फिलहाल काफी पंकमय अनुभव कर रहा हूँ। लेक्चररी की एक छोटी सी लड़ाई लड़ रहा था- हार गया। पदमावती का रूप पारस था जो छूता सोना हो जाता और जैसा कि लाल्टू अन्यत्र संकेत करते हैं इस विश्वविद्यालयी दुनिया में काफी कीचड़ भरा है। इसे भी जो छूता है पंकमयी हो जाता है। देखते हैं शायद इस ब्लॉग सरोवर के स्पर्श से विरेचन (कैथार्सिस) हो जाए। आमीन