सामुदायिक ब्लॉगों का चलन हिन्दी चिट्ठासंसार के लिए नया नहीं है। चिट्ठाचर्चा, अक्षरग्राम एक अरसे से चालू हैं। यही नहीं नारद के रूप में एक एग्रीगेटर भी रहा है जो 'सामुदायिक' था (है तो अब भी किंतु उसकी भूमिका काफी सीमित हो गई है) अत: सामुदायिक होने की परिघटना नई नहीं है किंतु हाल फिलहाल में सामुदायिक ब्लॉगों का चलन कुछ बढ़ गया है। दरअसल एग्रीगेटरों की आपसी प्रतियोगिता की तार्किक परिणति चिट्ठों की आपसी प्रतियोगिता के रूप में हुई है तथा कई सामुदायिक ब्लॉग शुरू हुए हैं, भड़ास विशेष रूप से उल्लेख्य है। रिजेक्ट माल, इयत्ता, मोहल्ला, हिन्द युग्म आदि को भी जोड़ लें तो यह बाकायदा एक फिनामिना कहा जा सकता है। कई अन्य ब्लॉगरों ने अन्यों से आग्रह पर पोस्टें लिख्ावानी भी शुरू की हैं।
सहज सा सवाल है कि इस फिनामिना के निहितार्थ क्या हैं। भड़ास साफ तौर पर ऐसे पत्रकारों के लिए मंच बनकर उभरता है जो स्वयं में विशेष सक्रिय ब्लागर नहीं हैं पर यहॉं अपनी बात कह सकते हैं। मोहल्ला सदस्य ब्लॉगरों के लिए 'मुद्दे' के लिए और अपने ब्लॉग के साथ साथ अपनी पोस्ट को ठेलने के लिए अतिरिक्त ब्लॉग के रूप में जम गया है। एक मायने में मोहल्ला और भड़ास मानों एक दूसरे के पूरक ब्लॉग हैं। अंदर उमड़ते घुमड़ते की एकाकी अभिव्यक्ति के लिए भड़ास और अधिक औपचारिक व सरोकारी कहन के लिए मोहल्ला। इसीलिए जब सरोकारी लेखन के प्रयास भड़ास पर किए जाने के प्रयास हुए तो इसके प्रतिरोध भड़ास में ही लिखा गया। नीलिमा के लेख को यशवंत ने भडास पर दिया तब भी कहा गया कि भड़ास को भड़ास रहने दें- आशय यह कि भड़ास, भड़ास टाइप लेखन के लिए और मोहल्ला अविनाश टाईप लेखने के लिए तैयार सामुदायिक मंच रहे हैं। पर ये तो सामने दिखती सच्चाई भर है..इसके पीछे नए सामुदायिक लेखन के ट्रेंड के खतरे भी दिखाई देते हैं। पहला है घेटोआइजेशन का। 'घेटो' के घेटो होने में अपरिचित जगह में अपने जैसों को इकट्ठा कर अपनी असुरक्षाओं से कोप करने का भाव होता है। जो पूरे शहर में डरा डरा सा घूमता है क्योंकि वह वहॉं खुद को अजनबी सा पाता है, अल्पसंख्यक पाता है या शक की निगाह में पाता है वह जैसे ही अपनी बस्ती में आता है जो उसने बसाई ही है 'अपने जैसों' की वहॉं वह फैलता है कुछ ज्यादा ही फैलता है- गैर आनुपातिक होकर। पहली पीढ़ी के प्रवासी महानगर की सुखद एनानिमिटी के आदी नहीं होते और उससे बचकर भागते हैं और वह छोटी सी बस्ती ही उन्हें सुकून देती है जहॉं एनानिमिटी की जगह 'पहचान' की गुजाइश होती है इस तरह महानगर में घेटो बसते हैं- ओखला, तैयार होता है, जाफराबाद, बल्लीमारान और मुखर्जीनगर।
सवाल ये है कि 'मोहल्ला' या 'भड़ास' के अंतर्जालीय घेटो बनने से किसी अपराजिता, किसी मसिजीवी को भला कया दिक्कत होनी चाहिए। शायद कुछ नहीं। इन सामुदायिक बलॉगों पर गैर बिहारी (पूर्वांचलियों) का प्रवेश वर्जित तो नहीं है (न ओखला या जाफराबाद में मुख्यधाराईयों का है, ये वर्जना उनके ढांचे से खुद व खुद उपजती है) पर हर वह शहर जिसमें घेटो बसते हैं, वह इन घेटों की वजह से सवालिया निशानों की जद में आता है क्योंकि ये उन सुरक्षाओं के अभाव से उपजते हैं जिनका वादा किसी शहर के शहर होने में ही निहित है। यही अंतर्जालीय शहर यानि हिन्दी ब्लॉगजगत पर भी लागू होता है। हम शायद इतना लोकतांत्रिक स्पेस बनाने में अब तक असफल रहे हैं कि बिहारी मित्र आपस में ही लिंकन कर, कमेंटकर, और अब सामुदायिक ब्लॉगों में प्रतिभागिता कर शहर में शहर, घेटो बसाने के लिए विवश न हों जाएं। वैसे हो सकता है कि यह बस प्रक्रिया का आरंभिक चरण हो समय बीतते न बीतते सब इस शहर में खप जाएंगे और शहर की छांवदार एनानिमिटी उन्हें भी सहज लगने लगेगी और वे ये भी देख पाएंगे कि जाफराबाद की गलिया बाकी शहर की गलियों से कहीं अधिक तंग व सीलन भरी है।
4 comments:
आपकी चिंता जायज़ है लेकिन किसी अपराजिता के ब्लॉग दुनिया में कथित बिहारवाद के खिलाफ तनकर खड़े होने के क्या निहितार्थ हैं?
चिंताए सही हैं.. पर मामला ज़रा उलझा है.. रवीश का जो लिंक दिया है आप ने .. उसमें तीसेक कमेंट्स हैं.. बहस गर्म है..
मुझे लगता है अभी जो दिख रहा है वह पूरा सच नहीं है..अभी तो आकाश खुल रहा है.. न जाने क्या क्या दिखने वाला है.. राय बनाने में हड़बड़ी न की जाय!
दो बार पढ़ा लेकिन समझ नहीं पाया कि कहना क्या चाह रहे हैं? थोड़ी बुद्धि कम है, एंटीना देर से रिसीव करता है। लेकिन कुल मिलाकर बढ़िया लिखा। नामवर सिंह टाइप का। विद्यार्थी को समझ में न आए और शब्दजाल देखकर वाह वाह कह उठे। अध्यापन के यही फायदे हैं।
खैर, मुझे लगता है कि नियमित ब्लाग लेखन करने वाले पांच सौ से ज्यादा लोग नहीं होंगे, हिंदी में। और जब ये संख्या एक लाख पर पहुंच जाए तो इस तरह के एनालिसिस की जरूरत पड़ेगी। भड़ास और मोहल्ला एक सचेतन कोशिश है हिंदी ब्लागिंग का फैलाने और लोगों के मन में ब्लागिंग के प्रति मोह पैदा करने की। यह बात उन दर्जन भर अच्छाइयों में से है जो ये ब्लाग कर रहे हैं।
और दोस्त, आदमी हमेशा वहीं सहज महसूस करता है जहां वह अपने मिजाज व विचार के लोगों को पाता है। आप भी हम भी। तो इसमें गलत क्या है।
अभी अपन के देस का माहौल ऐसा नहीं है कि आदमी रेडीमेड लोकतांत्रिक तैयार होकर मां के पेट से निकले। उसे यहीं लोकतंत्र को समझना पड़ता है और लोकतांत्रिक बनना पड़ता है।
और जो हालात हैं उनमें कोई लोकतांत्रित तो कतई नहीं बन सकता, वो सहज मानवीय बन कर जी सके, यही बहुत है, जो कि हम कर रहे हैं।
चलिये, बहस की शुरुआत की है आपने। पर अभय तिवारी जी की बात को ध्यान से पढ़िए, राय बनाने में हड़बड़ी न की जाये।
ओके बाय
जय भड़ास
यशवंत
http://bhadas.blogspot.com
ज़नाब, हर जानवर झुण्ड बनाकर रहता है. इन्सान भी तो एक जानवर ही है. बस हमने भी कुछ झुण्ड बना लिये है. अपने नुक्कड़ों के सिकन्दर हैं हम.
बकौल अभय तिवारी आकाश अभी खुल ही रहा है. हम भी इन्तजार करते हैं आप भी इन्तजार कीजिये.
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