मैं हमेशा से मानता रहा हूँ कि दिल्ली जैसे महानगरों में रहने का बड़ा लाभ यह है कि आप पूर्ण गुमनामता का आंनद ले सकते हैं। आप बड़ी तोप हों या छोटी बंदूक बस खुद की नजर में ही होते हैं महानगर भर के लिए आप बस एक चेहरा होते हैं। इसी तरह से आप किसी फन्ने खॉं को न जानते हों तो छोटे शहर या गॉंव में आपका काम नहीं चलता...महानगर में आप मजे में जिंदगी काट सकते हैं। तो खैर भले ही हम जानते थे कि मधु किश्वर ये हैं...वो हैं पर होंगी। ऐसी पचासों जगह होंगी जहॉं वे हमारे सामने आई होंगी...हमारी बला से।
किंतु इस चोखेरबाली कार्यक्रम में नजरअंदाज करने की सुविधा नहीं थी वे मंच पर थीं और मंच पर बैठे बाकी लोगों से पहले ही परिचय था इसलिए ऐलिमिनेशन के नियम से ही सही इन्हें भी पहचाना गया। इनका वक्तव्य भले ही खूब पॉलिमिकल था, दम भर। और हर पॉलिमिक्स की ही तरह आपके पास विकल्प नहीं थे... यू लव इट ओर यू हेट इट बट यू कैननॉट इग्नोर इट। चोखेरबालियॉं अपनी रपट दे ही रही हैं बाकी भी देंगी पर हम अपनी बाहरी समझ बता रहे हैं।
मधु ने कहा कि वे ब्लॉग नहीं जानतीं चोखेरबाली को नहीं पहचानतीं पर उन्हें डर है कि यहॉं का विमर्श कहीं जनाना डब्बा न हो। औरत औरत की कहे, औरत की सुने बाकी सब डब्बे के बाहर रहें। इससे काम नहीं चलेगा। उन्होंने ये भी कहा कि पश्चिम की बात जाने दें लेकिन हिंदुस्तान में स्त्री के सवाल पर कोई लड़ाई औरत को अकेले नहीं लड़नी पड़ी मर्द सदा उनके साथ रहे राजा राम मोहन राय से लेकर मानुषी कार्यक्रमों में दरी बिछाने वाले मर्दों तक। मधु बार बार दो संकटों से आगाह करती रहीं... 'जनाना डिब्बा सोच' तथा 'विक्टिमहुड की भाषा'
मतलब ये कि बाहरी समझ वालों के लिए हिन्दी ब्लॉग फेमिनिज्म के सामने जनाना डब्बा बन जाने का संकट है। व्यक्तिगत तौर पर मुझे ये आशंका बहुत दमदार भले ही नहीं जान पड़ती पर तब भी एक आशंका तो है ही। उम्मीद है ब्लॉग के स्त्री प्रश्न खुद को वृहत्तर संदर्भों से भी जोड़ेंगे- उदारीकरण, मंदी, तेजी, नाटो, पोटा ये सब स्त्री प्रश्न भी हैं ये समझा जाना चाहिए।
18 comments:
हिंदुस्तान में स्त्री के सवाल पर कोई लड़ाई औरत को अकेले नहीं लड़नी पड़ी मर्द सदा उनके साथ रहे राजा राम मोहन राय से लेकर मानुषी कार्यक्रमों में दरी बिछाने वाले मर्दों तक
यह सच है ...... और इससे पूर्णतयः सहमत हूँ मैं !!!
इसे दूसरी तरह भी कह सकते है...कोई भी सरोकार निजी या सीमित दायरे में न रहे....समाज के सभी विमर्शो से अगर दोनों पक्ष जुडेगे तो ज्यादा बेहतर न होगा ?
सरजी, हमको तो कोई बोला ही नहीं कि उठिए, लेडिस सीट है। और वैसे भी छुटपन में जनाना डब्बा में बैठने की पुरानी आदत रही है। आज तो चवन्नी चैप पर छपा भी है कि हम कैसे लेडिस सीट पर बैठकर सिनेमा देखा करते थे। बाकी इस पर सीरियस बात भी होगी।...
'बाहरी समझ वालों के लिए हिन्दी ब्लॉग फेमिनिज्म के सामने जनाना डब्बा बन जाने का संकट है।'
बहुत मौज़ूँ मसला उठाया है गुरू और आशंका भी ठीक ही जताई है.
नो कमेण्ट्स!
सर जी अपन को तो महिलाओं से बहस करने में बड़ा संकोच होता है, इसलिये अपन ने तो आज तक चोखेर बालियों को छेड़ने की कोशिश नहीं की, वैसे भी भला औरतों से बहस में कोई जीत पाया है? :)
मेरी मधु किश्वर जी से असहमति है.
विक्टिमहुड की भाषा नहीं अनुभूति होती है. वे परमसौभाग्यशालीं है कि उन्हें दरी बिछाने से लेकर हर कदम पर मर्दों का साथ मिलता रहा. अन्यथा स्त्रियों की राह में तो क्या क्या नहीं बिछाया जाता है...
फेमिनिज्म का जनाना डिब्बा तो तब बनता है जब पुरुष "दया" वश महिलाओं के लिये आवाज उठाते हैं. जब विक्टिम खुद आवाज उठाता है तब सारे विक्टिमों के डिब्बों मे रहने की सीमा टूट जाती है.
फर्क के लिये एक नज़र मायावती के ऊपर भी डाल लीजियेगा.
ब्लॉग के स्त्री प्रश्न खुद को वृहत्तर संदर्भों से भी जोड़ेंगे- उदारीकरण, मंदी, तेजी, नाटो, पोटा ये सब स्त्री प्रश्न भी हैं ये समझा जाना चाहिए।
ब्लॉग की स्त्री इन सभी विषयों पर भी लिखती है आप ध्यान से देखिये।
मनीषा
ब्लॉग लिखती महिला पर वो टिपण्णी कर रही हैं जो ब्लॉग ना लिखती है और ना जानती हैं !!! . "ब्लॉग फेमिनिस्म" भी केवल और केवल कुछ बुद्धिजीवी और डी यू के अध्यापक ( विनीत जी के ब्लॉग कटेगरी } जो ब्लॉग भी लिख लेते हैं दिया टर्म हैं .
आम ब्लॉगर जो महिला भी हो सकती हैं और जो सक्रियता यानी कम से कम हफ्ते मे ५ पोस्ट लिख रही हैं वो फेमिनिस्म से कोई वास्ता नहीं रखती . विविध विषयों पर लिखना और अपनी रूचि से लिखना .
unisex के ज़माने मे फेमिनिस्म का ज़माना गए बरसो होगये . नेगेटिव से positive है आज का ब्लॉग लेखन जहाँ महिला लिख रही हैं .
किसी भी नयी विधा पर बहस हो लेकिन जब तक वो सब लोग नहीं होगी जो उस विधा से जुडे हैं कोई भी बात खुल कर सामने नहीं आती . ब्लोगिंग मे हर कोई हिन्दी साहित्य मे इतना पढा लिखा नहीं हैं जो साहित्य मे उपलब्ध थेयोरी को पढ़ कर अपनी बात कहे .
ब्लोगिंग का मतलब हैं डायरी यानी अपनी आप बीती को कहना और बाटना
"औरत औरत की कहे, औरत की सुने "ये बात ही सबसे जरुरी हैं क्युकी जिस दिन औरत ने अपने वजूद को पुरूष के बिना पहचानना शुरू कर दिया उस दिन से ही बदलाव आयेगा .
पुरूष को समझाने से क्या होगा अपने आप को समझाओ अपने को बदलो , अपने आस पास की औरतो को जागरूक करो उनको समझाओ को समस्या तुम्हारी हैं निदान भी तुमको ही खोजना हैं . और ब्लॉग एक माध्यम हैं जिसके सहारे अगर नारी चाहे तो एक एक दुसरे से जुड़ कर एक दुसरे से मिल कर अपनी अपनी समस्या को सुलझा सकती हैं .
जनाना डिब्बा से परहेज सिर्फ़ उनको होता हैं जो पुरूष के साथ भी चाहती हैं और धक्का लगजाये तो चप्पल भी उतारती हैं . और पुरुषों को तो जनाना डिब्बा श्याद ही पसंद हो !!!!
महिला मुक्ति का प्रश्न तमाम तरह के शोषण से मुक्ति का प्रश्न है। उस के बिना महिला मुक्ति संभव ही नहीं।
पढ़ रहे हैं रपट और समझने की कोशिश भी। :)
स्त्रीविमर्श को संकीर्ण और यान्त्रिक तरीके से भी लिया जा रहा है। इससे सचेत रहने की आवश्यकता भी है।
स्त्रीविमर्श को संकीर्ण और यान्त्रिक तरीके से भी लिया जा रहा है। इससे सचेत रहने की आवश्यकता है।
(भूलवश यह टिप्पणी 'अनाम' की ओर से चली गई थी अतः पुनःप्रेषित।)
dekhiye ye DU valo ko blog se hatavaiye aur vichar-vimarsh band karavaiye !bina vichare 5 post likhan sikhiye.ye hamare sujhav hai.
ukt sab ke bavazud baat vichaarniye to hai hi.
हिन्दी ब्लॉगजगत में स्त्री विमर्श के अनेक स्वर मधु किश्वर जी की आशंका को हकीकत बनाते दिखते हैं। कहीं कहीं इसे जनाना डिब्बा बनाने की कोशिश भी हो रही है।
कुछ अनुभवी और वरिष्ठ पुरुष ब्लॉगर इसे वर्जित या न जाने लायक इलाका भी मानने लगे हैं। लेकिन अभी भी एक दूसरे के नजदीक आकर कुछ सार्थक चर्चा करने की कोशिश भी हो रही है।
विक्टिमहुड के स्वर भी हैं, कुछ अनाम टिप्पणीकार अप्रिय और मजा लेने वाली बातें भी करते हैं। कदाचित् यह सब इस माध्यम की प्रकृति के कारण भी होता जा रहा है।
बहुत बढ़िया ...आपका अंदाज़ बहुत पसंद आता है हमें...सारगर्भित बात...व्यंग्य की गुंजाइश...निष्कर्ष निकालने की उतावली नहीं...और इसकी अनिवार्यता भी नहीं...(पता नहीं जो कहना चाहता हूं, उसे आप समझेंगे या नहीं)...
मधु जी की ज़नाना डिब्बे वाली बात महत्वपूर्ण है और पसंद आई...यह बात आप ही निकाल कर ला सकते थे...
जै जै
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