चूंकि मुखौटेबाजी काफी हो चुकी तो सोचा क्यों न देखा जाए कि कुछ पहले जब भविष्य की चिंता करते थे तो कैसा होता था। ये लेख मैंने नवम्बर 1998 में लिखा था और यह इत्रिका के प्रवेशांक (जनवरी 1999) का संपादकीय बना था। उस समय Y2K की संमस्या पर खूब चर्चा होती थी। मित्रो इत्रिका इंटरनेट पर पत्रिका निकालने का मेरा प्रयास था। उस समय यूनीकोड नहीं था और यह लेख भी अमर फांट में था इसे रूपांतर की मदद से यूनीकोड किया गया है।
'वाई २ के साहित्य' समस्या ....
२१वीं सदी का आरंभ केलेंडर बदलने भर से कुछ अलग है। नई सहस्त्राब्दी का आरंभ मानव सभ्यता के लिए एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण क्षण है। कंप्यूटर जगत की सबसे ज्वलंत समस्या तो २१वीं सदी का पहला क्षण स्वयं है। समझा जाता है कि यह क्षण इस क्षेत्र विशेष की प्रगति के समक्ष विशालतम चुनौती है इसे वे वाई २के समस्या कहते हैं । हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने इसी संदर्भ में वाई २ के पी.ई. समस्या का उल्लेख किया है अर्थात वर्घ् २००० राजनैतिक-आर्थिक समस्या। आशय है कि नई सहस्त्राब्दी के आगमन को मानव सभ्यता का प्रत्येक क्षेत्र एक संकट के रूप में देखता है। कला विशेषकर साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। आशय यह है कि वाई २-के साहित्य एक यथार्थ है और इससे आखें मूँदी नहीं जा सकती।
वैसे तो साहित्य जगत चिंता प्रधान लागों का जमावडा ही होता है उसे वर्तमान और भविष्य की कमीज, पैंट, चाय-कॉफी, खांसी-जुकाम सभी में विघटन के संकेत दिखते हैं लेकिन इधर कुछ दिनों से साहित्य पर मंडरा रहे संकट की बात कुछ अधिक ही की जा रही है। साहित्य की गरिमा, शुचिता, स्वरूप पर मंडरा रहे इस संकट को उत्तरआधुनिकता, बाज़ारवाद अपसंस्कृति की शब्दावली में पहचाना जाता है। पर इसे नकारा भी नहीं जा सकता की कुछ बदलाव अवश्य हो रहे हैं यह बात दीगर है कि इसे संकट माना जाए या अवसर।
साहित्य की परंपरा का आरंभ श्रुति परंपरा से होता है फिर लिपि का अविष्कार उसमें एक महत्वपूर्ण मोड़ रहा है । हमारे साहित्य की दृष्टि से एक अत्यंत क्रांतिकारी मोड़ उन्नीसवीं सदी में आया जब छापेखाने का अवतरण हुआ। यह परिवर्तन एक प्रौद्योगिक घटना मात्र नहीं था यह एक बड़ी साहित्यिक घटना भी थी वह इस मायने में कि प्रेस ने साहित्य को प्रसार दिया और इस प्रसार ने लेखक को मुक्ति प्रदान की। सामंत पर उसकी निर्भरता समाप्त हुई और जन से जुड़ाव शुरू हुआ। साहित्य के इस सार्वजनीकरण ने साहित्य को संवेदना और रूप दोनों स्तर पर प्रभावित किया । जहाँ नए-नए विषयों पर रचना प्रारंभ हुई वहीं उपन्यास,कहानी, नाटक आदि नई-नई विधाएं साहित्य जगत में उभरीं । आशय यह है कि छापेखाने का अवतरण स्वयं में एक प्रौद्योगिक घटना होते हुए भी साहित्य जगत के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इसने पाठक, लेखक परंपरा के रूप में साहित्य को एक नया आयाम प्रदान किया। शब्द की शक्ति खुल कर सामने आई। बीसवीं सदी का अंत साहित्य जगत में एसे ही एक अन्य मोड़ पर है।
राज्य के स्थान पर बाज़ार का केन्द्रिय नियमनकारी शक्ति हो जाना एक राजनैतिक आर्थिक घटना हो सकती है सूचना, संचार और मीडिया के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति एक प्रोद्यौगिक घटना है अवश्य मध्यमवर्ग का विशालतम वर्ग होना एक सामाजिक प्रवृघि है किंतु ये आर्थिक, राजनैतिक सामाजिक और प्रौद्यौगिक परिवर्तन साहित्य से असंपृक्त नहीं है मीडिया के चलते सृजन का सार्वजनिकरण हुआ है। और यह प्रैस द्वारा किए गए सार्वजनिकरण से कहीं अधिक है। आशय यह है कि नई सदी की प्रौद्योगिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थितियों में साहित्य को एक नई वाई-२के स्थिति में ला खड़ा किया है। अंतर यह है कि यह परिवर्तन प्रैस की तुलना में अधिक औचक है, सिर पर एकदम सवार है और साहित्य जगत कम से कम हिंदी साहित्य जगत इसके लिए तैयार नहीं है। इसलिए उसे परिवर्तन, यह अवसर संकट जान पड़ता है। चूंकि उघरआधुनिकता का फ़ज़ी लॉज़िक उसे जंजाल जान पड़ता है और और साहित्य का नया सलीका उसे बेतुका जान पड़ता है। शब्द के साथ दृश्य व श्रव्य का जुडाव़ उसे अपसंस्कृति जान पड़ती है । यानि कुल मिलाकर सारा आंगन ही टेढ़ा है ।
वाई २के साहित्य अन्य क्षेत्र की वाई२के समस्या की भांति किसी संधि या संक्रमण काल की सुविधा नहीं देता अत: साहित्य के सुधी कर्मियों को गंभीरता से यह विचार करना कोगा कि प्रलाप एवं विलाप यदि आवश्यक है तो उसे समानांतर चलने दें किंतु उससे भी अधिक आवश्यक है साहित्य जगत को तैयार करना ,बदलती स्थितियों से अनुकूलित करना, और उसमें वह जिजीविषा व प्राणवायु फूंकना जिससे वह ४० चैनलों के दूरदर्शन पर साहित्य की गुंजाइश को खोज सकें इंटरनेट के महासमुंद्र में साहित्य का लाइट-हाउस को चिन्हित कर सकें ताकि साहित्य की यह परंपरा अगली पीढी को संग्रहालयों में नहीं जीवंत एवं अधिक विकसित रूप में मिले जहां वे इस विकास को अपने इतिहास में प्रैस की ही भांति एक अवसर के रूप में जाने समझें जिसका पूरा लाभ हमारी पूरी पीढ़ी ने उठाया
'वाई २ के साहित्य' समस्या ....
२१वीं सदी का आरंभ केलेंडर बदलने भर से कुछ अलग है। नई सहस्त्राब्दी का आरंभ मानव सभ्यता के लिए एक अत्यंत चुनौतीपूर्ण क्षण है। कंप्यूटर जगत की सबसे ज्वलंत समस्या तो २१वीं सदी का पहला क्षण स्वयं है। समझा जाता है कि यह क्षण इस क्षेत्र विशेष की प्रगति के समक्ष विशालतम चुनौती है इसे वे वाई २के समस्या कहते हैं । हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री ने इसी संदर्भ में वाई २ के पी.ई. समस्या का उल्लेख किया है अर्थात वर्घ् २००० राजनैतिक-आर्थिक समस्या। आशय है कि नई सहस्त्राब्दी के आगमन को मानव सभ्यता का प्रत्येक क्षेत्र एक संकट के रूप में देखता है। कला विशेषकर साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। आशय यह है कि वाई २-के साहित्य एक यथार्थ है और इससे आखें मूँदी नहीं जा सकती।
वैसे तो साहित्य जगत चिंता प्रधान लागों का जमावडा ही होता है उसे वर्तमान और भविष्य की कमीज, पैंट, चाय-कॉफी, खांसी-जुकाम सभी में विघटन के संकेत दिखते हैं लेकिन इधर कुछ दिनों से साहित्य पर मंडरा रहे संकट की बात कुछ अधिक ही की जा रही है। साहित्य की गरिमा, शुचिता, स्वरूप पर मंडरा रहे इस संकट को उत्तरआधुनिकता, बाज़ारवाद अपसंस्कृति की शब्दावली में पहचाना जाता है। पर इसे नकारा भी नहीं जा सकता की कुछ बदलाव अवश्य हो रहे हैं यह बात दीगर है कि इसे संकट माना जाए या अवसर।
साहित्य की परंपरा का आरंभ श्रुति परंपरा से होता है फिर लिपि का अविष्कार उसमें एक महत्वपूर्ण मोड़ रहा है । हमारे साहित्य की दृष्टि से एक अत्यंत क्रांतिकारी मोड़ उन्नीसवीं सदी में आया जब छापेखाने का अवतरण हुआ। यह परिवर्तन एक प्रौद्योगिक घटना मात्र नहीं था यह एक बड़ी साहित्यिक घटना भी थी वह इस मायने में कि प्रेस ने साहित्य को प्रसार दिया और इस प्रसार ने लेखक को मुक्ति प्रदान की। सामंत पर उसकी निर्भरता समाप्त हुई और जन से जुड़ाव शुरू हुआ। साहित्य के इस सार्वजनीकरण ने साहित्य को संवेदना और रूप दोनों स्तर पर प्रभावित किया । जहाँ नए-नए विषयों पर रचना प्रारंभ हुई वहीं उपन्यास,कहानी, नाटक आदि नई-नई विधाएं साहित्य जगत में उभरीं । आशय यह है कि छापेखाने का अवतरण स्वयं में एक प्रौद्योगिक घटना होते हुए भी साहित्य जगत के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इसने पाठक, लेखक परंपरा के रूप में साहित्य को एक नया आयाम प्रदान किया। शब्द की शक्ति खुल कर सामने आई। बीसवीं सदी का अंत साहित्य जगत में एसे ही एक अन्य मोड़ पर है।
राज्य के स्थान पर बाज़ार का केन्द्रिय नियमनकारी शक्ति हो जाना एक राजनैतिक आर्थिक घटना हो सकती है सूचना, संचार और मीडिया के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति एक प्रोद्यौगिक घटना है अवश्य मध्यमवर्ग का विशालतम वर्ग होना एक सामाजिक प्रवृघि है किंतु ये आर्थिक, राजनैतिक सामाजिक और प्रौद्यौगिक परिवर्तन साहित्य से असंपृक्त नहीं है मीडिया के चलते सृजन का सार्वजनिकरण हुआ है। और यह प्रैस द्वारा किए गए सार्वजनिकरण से कहीं अधिक है। आशय यह है कि नई सदी की प्रौद्योगिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थितियों में साहित्य को एक नई वाई-२के स्थिति में ला खड़ा किया है। अंतर यह है कि यह परिवर्तन प्रैस की तुलना में अधिक औचक है, सिर पर एकदम सवार है और साहित्य जगत कम से कम हिंदी साहित्य जगत इसके लिए तैयार नहीं है। इसलिए उसे परिवर्तन, यह अवसर संकट जान पड़ता है। चूंकि उघरआधुनिकता का फ़ज़ी लॉज़िक उसे जंजाल जान पड़ता है और और साहित्य का नया सलीका उसे बेतुका जान पड़ता है। शब्द के साथ दृश्य व श्रव्य का जुडाव़ उसे अपसंस्कृति जान पड़ती है । यानि कुल मिलाकर सारा आंगन ही टेढ़ा है ।
वाई २के साहित्य अन्य क्षेत्र की वाई२के समस्या की भांति किसी संधि या संक्रमण काल की सुविधा नहीं देता अत: साहित्य के सुधी कर्मियों को गंभीरता से यह विचार करना कोगा कि प्रलाप एवं विलाप यदि आवश्यक है तो उसे समानांतर चलने दें किंतु उससे भी अधिक आवश्यक है साहित्य जगत को तैयार करना ,बदलती स्थितियों से अनुकूलित करना, और उसमें वह जिजीविषा व प्राणवायु फूंकना जिससे वह ४० चैनलों के दूरदर्शन पर साहित्य की गुंजाइश को खोज सकें इंटरनेट के महासमुंद्र में साहित्य का लाइट-हाउस को चिन्हित कर सकें ताकि साहित्य की यह परंपरा अगली पीढी को संग्रहालयों में नहीं जीवंत एवं अधिक विकसित रूप में मिले जहां वे इस विकास को अपने इतिहास में प्रैस की ही भांति एक अवसर के रूप में जाने समझें जिसका पूरा लाभ हमारी पूरी पीढ़ी ने उठाया
1 comment:
मजा आया आपकी पुरानी प्रेमिका से मिलकर;)
मुझे लगता है हमारा पीछे मुडकर देखना भी जरूरी होता है कभी -कभी
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