एक फेसबुक मित्र ने सवाल उठाया कि उनकी नन्हीं साढ़े तीन साल की बच्ची घड़ी घड़ी मेकअप या श्रृंगार में रूचि लेती दिखती है तथा इसकी साफ व्याख्या समझ नही आ रही। वे खुद बहुत श्रृंगार पसंद नहीं इसलिए बच्ची अनुकरण में ऐसा कर रही हो इसकी संभावनाएं कम ही हैं, इसी तरह ''औरतें मर्दों को अच्छा दिखने के लिए सजती हैं'' का सामाजिक प्रलाप इतनी नन्हीं बच्ची पर लागू करने से वे झिझक रहीं थीं क्योंकि इतनी छोटी बच्ची में भला यौन चेतना कैसे स्वीकार की जाए। हम स्त्री सवाल पर संवेदना रखने वाले स्त्री निर्मिति को समाजीकरण से आकार लिया हुआ ही मानते रहे हैं किंतु खुद हमारे घरों के नन्हें पुरुष व नन्हीं स्त्रियॉं तमाम सचेत प्रयासों के बावजूद गुडि़यॉं, मेकअप पसंद करती दिखती हैं (या बालक बंदूक या हिंसक हथियारों के प्रति आकर्षित होते दिखते हैं)। क्या मसला कुछ कुछ प्राकृतिक भी है ?
इस संबंध में मुझे जोए क्विर्क की पुस्तक ''इट्स नॉट यू इट्स बायोलॉजी'' बहुत काम की लगती है। पुस्तक उद्विकास की द्ष्टि से मनुष्य के व्यवहार की पड़ताल करती है तथा यौनिकता व उद्विकास पर एक नई अंतर्दृष्टि देती है।
सच यह हैं कि हाँ नन्ही बच्चियां भी प्रतिलिंगी को आकर्षित करने के लिए ही ऐसा करती हैं... ये चेतन मन का व्यवहार नहीं है ये उसकी उद्विकास की नियति है। लंबी उद्विकास प्रक्रिया जेनेटिक स्तर पर ऐसी निर्मिति बनाती है अतः यह परिवेश की भूमिका का नकार नहीं है।
साढ़े तीन साल ही नहीं गर्भस्थ शिशु या जन्म के एकदम बाद के शिशु के व्यवहार के भी यौनिक पक्ष हैं, हाँ स्वाभाविक है यह सोशियो बायोलॉजी का वह अंश ही है जिसे जेनेटिक कहा जाता है किन्तु genes स्वयं में केवल सूचना रसायनों की श्रंखला भर हैं जो प्रत्येक प्रजाति ने उद्विकास क्रम में तय कर ली हैं तथा प्रत्येक परिवेशगत घटना चाहे वह प्रदूषण हो जुकाम या बलात्कार... ये इन सूचना श्रृंखलाओं में बदलाव ले आती है।
सामान्य स्त्री व्यवहार पुरुष जीन के धारण के लिए सर्वोपयुक्त पात्र होने का विज्ञापन तथा सामान्य पुरुष व्यवहार उपयुक्त जीन वाहक तथा जन्मोपरांत बेहतर पालक होने का विज्ञापन होता है।
समाजीकरण की भूमिका इस स्वस्थ गर्भधारक/ अच्छी जीन/अच्छे पालक के अर्थ निर्धारण में है।
ऐसा कोई जीव वैज्ञानिक नियम नहीं है की जीन पालक से ही ली जाएगी... अलग अलग भी ली जा सकती है।
नन्ही बच्ची के व्यवहार का यौनिक पक्ष ये है की वह मैं बेहतर पात्र हूँ का विज्ञापन कर रही है... परिवेश व समाजीकरण से वह बाद में यह सीख सकती है की सर्वश्रेष्ठ जीन व पालक प्राप्त करने के इस विज्ञापन की भूमिका वह कम मानने लगेगी तथा अन्य व्यवहारों (मसलन मोर की पूंछ के समकक्ष मनुष्य व्यवहार) पर ज्यादा निर्भर करेगी।
इस संबंध में मुझे जोए क्विर्क की पुस्तक ''इट्स नॉट यू इट्स बायोलॉजी'' बहुत काम की लगती है। पुस्तक उद्विकास की द्ष्टि से मनुष्य के व्यवहार की पड़ताल करती है तथा यौनिकता व उद्विकास पर एक नई अंतर्दृष्टि देती है।
सच यह हैं कि हाँ नन्ही बच्चियां भी प्रतिलिंगी को आकर्षित करने के लिए ही ऐसा करती हैं... ये चेतन मन का व्यवहार नहीं है ये उसकी उद्विकास की नियति है। लंबी उद्विकास प्रक्रिया जेनेटिक स्तर पर ऐसी निर्मिति बनाती है अतः यह परिवेश की भूमिका का नकार नहीं है।
साढ़े तीन साल ही नहीं गर्भस्थ शिशु या जन्म के एकदम बाद के शिशु के व्यवहार के भी यौनिक पक्ष हैं, हाँ स्वाभाविक है यह सोशियो बायोलॉजी का वह अंश ही है जिसे जेनेटिक कहा जाता है किन्तु genes स्वयं में केवल सूचना रसायनों की श्रंखला भर हैं जो प्रत्येक प्रजाति ने उद्विकास क्रम में तय कर ली हैं तथा प्रत्येक परिवेशगत घटना चाहे वह प्रदूषण हो जुकाम या बलात्कार... ये इन सूचना श्रृंखलाओं में बदलाव ले आती है।
सामान्य स्त्री व्यवहार पुरुष जीन के धारण के लिए सर्वोपयुक्त पात्र होने का विज्ञापन तथा सामान्य पुरुष व्यवहार उपयुक्त जीन वाहक तथा जन्मोपरांत बेहतर पालक होने का विज्ञापन होता है।
समाजीकरण की भूमिका इस स्वस्थ गर्भधारक/ अच्छी जीन/अच्छे पालक के अर्थ निर्धारण में है।
ऐसा कोई जीव वैज्ञानिक नियम नहीं है की जीन पालक से ही ली जाएगी... अलग अलग भी ली जा सकती है।
नन्ही बच्ची के व्यवहार का यौनिक पक्ष ये है की वह मैं बेहतर पात्र हूँ का विज्ञापन कर रही है... परिवेश व समाजीकरण से वह बाद में यह सीख सकती है की सर्वश्रेष्ठ जीन व पालक प्राप्त करने के इस विज्ञापन की भूमिका वह कम मानने लगेगी तथा अन्य व्यवहारों (मसलन मोर की पूंछ के समकक्ष मनुष्य व्यवहार) पर ज्यादा निर्भर करेगी।
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