मेरा विश्वास तुमसे मुठ्ठी भर कम है
कि सारी दुनिया सूरज सोच सकेगी
पर यकीन मानो मैं इस खयाल से भयभीत नहीं हूँ
मेरी चिंता फर्क है
और वह यह है मेरे दोस्त
कि इसकी राह देखती तुम्हारी ऑंखें
कहीं पथरा न जाए
चिर आसन्न प्रसवा पृथ्वी डरती है
पथराई ऑंखों के सपनों से।
मेरी उपर्युक्त पंक्तियॉं लाल्टू की नीचे लिखी कविताओं के लिए हैं-
सारी दुनिया सूरज सोच सके
हर रोज जब सूरज उगता है
मैं खिड़की से मजदूरों को देखता हूँ
जो सड़क पार मकान बना रहे हैं
सूरज मेरी खिड़की पर सुबह सुबह नहीं आता
कल्पना करता हूँ कितना बढ़िया है सूरज
रात के अभिसार से थकी पृथ्वी को
आकाश हर रोज एक नया शिशु देता है
नंगी पृथ्वी
अँगड़ाई लेती
शरीर फैलाती है
उसकी शर्म रखने
अलसुबह उग आते
पेड़ पौधे, घास पात
पूरब जंघाएँ
प्रसव से लाल हो जाती हैं
ऐेसा मैं सोचता हूँ
सूरज कल्पना कर
कभी कभी
मैंने मजदूरों की ओर से सोचने की कोशिश की है
मेरे जागने तक
टट्टी पानी कर चुके होते हैं
अपने काम में लग चुके होते हैं
एक एक कप चाय के सहारे
मैंने चाहा
वे सूरज को कोसें
शिकवा करें
क्यों वह रोज उग आता इतनी जल्दी
बार बार थक गया हूँ
अगर वे कभी सूरज सोच सकें
सूरज नहीं दुनिया सोचेंगे
षड़यंत्र करेंगे
सारी दुनिया सूरज सोच सके।
2 comments:
बहुतखूब मियाँ, क्या बात है! अब तो लगता है कि कविता में जुगलबंदी शुरु हो जाएगी। वैसे पृथ्वी पर दया की जाए।
बन्धु। कविता की जुगलबन्दी भले ही उम्दा विचार हो पर इस मामले में भला अपनी क्या बिसात?
महेश। अब क्या दोहराना। उम्मीद है तुम लाल्टू की कविता के ही संदर्भ में ही कह रहे थे। क्योंकि मेरी कविता तो शायद कविता कही नहीं जा सकती। वैसे लाल्टू laltu.blogspot.com पर उपलब्ध हैं।
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