वक़्त कैसे कैसे दिन दिखाता है, किसे पता था कि जिस जेएनयू को सदा रकीबी नज़र से देखा, हर जेएनयू वाले को जब मौका मिला याद दिलाया कि लाख अच्छा हो पर जेएनयू इस शहर के साथ अपने व्यवहार में टापूवादी है। उसी जेएनयू के पक्ष में दम लगाउंगा। मेरे विद्यार्थी कन्फ्यूज़ न हो जाएं इसलिए इस रकीब पर उमड़ते प्यार की सफाई दी जाए।
मेरा प्यार अपनी इस जान दिल्ली शहर से है सो है उससे कोई बेवफाई नहीं। जेएनयू में टापू रहकर बनने की एक बीमारी रही है माने शहर के दुःख दर्द में फिलॉन्थ्रोपी टाइप या मुद्दे के समर्थन में जेएनयू कैम्पस से शहर की ओर निकलता है कभी कभी पर वो अपनी पहचान को शहर से एकात्म नहीं करता, जैसे चांदनी चौक करता है, मेरा दिल्ली कॉलेज (ज़ाकिर हुसैन) या दिल्ली विश्वविद्यालय करता है। जेएनयू मुनीरका भर को अपनी पहचान में जुड़ने दे तो दे वर्ना वो एक टापू होना ज्यादा पसंद करता है।
ये न समझें कि इस बेरुखी का मतलब है कि दिल्ली भी उसे तन्हा छोड़ देती है, न जी मेरी महबूबा इस जेएनयू को न केवल भरपूर तवज्जो देती है बल्कि दरअसल उस पर जान छिड़कती है। (तो महबूबा के आशिक़ होने की वजह से जेएनयू हुआ न रकीब) इस तरह यह शहर इस टापू को अपनी पहचान में बाकायदा शामिल मानता है और सच्चाई तो यह है कि जेएनयू को जेएनयू होने, बने रहने देने में इसके दिल्ली में होने की बड़ी भूमिका है और अब यह दिल्ली के लिए भी एक परीक्षा की घडी है कि उसकी इस पहचान पर जो संकट है, उसे यह सहारा दे। चाहे खुद जेएनयू में कितनी ही बेमुरव्वती क्यों न दिखाई हो लेकिन ये दिल्ली की अपनी ग़रज़ है कि वह कुक्कुटों को इस खूबसूरत चमन को बर्बाद न करने दे।
तो मैं जेएनयू के लिए उतना नहीं अपने महबूब दिल्ली शहर के लिए ज्यादा इस बेचैनी में हूँ।
लेकिन अब एक सवाल उनके भी लिए जिनका जेएनयू से रकीब का नहीं महबूबा का रिश्ता है, सोचो दोस्तो अगर ऑक्सफ़ोर्ड या कैंब्रिज पर यह हमला होते तो उनके शहर अपने विश्वविद्यालय को तन्हा छोड़ देते क्या? आपने अपने पूरे देश समाज से प्यार किया है लेकिन खुद दिल्ली शहर से वो नाता नहीं बनाया। जब इससे भी ज्यादा नृशंस ताकतों ने दिल्ली कॉलेज को बंद कर दिया था तो यह शहर पूरी ताकत से इसके पक्ष में आ खड़ा हुआ था, दिल्ली की मोहब्बत जेएनयू पर बरकरार है पर इकतरफा मोहब्बत ज्यादा इम्तिहान लेती है, इस शहर की मोहब्बत को लौटाने की जिम्मेदारी लो जेएनयू वालों।
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मेरा प्यार अपनी इस जान दिल्ली शहर से है सो है उससे कोई बेवफाई नहीं। जेएनयू में टापू रहकर बनने की एक बीमारी रही है माने शहर के दुःख दर्द में फिलॉन्थ्रोपी टाइप या मुद्दे के समर्थन में जेएनयू कैम्पस से शहर की ओर निकलता है कभी कभी पर वो अपनी पहचान को शहर से एकात्म नहीं करता, जैसे चांदनी चौक करता है, मेरा दिल्ली कॉलेज (ज़ाकिर हुसैन) या दिल्ली विश्वविद्यालय करता है। जेएनयू मुनीरका भर को अपनी पहचान में जुड़ने दे तो दे वर्ना वो एक टापू होना ज्यादा पसंद करता है।
ये न समझें कि इस बेरुखी का मतलब है कि दिल्ली भी उसे तन्हा छोड़ देती है, न जी मेरी महबूबा इस जेएनयू को न केवल भरपूर तवज्जो देती है बल्कि दरअसल उस पर जान छिड़कती है। (तो महबूबा के आशिक़ होने की वजह से जेएनयू हुआ न रकीब) इस तरह यह शहर इस टापू को अपनी पहचान में बाकायदा शामिल मानता है और सच्चाई तो यह है कि जेएनयू को जेएनयू होने, बने रहने देने में इसके दिल्ली में होने की बड़ी भूमिका है और अब यह दिल्ली के लिए भी एक परीक्षा की घडी है कि उसकी इस पहचान पर जो संकट है, उसे यह सहारा दे। चाहे खुद जेएनयू में कितनी ही बेमुरव्वती क्यों न दिखाई हो लेकिन ये दिल्ली की अपनी ग़रज़ है कि वह कुक्कुटों को इस खूबसूरत चमन को बर्बाद न करने दे।
तो मैं जेएनयू के लिए उतना नहीं अपने महबूब दिल्ली शहर के लिए ज्यादा इस बेचैनी में हूँ।
लेकिन अब एक सवाल उनके भी लिए जिनका जेएनयू से रकीब का नहीं महबूबा का रिश्ता है, सोचो दोस्तो अगर ऑक्सफ़ोर्ड या कैंब्रिज पर यह हमला होते तो उनके शहर अपने विश्वविद्यालय को तन्हा छोड़ देते क्या? आपने अपने पूरे देश समाज से प्यार किया है लेकिन खुद दिल्ली शहर से वो नाता नहीं बनाया। जब इससे भी ज्यादा नृशंस ताकतों ने दिल्ली कॉलेज को बंद कर दिया था तो यह शहर पूरी ताकत से इसके पक्ष में आ खड़ा हुआ था, दिल्ली की मोहब्बत जेएनयू पर बरकरार है पर इकतरफा मोहब्बत ज्यादा इम्तिहान लेती है, इस शहर की मोहब्बत को लौटाने की जिम्मेदारी लो जेएनयू वालों।
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