Tuesday, January 08, 2008

हिन्‍दी की कन्‍याएं जींस पहनकर तमिल फिल्‍मों की एक्‍स्‍ट्रा क्‍यों नजर आती हैं

सही कहें तो हमें नहीं पता कि ऐसा क्‍यों होता है।। पर क्‍या ऐसा होता है यानि क्‍या जींस पहनकर यानि आधुनिक फैशन के लिहाज से हिदी वालियॉं और वाले एकदम भैणजी हैं- तो हम झट से चुप्‍पी मार जाएंगे वरना पोलिटिकली करेक्‍ट मित्रों का मोहल्‍ला हमें  कहीं का न छोड़ेगा। पर साफ करें कि ये शब्‍दाभिव्‍यक्ति कहानीकार उदयप्रकाश ने अपनी एक कहानी में रखी है।

विधाता गहरे असमंजस ऊब और थकान के हाल मे रहा होगा जब उसने हिन्दी डिपार्टमेंट की इन कन्याओ की रचना की होगी ।वह इस सृष्टि के किसी अन्य प्राणी को बनाना चाह रहा होगा मसलन नीलगाय जिराफ हिप्पोपोटामस घडियाल हाथी मेढक......

उन्हे देखकर लगता थाकि जैसे अभी उडनखटोला, अनमोल घडी, बावरे नैन, बरसात जैसी फिल्मों का ज़माना चल रहा है . जो इनमे सबसे आधुनिक ह्योती वे पटरी से खरीदी गयी सस्ती जींस की रेडीमेद पेंट  के साथ कोई भी अनमैचिंग टॉप या शर्ट पहन लेती और तमिल फिल्मो की एक्स्ट्रा नज़र आती या फिर अधिक से अधिक मेरा साया फिल्म की हीरोईन साधना जिसके जूडे के भीतर स्टील का गिलास औन्धा छिपा होता.

(पीली छतरी वाली लड़की, पृष्‍ठ 48)

 

तो जब एक जमावड़े में उदय मिले तो ये एक मजेदार चर्चा थी। बाद में बहुत देर तक मैं उनके संवाद को डिस्‍क्‍लेमर संवाद के रूप में ही याद करता रहा। 04-01-08_1603 उन्‍होंने अपने संवाद की शुरूआत ही एक डिस्‍क्लेमर से की- मैं समाजशास्‍त्री नहीं हूँ लेखक हूँ मुझसे विश्‍‍लेषण की, पोलिटिकल करेक्‍टनेस की उम्‍मीद न करें वगैरह वगैरह...बाद में यह भी कहा कि मैं तो अदना सा लेखक हूँ मेरे लिखें में दलित विमर्श न पढें कोई और विमर्श भी न पढें वगैरह वगैरह.. ये भी कि लेखक बहुत बेचारा होता है पिसता है, उसे तड़का लगाना पड़ता है, उसका सलमान रश्‍‍दी कर दिया जाता है तसलीमा कर दिया जाता है वगैरह वगैरह..।

किसी दलित विमर्श के पैरोकार ने उनसे ऊपर की पंक्तियों की सफाई मांगी कि भई ये क्‍या सौंदर्यशास्‍त्र है हिन्दी डिपार्टमेंट की इन कन्याऐं और तमिल फिल्‍मों का एक्‍स्‍ट्रा- इन नस्‍लीय तथा 'आपत्तिजनक' अभिव्‍यक्तियों पर कहते क्‍यों नहीं कुछ - उदयप्रकाश फिर से अपने डिस्‍क्‍लेमर की आड़ में चले गए। ये डिस्‍क्‍लेमर कुछ को ईमानदारी व साहस लगा तो कुछ अन्‍य इससे क्षुब्‍ध नजर आए।

व्‍यक्तिगतरूप से हमारी राय है कि विमर्शात्‍मक चीरफाड़ यानि लेखन दलित-विरोधी है कि स्त्री-विरोधी, मार्क्‍सवादी है कि संघी इसकी शिनाख्‍त करने के हक से पाठक को महरूम नहीं रखा जा सकता और न ही लेखक अपने लिखें की जबाबदेही से सिर्फ इसलिए मुक्‍त हो जाता है कि वह तो लेखक है समाजशास्‍त्री नहीं किंतु यह भी सही है कि पोलिटिकल करेक्‍टनेस अधिक से अधिक एक जेस्‍चर है इसे यथार्थ मांग की तरह नहीं रखा जाना चाहिए।

यदि उदयप्रकाश (या उनके किसी पात्र को) हिन्‍दी डिपार्टमेंट की कन्‍याएं फू‍हड़ लगती हैं तो वे लिखेंगे ही पर जब वे लिखेंगे तो वह पढ़ा भी जाएगा और तब उसकी सफाई भी मांगी जाएगी और तब ये सफाई काफी नहीं रहेगी कि मैं तो केवल लेखक हूँ मुझे गलत मत समझो....

3 comments:

Rachna Singh said...

यदि टिप्पणियाँ और पाठक चाहते हैं तो विष्ठा पर लिखिये । उसके पर्यायवाची शब्द ढूँढिये ......
ये क्या नारी विषय या उसकी समस्याओं पर लिख रहे हैं ?
http://ghughutibasuti.blogspot.com/2007_11_01_archive.html
for all such writings and writers the above article holds good

सुजाता said...

हाँ सही बात कही मसिजीवी जी । आलोक धनवा वाले प्रकरण मे भी यही बात उठी थी कि लेखक एक हम सब जैसा ही साधारण आदमी है यह कह कर क्या वह आरोपों और सवालों से बच जा सकता है।

Anonymous said...

masijiviji,
udayprakash par aapki tippani parhi.lekhak to apni baat likh kar ussse alag ho jaata hai.ham har baat ka jawaab usise kyon pana chahte hain? lekhak jo bhi likhta hai kisi vishesh sandarbh men likhta hai. kripaya unke likhe ko sandarbh se kaat kar na dekhen.
prabhatranjan