भारतीय सुंदरी शिल्पा शेट्टी नस्लवादी टिप्पणी से आहत हुई थी और फिर पौंड्स की बरसात और नस्लविरोधी चुंबन से उसका गौरव लौट पाया। पर क्या भारतीय खुद एक नस्लवादी कौम हैं ?
जी नहीं मैं कम से कम अभी दलित उत्पीड़न की तरफ इशारा करते हुए नहीं कह रहा हूँ वरन एकदम पारिभाषिक संदर्भ में नस्लवाद की बात कर हा हूँ यानि एक नस्ल या चमड़ी के रंग के आधार पर बेहतरी कमतरी की मानसिकता का सवाल। नस्लवाद के सवाल का उपनिवेशवाद और उससे भी पहले गुलामी की प्रथा से गहरा लेना है- इसी क्रम में मालिकों की ऐथिनीसिटी को गुलामों की ऐथिनीसिटी से बेहतर समझा जाने लगा और यह प्रवृत्ति पहले तो बढ़ती गई और फिर बाद में इस मानसिकता का निर्यात अपने उपनिवेशों को कर दिया गया। इंग्लैंड इस नस्लवाद की मातृभूमि है और अमरीकी नस्लवाद की जननी भी है। लेकिन क्या भारत जैसे देश के नागरिक जो खुद इस नस्लवाद के शिकार रहे हैं वे क्या खुद इसी नस्लवादी सोच के शिकार हैं या हो सकते हैं ?
हमारी एक मित्र इस वर्ष की कॉमनवैल्थ फैलो चुनी गई हैं और इस फैलोशिप के तहत इंग्लैंड रवाना हो रही हैं इस तैयारी के क्रम में ब्रिटिश काउंसिल ने कई ब्रीफिंग सैशन आयोजित किए और इन्हीं में उन्हें बताया गया कि यदि आपके खिलाफ कोई नस्लवादी भेदभव हो तो क्या किया जाना चाहिए... यहॉं तक तो ठीक। पर साथ यह भी बताया कि खुद भारतीय ( इनमें पाकिस्तानी व बांग्लादेशी भी गिने जाएं) इंग्लैंड की कुछ सबसे अधिक नस्लवादी कौमों में हैं। आगे उदाहरण देते हुए बताया गया कि किस प्रकार इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों के कैंपस में गोरे लड़के और लड़कियॉं आपको भारतीय, ईस्ट एशियन, अरब, अफ्रीकी आदि लोगों के साथ जोड़े बनाते दिखेंगे पर कभी भारतीयों के जोड़े अफ्रीकी लड़के-लड़कियों के साथ बनते नहीं दिखेंगे। थोड़ा सोचने पर बात एकदम सही लगती है कोई भी न्यायप्रिय, समतावादी, देशप्रेमी आदि आदि एनआरआई विदेश से गोरी मेम तो हो सकता है ले आए लेकिन कोई अफ्रीकी लड़की उसे पसंद नहीं आ पाती। अब नहीं आती तो नहीं आती कोई जबरिया तो इश्क करेगा नहीं पर सवाल यह है कि ऐसा होता क्यों है।
जवाब ढूंढना कोई बहुत मुश्किल नहीं है। अखबार उठाएं और वैवाहिक विज्ञापनों पर नजर दौड़ाएं फेयर-गोरी चिट्टी बहु चाहिए और अगर हो सके तो लड़की वाले भी गोरे दूल्हे को ही वरीयता देंगे। ये अपने आप में नस्लवाद न मानकर मेटिंग प्रेफरेंस कह दिया जा सकता है पर हर कोई जानता है कि गोरे रंग को बेहतर समझे जाने की प्रक्रिया का स्रोत उपनिवेशवाद और नस्लवाद में ही है। केन्या और नाईजीरियाई विद्यार्थियों को लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस में कैसे कैसे पूर्वाग्रह होते हैं इससे एक विद्यार्थी और अध्यापक होने के नाते हम खूब परिचित हैं। यह मानसिकता ऐसी छोटी मोटी बीमारी नहीं है कि चार एनआरआई बैठक कर या संकल्प कर इसे दूर कर सकें, पहले तो इस स्वीकार का साहस ही दिखाना पड़ेगा कि यदि भारतीय कभी कभी नस्लवाद का शिकार होते हैं तो वे खुद भी अक्सर नस्लवादी व्यवहार करते भी हैं और फिर इसकी जड़ तक पहुँचने का भी साहस दिखाना पड़ेगा।
2 comments:
कोई गोरा करने वाली क्रीम है क्या..? वो शाहरूख खान जॊ बेच रहा है उससे कोई फ़रक नही पडा ..?
काहे हमे अगले महीने शिल्पा शेट्टी से मिलने जाना है कया पता हमारा भी नंबर गियर के जैसे और फ़ोटो चैनल पर आ जाये..?उम्मीद पे जहा कायम है जी..?
अब हम तो क्या कहें...हम तो अपनों के ही मारे हैं. आप तो कल्ब खोल ही लो और पहली सदस्यता मेरी तय मानो. :)
वैसे बात विचारणीय है.
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