हमारे एक सहयोगी हैं, इतिहास पढ़ाते हैं हमें भी पढ़ा गए। आज मिले तो बोले कि भई सारी जिंदगी हवाई चप्पल तक को पूरे घिसने तक पहनी, टूट जाए तो बिना शर्म मोची से गंठवा लेते रहे या स्ट्रैप बदलकर भी इस्तेमाल करते रहे। लेकिन अब कल बच्चे के स्कूल के जूते के फीते के कोने बिखर जाने की वजह से नए फीते लेने जूते की दुकान पर पहुँचा तो शोरूम के मालिक ने बहुत ही हैरानी से देखा मानो किसी दूसरे ग्रह से आया हूँ और कहा कि नए जूते ही ले लो 145 के ही तो हैं। अजीब बात है चाहिए फीते खरीदूं पूरे जूते ।।
मैंने नही पूछा कि इन अध्यापक मित्र ने फीते खरीदे कि जूते, इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। यहॉं मूल बात तो ये है कि बाजार अब कितना दुस्साहसी है वह जरूरत, सस्ता, सुंदर, टिकाऊ, जैसे शुद्ध बाजार के ही मूल्य तक को बाजार से खदेड़े दे रहा है। ये तो चलो जूते व फीते जैसी सस्ती चीज थी पर तनिक कार खरीदने ही पहुँच जाइए और पूछिए कि इंजिन खुलने से पहले कितने किलोमीटर चल जाएगी...सेल्समैन भी इस सवाल को ऐसे खारिज करते अंदाज में ग्रहण करेगा (...कि पता नहीं कैसे कैसे लोग कार खरीदते हैं अरे लाख किलोमीटर तक ये ही कार रखेगा क्या...बदलेगा नहीं)
उपभोक्ता से उपभोक्ता न होने की आजादी तो खैर अब छीन ही ली गई है पर खुद बाजार के उपभोकता मूल्य भी उपभोकता को तय नहीं करने दिए जा रहे हैं। यदि आप जीवन भर से संजाऐ कमाए मूल्यों वाले ग्राहक बने रहना चाहते हैं तो आप पिछड़े करार दे दिए जाते हैं झट से। जरूरत फीते की हो तो भी जूते खरीदो...नहीं तो पिछडा हुआ कहलाओ।
6 comments:
यथार्थ। अब क्रेता और विक्रेता के संबंध पहले जैसे नहीं रहे जब विक्रेता क्रेता को इज्जत की नजर से देखता था। आपको एक सच्ची बात बताता हूँ। कुछ दुकानें ऐसी हैं जहाँ आप सामानों को देखकर ही छोड़ दिए तो दुकानदार चिल्लाने लगता है कि जब नहीं खरीदना था तो मेरा समय क्यों व्यर्थ किया। वह पसंद और नापसंद की बात नहीं करते हैं।
आपकी बात बहुत सही है । कोई जमाना था कि फाउन्टेन पैन भी सुधारे जाते थे । अब तो घड़ी सुधारना भी हास्यास्पद हो रहा है । वस्तु बिगड़ी तो फैंक दो । ना भी बिगड़ी तो फैंककर नयी खरीद लो । वैसे छोटी जगहों में आज भी यह सब ठीक करने का काम हो जाता है । आपकी पुरानी दिल्ली में भी शायद होता होगा । मैं तो बच्चों से कहती हूँ जो दुरुस्त कराना हो यहाँ ले आओ ।
घुघूती बासूती
सही कहा आपने... मध्यम वर्गीय लोगों को आये दिन इस तरह शर्माना पड़ता है!
दरअसल आई टी क्षेत्र में लोगों को इतना पैसा मिलता है कि वे मुंहमांगे दाम में चीजें खरीद लेते हैं और इस तरह से बाजारों/विक्रेताओं को भी आदत पड़ जाती है।
( यहां आई टी वाले मित्र नाराज ना हों,मैं यह नहीं कह रहा कि उन्हें पैसे फालतू में ही या उनकी योग्यता से ज्यादा मिलते हैं)
हमने तो मन बना लिया है कोई कुछ कहे-हम पिछड़े ही ठीक है मगर बाजार के साथ नहीं बहेंगे.
बहुत अच्छा मुद्दा लिया.
do take ki baat
do take ki baat
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