शब्द जल्दी में हैं
कविता हो जाने की
सरे राह फिसल कर
बन जाते हैं चिट्ठी
व्यभिसार की
बालों में फिरती उँगलियों के पोरों पर
आ चिपकते हैं
चीकट झूठ
तुम अपनी कविताओ में
शिरोरेखा क्यों नहीं लगातीं
सारी शिरोरेखाएं बन गयीं
कीलें दीवार पर ठुंके
प्रशस्ति पत्रों की।
No comments:
Post a Comment