मैं हर शाम सीढि़यों से उतरते हुए
गढ़ता हूँ तुम्हें
निहायत महीनता से
एक एक उभार औ गहराई
मन के गुंजल और नैन बैन
एक एक कदम मिलाकर सावधानी से चलती हो साथ
खिलखिलाते मुस्कराते
फिर असहमत होते रुठते हैं
अच्छा चलते हैं कहकर फिर
मैं एक मोड़ के बाद
वापस चढ़ पड़ता हूँ सीढि़यॉं
ऐसे ही हर रात की सैर में गढ़ता मिलता बिछुडता हूँ मैं तुमसे।
गढ़ता हूँ तुम्हें
निहायत महीनता से
एक एक उभार औ गहराई
मन के गुंजल और नैन बैन
एक एक कदम मिलाकर सावधानी से चलती हो साथ
खिलखिलाते मुस्कराते
फिर असहमत होते रुठते हैं
अच्छा चलते हैं कहकर फिर
मैं एक मोड़ के बाद
वापस चढ़ पड़ता हूँ सीढि़यॉं
ऐसे ही हर रात की सैर में गढ़ता मिलता बिछुडता हूँ मैं तुमसे।
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