हमने कभी शेयर बाजार में दमड़ी का निवेश नहीं किया पर इसका कोई सैद्धांतिक कारण नहीं है सीधी सी वजह है कि गांठ में फालतू दमड़ी रही ही नहीं इसलिए निवेश नहीं खर्च करते हैं। इसके बावजूद शेयरों के भाव उठने गिरने से जो ग्राफ बनता हे उसे देखने में अच्छा लगता है। वो संतरी रंग का आरेख ऊपर उठता और फिर गिरता दीखता है कितना अच्छा खेल है। जिसके ढेर पैसे लगे होते होंगे उनके दिल की धड़कन भी ऊपर नीचे होती होगी हमें तो वो बादलों में बन रही आकृति सा लगता है, इसलिए नीचे गिरता सा दिखता है तो मन करता है कि वाह क्या भारत के नक्शे के नीचे की आकृति बन रही है, गिरते गिरते पूरे कन्याकुमारी तक पहुँचे तो मजा आए।
ये बाजार भाव केवल शेयरों के ही ऊपर नीचे नहीं होते वरन कुछ ऐसी मदों के भी होते हैं जिनसे हमें बहुत फर्क पड़ता है। मसलन हिन्दी को ही लीजिए। कई सालों से बारहवीं पास करके आए बच्चें को बीए में प्रवेश देते रहे हैं। वो गर्व या चिंता से अपनी अंकतालिका हमें थमाते हैं और हम उसे परामर्श देते हैं -अरे आपके तो हिन्दी इलेक्टिव में 80 हैं- हिन्दी आनर्स ले लो अच्छा करोगे। वो करेले के सूपपान का सा कड़वा मुँह बनाता है.. न जी न हम तो बीए पास ही लेंगे- हिन्दी आनर्स नहीं, संस्कृत भी नहीं..अरबी नहीं फारसी नहीं और बांग्ला तो कतई नहीं (हमारे यहॉं यही भाषाएं पढ़ाई जाती है पर विश्वास है कि अन्य भारतीय भाषाओं की हालत इनसे बेहतर नहीं ही होगी)। अंगेजी आनर्स मिलेगा नहीं ... साल दर साल यही दोहराया जाता है। भारतीय भाषाओं का बाजार भाव का आरेख हर बार अरब सागर से शुरू होता है और कन्याकुमारी जाकर रुकता हे फिर ऊपर नहीं चढ़ता। जब हम विद्यार्थी हुआ करते थे तो विज्ञान इस दुनिया के टिस्को व रिलायंस होते थे, अब पता नहीं कि शेयर बाजार में टिस्को की हालत कैसी है पर दिल्ली विश्वविद्यालय में तो बीएससी के ग्राहक गायब हैं। बस बीकाम या बीए अर्थशास्त्र ही हैं जो चुम्बक की तरह सारे मलाई खींच ले जाते हैं। हिन्दी को छाछ भी मिल जाऐ तो गनीमत। ऐसे में बंगाली-उर्दू- संस्कृत को क्या मिलता होगा इसका अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं। इतना जान लें कि पहली ही कट आफ में लिखकर टांग दिया गया है कि अरेबिक, फारसी व बंगाली में हर व्यक्ति के लिए दाखिला खुला है।
वैसे अनुभव ये भी बताता है कि हिन्दी ने खुद को बेहतर पोजिशन कर लिया है अब 50 प्रतिशत पर नहीं 60 प्रतिशत पर प्रवेश मिलता है। दरअसल बहुत से विद्यार्थियों खासकर ठीकठाक चेहरे मोहरे वाली लड़कियों को लगने लगा है कि टीवी पत्रकार बनने के लिहाज से हिन्दी ली जा सकती है (यूँ भी पत्रकारिता में भूत चुड़ैल, सनसनी आदि ही तो करना है कौन महान योग्यता चाहिए ) ऐसे में पूरे साल में दो विद्यार्थी भी ऐसे मिल जाएं जो साहित्य पढ़ने के इरादे से बीए में आए हों तो हम निहाल हो जाते हैं।
5 comments:
हूं. पढ़ा. लेकिन दुखी होने की ऐसी कोई वजह नहीं दिख रही. देश के फलक पर बड़ी चिंताओं के ये सहज और छोटे लक्षण हैं. नहीं हैं?
ऐ पी जे अब्दुल कलाम साहब का भी यही कहना था कि विज्ञान की शिक्षा सही पटरी पर नहीं चल रही है क्योंकि सभी प्रोफेशनल कोर्सेस के पीछे भाग रहे हैं. आप भाषा के विद्यार्थियों के अकाल की बात करते हैं. ये bataiye कि इन विद्यार्थियों के लिए job opportunities kitnee हैं और कैसे badhai जा saktee हैं?
बीए हिंदी का सिलेबस पूरा बदलना पड़ेगा, तब जाकर वह प्रासंगिक होगा। उसमें दो परचे इंगलिश के, दो परचे ग्लोबलाइजेशन के, एक परचा इकोनोमी का लगाइये। तब जाकर मलाई आयेगी प्रभू।
और शेयर बाजार में निवेश करना हानिकारक है।
पर निवेश ना करना ज्यादा हानिकारक है।
आपने बिलकुल ठीक पकड़ा है, हिन्दी आनर्स के बाद कारपोरेट आपको नौकरी देगा और अब शिक्षा का अर्थ केवल एक डिग्री पाना या नौकरी पाने से ज्यादा रह भी तो कहां गया है।
अब क्या कहूं... टीवी पत्रकारिता शायद बचाने में सक्षम हो...
गणित नहीं पढ़ा होता तो हिन्दी या संस्कृत ही पढता इसमें कोई दो राय नहीं... और हाँ पढूंगा तो अभी भी डिग्री भी लूँगा पर शायद घर बैठे ही ले पाऊं... आपकी कक्षा में न पढ़ पाऊंगा :(
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