शब्द की बेगारी करते करते अर्थ बूढ़ा हो चला था। एक शाम एक शब्दकोश में बैठा वह विचार कर रहा था कि आखिर उसने अपने जीवन में पाया क्या। शुद्ध बेगारी। न वेतन न भत्ता। अगर देखा जाए तो शब्द जो कुछ भी करता है उसमें असली कमाल तो अर्थ का ही होता है पर चमत्कार माना जाता हे शब्द का। अर्थ को कोई नहीं पूछता- कतई नहीं। ये तो साफ साफ गुलाम प्रथा है, पूरा जीवन झौंक दिया , न कोई पेंशन न सम्मान। अर्थ को लगा कोई संघर्ष शुरू करना जरूरी है।
उसने तय किया सवेरे वह हड़ताल करेगा- शब्द के विरुद्ध अर्थ की हड़ताल। उसे हैरानी हुई- ये ख्याल उसके दिमाग में अब तक क्यों नहीं आया। वह तो सारी दुनिया का चक्का जाम कर सकता है। सुबह जब लोग बोलेंगें तो इसका कोई अर्थ नहीं होगा। अखबार, टीवी, रेडियो, नेताओं के भाषण, मुहल्ले की औरतों की बातचीत, राजनयिकों के वार्तालाप.... अरे मेरी सत्ता तो सर्वव्यापक है। बेचारे लेखक, कवि...ये तो मारे ही जाएंगे। अर्थ ठठाकर हॅंस पड़ा। शब्दकोश को मुखातिब होकर उसने कहा- आज आज की बात है देखना कल से सिर्फ मेरी ही चर्चा होगी, तुम्हारे हर पृष्ठ पर शब्द तो होंगे उसके आगे के अर्थ गायब हो जाऐंगे...देखना।
अगले दिन सुबह अर्थ वाकई हड़ताल पर चला गया। सारे शब्दों से अर्थ लुप्त हो गया। अर्थ अपनी हउ़ताल का प्रभाव जानने को आतुर था- वह सड़क पर निकल गया- किंतु आश्चर्य, सड़कों पर सब सामान्य था। हड़ताल जैसा कुछ नहीं। बसें चल रही थीं, पुलिस का भी कोई बन्दोबस्त नहीं, अखबार छपे थे, कविताएं सुनाई गई थीं, उपनर चर्चाएं भी हुई, विदेश यात्राएं, सेमिनार-गोष्ठियॉं सब हो रहा था। लोगों की बातचीत में अर्थ-हड़ताल का कोई जिक्र नहीं था। सब सामान्य- जड़ सामान्य।
अर्थ क्षुब्ध था, उसने अगले दिन का अखबार छान डाला उसके बारे में कोई समाचार नहीं था। अखबार शब्दों से लदे-फदे थे। गोष्ठियॉं, अन्य हड़तालों, खून-खराबे सभी की चर्चा थी... बस उसकी हड़ताल पर ही किसी का ध्यान नहीं गया था। तभी उसकी नजर चौथे पेज की चार पंक्तियों की खबर पर गई। विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग के कुछ शोधार्थियों ने शिकायत की थी कि आज शब्दकोश में से एक शब्द रातों-रात न जाने कैसे गायब हो गया। यह शब्द हिंदी भाषा के अक्षरों 'अ', 'र्' तथा 'थ' से बना करता था।
1 comment:
bahut achha likha hai, shabd aur arth ki ladai parke dil aur dimag ki ladai pe likha aisa hi ek lekh yaad aa gaya tha.
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