Friday, September 09, 2016

पराए युद्ध के घाव

कम ही लड़ाई हैं जो हम चुनते हैं
बहुधा हमें मिलती हैं
पराई लड़ाइयॉं
जो हम पर थोपी गई थीं
जिरहबख्‍तरों पर अगाध विश्‍वास वाले योद्धाओं ने।
लड़ाइयॉं जिन्‍हें हम जीतना नहीं चाहते
न ही हार से बचने के ही लिए लड़ रहे हैं हम
अपनी कहूँ
खड़ा हूँ इस बॉलकोनी पर अपने ही घर की
जिसे न जाने क्‍यों
कुछ संप्रभु मन घोषित कर चुके हैं
युद्ध का मैदान।
खड़ा हूँ दम साधे बस
सहमे भयभीत (पराजय से नहीं)
वरन
ये जानने कि
अगाध विश्‍वास वाली योद्धा
जब जिरहबख्‍तर उतारेगी
(जीत कर या पराजित, मुझे फर्क नहीं पड़ता)
तो खुद घायल होगी कि नहीं।

1 comment:

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'दो सितारों की चमक से निखरी ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...