कॉलेज स्टाफ रूम में अक्सर यह मौका मिलता है कि दूसरे विषयों के शिक्षकों से उनके विषय में हो रहे हालिया बदलावों पर चर्चा हो सके। अक्सर साफ तौर पर एक कॉमन ट्रेंड दिखाई देता है कि सारी उच्च शिक्षा में बदलाव हो रहा है इसकी दिशा सभी विषयों में एक ही है- गहराई से उथलेपन की तरफ। मसलन साहित्य के पाठ्यक्रमों में साहित्य कम हो गया है और मीडिया, अनुवाद जैसे तत्व बढ़ रहे हैं। इसलिए जब आज अपनी एक अर्थशास्त्र की साथी शिक्षिका से चर्चा हो रही थी तो मैं इसे खासतौर पर जानने का इच्छुक था कि उनके विषय में क्या हो रहा है- ऐसा इसलिए कि बाकी विषयों में हो रहे बदलाव खुद अर्थशास्त्र के ही दबाव में हो रहे बदलाव हैं फिर अर्थशास्त्र में तो ये बदलाव और साफ नंगई के साथ आ रहे होंगे। यह भी ध्यान रखने लायक बात है उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम विचारधाराओं की लड़ाई अखाड़े रहे हैं क्योंकि भविष्य को प्रभावित करने का सबसे जरूरी मोर्चा इन युवाओं को ही प्रभावित करना है।
तो मैनें पूछा कि आजकल मार्क्स कैसे पढ़ा (पाती) हैं आप ? उन्होंने रहसयमयी मुस्कान से देखा और बोलीं- पढ़ाना ही नहीं पढ़ता। ओह.. क्या पाठ्यक्रम में है ही नहीं अब ? हम न जाने क्यों चिंतित हो गए- बाद में हमें अपनी चिंता बड़ी चिंताजनक लगी- विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान हमने बहुत सी ऊर्जा मार्क्सवादियों से बहसियाने में जाया की है- हमेशा उनसे लड़ते रहे- इसलिए अब यदि मार्क्स के नामलेवा नहीं बचें हैं तो हमें खुश होना चाहिए था पर नहीं- अंदर खाते हम इस विचारधारा के कई तत्वों के दिली प्रशंसक रहे हैं और इस बात के भी कि बौद्धिक जमात में मार्क्सवादियों की उपस्थिति यह सुनिश्चित करती थी कि मुद्दे पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार हो सकेगा, इस विचारधारा में लाख कमियॉं हो पर इसके मानने वालों में विमर्श की एक ट्रेनिंग दिखाई देती रही है। कम से कम हमारे विश्वविद्यालय में तो ऐसा ही है।
साथी शिक्षिका ने बताया कि अभी भी मार्क्सवाद को पढ़ाया जाता है पर केवल आनर्स में एक पर्चे में, वो भी पिछले साल तक 100 अंक का था अब 50 का हो गया है, उसमें भी विचार इस धारा की कमियों पर अधिक होता है। बाकी विद्यार्थियों को मार्क्सवाद का उल्लेख एक असफल प्रणाली की तरह किया जाता है। इसके अतिरिक्त ये भी कि अब इसकी ही वजह से विद्यार्थियों से आलोचनात्मक विश्लेषण के सवाल पूछे जाने की बजाय तथ्यात्मक सवाल पूछे जाते हैं। एक राजनैतिक व्यवस्था के तौर पर भले ही अब भी कहीं कहीं वामपंथी दिख जाएं पर एक आर्थिक चिंतन के रूप में तो वह पूरी तरह परास्त दिखता है खुद चीन में तो खूब नंगेपन के साथ। और सब से बड़ी बात ये कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों के पाठ्यक्रमों के निर्धारण को बहुत सी देशी विदेशी ताकतें प्रभावित करती हैं (अर्थशास्त्र का पाठ्यक्रम दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनिमिक्स द्वारा तैयार होता है जहॉं का शायद ही कोई शिक्षक होगा जो अमरीकी फैलोशिपों को भोक्ता न हो) हम अगली कक्षा के लिए उठें उससे पहले उन्होंने मानों सार सामने रखा- पहले मार्क्सवाद एक वैकल्पिक व्यवस्था थी अब केवल एक क्लास ऐसाइनमेंट का शीर्षक है।
5 comments:
मार्क्सवाद 50 अंकों का हो या 500 अंकों का, क्या फ़र्क़ पड़ता है? पाठ्यक्रम पढ़ता ही कौन है भला? :)
क्या बात कही है गुरु
उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम विचारधाराओं की लड़ाई के अखाड़े रहे हैं क्योंकि भविष्य को प्रभावित करने का सबसे जरूरी मोर्चा इन युवाओं को ही प्रभावित करना है।
मैं इस वक्त जेएनयू में हूं और देख रहा हूं जिस विचारधारा को आप खत्म बता रहे हैं और महज असाइनमेंट का हिस्सा कह रहे हैं उसके लिए कुछ लोग अपने कैरियर क्या जीवन ही दांव पर लगाये हैं. मैं नहीं जानता ये कितने दिनों तक मार्क्सवादी रहेंगे पर फिलवक्त इनमें मुझे चिंताओं की जो शक्ल दिखती है वह पेट से जुडी है. असल फर्क पेट और दिमाग की बहस का ही है. अलबत्ता यह अलग से देखे जाने वाली बात है कि क्यों जेएनयू जैसे संस्थान में विभिन्न वाम छात्र संगठनों के बीच आपस में कोई बहस नहीं है.
परिवर्तन संसार का नियम है। जो चीज वर्तमान समय के अनुकूल नहीं उसे सिस्टम खुद ही बाहर कर देता है। जिस तरह राजतंत्र आधुनिक समय के अनुकूल नहीं होने से धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है वही बात मार्क्सवाद के साथ भी है।
मगर विचारधाराओं का भविष्य पाठ्यक्रम नहीं तय करते और न ही उनमें मिलने वाले अंक. कोई विचारधारा कितने वैग्यानिक और ऐतिहासिक तरीके से चीजों को देखने की समझ पैदा करती है, किसी ठोस भौतिक परिस्थिति में सही कार्यनीतियों और रणनीतियों के आधार पर जनता की रहनुमाई में लडे जानेवाले युद्ध और उसकी मुक्ति के संघर्ष में वह कितना साथ देने लायक होती है, यही तय करता है विचारधारा का भविष्य. मार्क्सवाद वहां अब भी विजेता है, योद्धा है, रहनुमा है. चीन और रूस की असफ़लता मार्क्सवाद की असफ़लता नहीं है. किसी भी घटना को उसके स्वरूप में नहीं उसकी प्रक्रिया और सार में देखना चाहिए.
मार्क्सवाद के दुनिया के सबसे बड़े व्याख्याता अपनी भाषा हिंदी के डा. रामविलास शर्मा हैं। भले ही विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में मार्क्सवाद का कद छोटा कर दिया गया हो, डा. रामविलास जी पुस्तकें धड़ल्ले से बिक रही हैं। उनकी लगभग सभी पुस्तकें (मार्क्स और पिछड़े हुए समाज, भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अंतर्विरोध: थलेस से मार्क्स तक, आदि... डा. शर्मा ने अपने सुदीर्घ जीवनकाल में 100 से ज्यादा पुस्तकें लिखीं हीं, और मार्क्स के दास कैपिटा (पूंजी) का अनुवाद भी हिंदी में किया है), वाणी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से उपलब्ध हैं, और सभी पुस्तकों के रीप्रिंट पर रीप्रिंट निकलते जा रहे है, क्या यह इस ओर सूचित करता है कि मार्क्सवाद अब अजायबघर का सामान बन गया है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत के कुल क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से पर माओवादियों की तूती बोलती है, जिनके भाई-बंद अब नेपाल में भी कमान संभाले हुए हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय मार्क्स से आंख मूंद लें, तो क्या फर्क पड़ता है। आपने शुतुर्मुर्ग के बारे में तो सुना ही होगा कि खतरे के वक्त वह क्या करता है। ये विश्वविद्यालय भारतीय समाज के शुतुर्मुग ही हैं।
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