है वे बिना सहायता के या न्‍यूनतम सहायता से इसे तैयार करना चाहते हैं। मुझे लगा यही सही है। पर फिर भी मुझे अफसोस होता है कि चूंकि तकनीक के विकास को हम पूरी तरह बाजार के भरोसे छोड़ देते हैं इसलिए वह उन तक सबसे बाद में पहुँचती है जहॉं उसकी जरूरत सबसे ज्‍यादा होती है।

4 comments:

विनीत कुमार said...

isliyae ki kahi ve aapke aur hamare saamne ghighiyana band na kar de.

Anonymous said...

aisa hindustan mein hi jyada hai.
Kyonki log barabar nahin samjhe jate.
Main jahan hoon maine bina aankh ke logon ko computer programming job bhi karte dekha hai.

Anonymous said...

iska karan bharat mein maulikta ka abhav hona hai. ham log bahar se takneek uthakar apne yahan istemal karte hain, to usse hamari samasyaon ka samadhan kaise hoga? ham log aaj tak bail gaadi ka vikalp nahin dhoondh paye to baaki to bhool hi jaiye.

रवि रतलामी said...

आपके व आपके मित्र के प्रयासों को नमन्. परंतु लिनक्स तंत्र में टैक्स्ट टू स्पीच सेवा मुफ्त इस्तेमाल हेतु उपलब्ध है और फेस्टिवल नाम का तंत्र हिन्दी भी समर्थित करता है. इसका रीव्यू मैंने अपने ब्लॉग में भी दिया था.

उनका ब्लॉग शीघ्र प्रारंभ हो इस हेतु शुभकामनाएँ.