आंदोलन और प्रतिरोध का ककहरा किसी को स्कूल में नहीं सिखाया जाता जाहिर है मुझे भी नहीं सिखाया गया था, स्कूल ज्यादा से ज्यादा अनुशासित अच्छे बच्चे बनना सिखाते रहे हैं। प्रतिरोध की पहली ट्रेनिंग हम कुछ डायवरजेंट से युवा जब प्रो. अनिल सद्गोपाल और उनके साथियों के साथ जुड़े और शिक्षा पर काम करने लगे। नहीं ये लोग हमारे रोल मॉडल नहीं थे अपितु हम इनसे टकराकर ही सीख रहे थे। हम अक्सर इनकी दाढ़ी, इनकी शैली कभी कभी इनके पाखंड का मज़ाक भी उड़ाते पर फिर जब काम करते तो जीजान से करते। खूब पढ़ते खूब मेहनत करते। आंदोलनों के औजार और सैद्धांतिकी हमें इन्हीं लाेगों से मिल रही थी और अंदर अंदर हम इस बात के लिए एक किस्म कृतज्ञता भी महसूस करते थे।
लेकिन असल परीक्षा आई जब एक मुद्दे पर हम चंद युवा इन प्रोफेशनल आंदोलनकारियों के खिलाफ आ खड़े हुए अब इन लोगों से हासिल समझ को इनके ही विरुद्ध इस्तेमाल की जरूरत थी यह बौद्धिक चुनौती तो खैर ही थी एक इमोशनल आघात भी था। आज भी याद आता है कि प्रतिनिधिमंडल के रूप में हमें चंद प्रोफेसरों के एक समूह से मिलना था सबसे ही हमारे बेहद घनिष्ठ वैचारिक व आत्मीय संबंध थे, अपने ही खिलाफ चलते धरने में भी वे हमारे पास आते हाल चाल पूछते कभी कभी तो सलाहें भी देते... अब इनके ही खिलाफ लडाई करनी थी। मैं अन्याय का आरोप सामने रख रहा था और प्रोफेसर नज़मा सिद्दिकी ऑंसू भर भर इस आरोप पर रो पडी़ं। मन न जैसा कैसा सा हो गया। हमने नुक्कड़ नाटक तैयार किया इन सब शिक्षकों को बाकायदा बुलाया जिनके लिए हमारे मन में अगाध सम्मान था ये सब भी पूरे विश्वास से नाटक देखने आए, विश्वास ये कि असहमति मुद्दे पर है वरना हम एक हैं...नाटक में एक रोल नीलिमा का भी था जिसमें नीलिमा ने संवाद बोलना था ' 'ये साले साठसालिया हमारे संपनों का गला घोंटते हैं' संवाद बोला गया नाटक के प्रवाह में ठीक भी था पर मुझे याद है ये बुलाकर गाली देना कभी नहीं पचा न उन्हें न हमें ही।
तब से समझ आ गया था कि अौजार हथियार कितने भी क्यों न इकट्ठे कर लिए जाएं इन्हें इस्तेमाल का सबसे त्रासद समय तब होगा जब अपना हथियार अपनों पर इस्तेमाल होगा और किसे भी लगे खुद को ही घायल करेगा । हम सबके अपने सत्य होते हैं और अंत में घायल ही करता है पक्ष चाहे सत्य का हो या असत्य का।
लेकिन असल परीक्षा आई जब एक मुद्दे पर हम चंद युवा इन प्रोफेशनल आंदोलनकारियों के खिलाफ आ खड़े हुए अब इन लोगों से हासिल समझ को इनके ही विरुद्ध इस्तेमाल की जरूरत थी यह बौद्धिक चुनौती तो खैर ही थी एक इमोशनल आघात भी था। आज भी याद आता है कि प्रतिनिधिमंडल के रूप में हमें चंद प्रोफेसरों के एक समूह से मिलना था सबसे ही हमारे बेहद घनिष्ठ वैचारिक व आत्मीय संबंध थे, अपने ही खिलाफ चलते धरने में भी वे हमारे पास आते हाल चाल पूछते कभी कभी तो सलाहें भी देते... अब इनके ही खिलाफ लडाई करनी थी। मैं अन्याय का आरोप सामने रख रहा था और प्रोफेसर नज़मा सिद्दिकी ऑंसू भर भर इस आरोप पर रो पडी़ं। मन न जैसा कैसा सा हो गया। हमने नुक्कड़ नाटक तैयार किया इन सब शिक्षकों को बाकायदा बुलाया जिनके लिए हमारे मन में अगाध सम्मान था ये सब भी पूरे विश्वास से नाटक देखने आए, विश्वास ये कि असहमति मुद्दे पर है वरना हम एक हैं...नाटक में एक रोल नीलिमा का भी था जिसमें नीलिमा ने संवाद बोलना था ' 'ये साले साठसालिया हमारे संपनों का गला घोंटते हैं' संवाद बोला गया नाटक के प्रवाह में ठीक भी था पर मुझे याद है ये बुलाकर गाली देना कभी नहीं पचा न उन्हें न हमें ही।
तब से समझ आ गया था कि अौजार हथियार कितने भी क्यों न इकट्ठे कर लिए जाएं इन्हें इस्तेमाल का सबसे त्रासद समय तब होगा जब अपना हथियार अपनों पर इस्तेमाल होगा और किसे भी लगे खुद को ही घायल करेगा । हम सबके अपने सत्य होते हैं और अंत में घायल ही करता है पक्ष चाहे सत्य का हो या असत्य का।
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