वह
पलक झपकाने भर तक को तैयार नहीं
उत्साह से कहती हैं
उसकी ऑंखें
देखना जल्द ही सवेरा होगा
मैं मुस्का देता हूँ हौले से बस।
होती हो सुबह- हो जाए
मुझे गुरेज नहीं
पर तुम सा यकीन नहीं मुझे
सवेरे के उजाले में
सच मानों मैं तो डरता हूँ
उस बहस से- जो तब होगी
जब अँधेरे में अपलक ताकने से
पथरा जाएंगी तुम्हारी ऑंखें
साथी कहेंगे- कामरेड
अँधेरे ने एक और बलि ले ली
मैं कहूँगा
ये हत्या उजाले ने की
Saturday, February 25, 2006
Tuesday, February 21, 2006
सावधान। अर्थ हड़ताल पर है
शब्द की बेगारी करते करते अर्थ बूढ़ा हो चला था। एक शाम एक शब्दकोश में बैठा वह विचार कर रहा था कि आखिर उसने अपने जीवन में पाया क्या। शुद्ध बेगारी। न वेतन न भत्ता। अगर देखा जाए तो शब्द जो कुछ भी करता है उसमें असली कमाल तो अर्थ का ही होता है पर चमत्कार माना जाता हे शब्द का। अर्थ को कोई नहीं पूछता- कतई नहीं। ये तो साफ साफ गुलाम प्रथा है, पूरा जीवन झौंक दिया , न कोई पेंशन न सम्मान। अर्थ को लगा कोई संघर्ष शुरू करना जरूरी है।
उसने तय किया सवेरे वह हड़ताल करेगा- शब्द के विरुद्ध अर्थ की हड़ताल। उसे हैरानी हुई- ये ख्याल उसके दिमाग में अब तक क्यों नहीं आया। वह तो सारी दुनिया का चक्का जाम कर सकता है। सुबह जब लोग बोलेंगें तो इसका कोई अर्थ नहीं होगा। अखबार, टीवी, रेडियो, नेताओं के भाषण, मुहल्ले की औरतों की बातचीत, राजनयिकों के वार्तालाप.... अरे मेरी सत्ता तो सर्वव्यापक है। बेचारे लेखक, कवि...ये तो मारे ही जाएंगे। अर्थ ठठाकर हॅंस पड़ा। शब्दकोश को मुखातिब होकर उसने कहा- आज आज की बात है देखना कल से सिर्फ मेरी ही चर्चा होगी, तुम्हारे हर पृष्ठ पर शब्द तो होंगे उसके आगे के अर्थ गायब हो जाऐंगे...देखना।
अगले दिन सुबह अर्थ वाकई हड़ताल पर चला गया। सारे शब्दों से अर्थ लुप्त हो गया। अर्थ अपनी हउ़ताल का प्रभाव जानने को आतुर था- वह सड़क पर निकल गया- किंतु आश्चर्य, सड़कों पर सब सामान्य था। हड़ताल जैसा कुछ नहीं। बसें चल रही थीं, पुलिस का भी कोई बन्दोबस्त नहीं, अखबार छपे थे, कविताएं सुनाई गई थीं, उपनर चर्चाएं भी हुई, विदेश यात्राएं, सेमिनार-गोष्ठियॉं सब हो रहा था। लोगों की बातचीत में अर्थ-हड़ताल का कोई जिक्र नहीं था। सब सामान्य- जड़ सामान्य।
अर्थ क्षुब्ध था, उसने अगले दिन का अखबार छान डाला उसके बारे में कोई समाचार नहीं था। अखबार शब्दों से लदे-फदे थे। गोष्ठियॉं, अन्य हड़तालों, खून-खराबे सभी की चर्चा थी... बस उसकी हड़ताल पर ही किसी का ध्यान नहीं गया था। तभी उसकी नजर चौथे पेज की चार पंक्तियों की खबर पर गई। विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग के कुछ शोधार्थियों ने शिकायत की थी कि आज शब्दकोश में से एक शब्द रातों-रात न जाने कैसे गायब हो गया। यह शब्द हिंदी भाषा के अक्षरों 'अ', 'र्' तथा 'थ' से बना करता था।
उसने तय किया सवेरे वह हड़ताल करेगा- शब्द के विरुद्ध अर्थ की हड़ताल। उसे हैरानी हुई- ये ख्याल उसके दिमाग में अब तक क्यों नहीं आया। वह तो सारी दुनिया का चक्का जाम कर सकता है। सुबह जब लोग बोलेंगें तो इसका कोई अर्थ नहीं होगा। अखबार, टीवी, रेडियो, नेताओं के भाषण, मुहल्ले की औरतों की बातचीत, राजनयिकों के वार्तालाप.... अरे मेरी सत्ता तो सर्वव्यापक है। बेचारे लेखक, कवि...ये तो मारे ही जाएंगे। अर्थ ठठाकर हॅंस पड़ा। शब्दकोश को मुखातिब होकर उसने कहा- आज आज की बात है देखना कल से सिर्फ मेरी ही चर्चा होगी, तुम्हारे हर पृष्ठ पर शब्द तो होंगे उसके आगे के अर्थ गायब हो जाऐंगे...देखना।
अगले दिन सुबह अर्थ वाकई हड़ताल पर चला गया। सारे शब्दों से अर्थ लुप्त हो गया। अर्थ अपनी हउ़ताल का प्रभाव जानने को आतुर था- वह सड़क पर निकल गया- किंतु आश्चर्य, सड़कों पर सब सामान्य था। हड़ताल जैसा कुछ नहीं। बसें चल रही थीं, पुलिस का भी कोई बन्दोबस्त नहीं, अखबार छपे थे, कविताएं सुनाई गई थीं, उपनर चर्चाएं भी हुई, विदेश यात्राएं, सेमिनार-गोष्ठियॉं सब हो रहा था। लोगों की बातचीत में अर्थ-हड़ताल का कोई जिक्र नहीं था। सब सामान्य- जड़ सामान्य।
अर्थ क्षुब्ध था, उसने अगले दिन का अखबार छान डाला उसके बारे में कोई समाचार नहीं था। अखबार शब्दों से लदे-फदे थे। गोष्ठियॉं, अन्य हड़तालों, खून-खराबे सभी की चर्चा थी... बस उसकी हड़ताल पर ही किसी का ध्यान नहीं गया था। तभी उसकी नजर चौथे पेज की चार पंक्तियों की खबर पर गई। विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग के कुछ शोधार्थियों ने शिकायत की थी कि आज शब्दकोश में से एक शब्द रातों-रात न जाने कैसे गायब हो गया। यह शब्द हिंदी भाषा के अक्षरों 'अ', 'र्' तथा 'थ' से बना करता था।
Tuesday, February 07, 2006
दिल्ली आखिर दिल्ली ठहरी
गत सत्र मैं सराए में एक फैलो था (यह वही संस्था हैं जहॉं से योगेन्द्र यादव जी जिनका कुर्ता लाल्टू के ब्लॉग पर लिंकित है, संबद्ध् हैं ) मैने इस शहर दिल्ली पर शोध किया था और इसे जानने की कोशिश की थी दावा नहीं कर सकता कि समझ ही गया था पर जितना समझा था उस लिहाज से कह सकता हँ कि दिल्ली पर बेदिली के आरोप कुछ ज्यादा ही बेदिली से लगाए जाते हैं लाल्टू के पास तो खैर वजह थी और बहुत से शहरों का अनुभव भी (दुनिया जहान के शहरों की म्यूनिसिपैलिटी का पानी पिए हैं कई बार तो डर लगता है कि हमें कुऍं का मेंढक कह झिड़क न दें)। पर वैसे भी दिल्ली के खुद के लोग भी गर्व से दिल्ली को बेमुरव्वती का शहर मानते बताते हैं। अपन तो इसी शहर की एक बस्ती में पैदा हुए और यहीं पले बड़े हुए दोस्त बनाए भी। और गंवाए भी और किसी को हैरानी हो तो हो पर हमें यह शहर पसंद भी है। वैसे जो दोस्त अभी तक बने हुए हैं उनका कहना है कि इस शहर ने मसिजीवी के साथ नाइंसाफी की है पर खुद मुझे ऐसा कभी नहीं लगा।
इसलिए हमारे लिए यह शहर मुकम्मल शख्सियत रखता है इतनी कि शहर मात्र यानि किसी भी शहर में इसे शामिल न करें यह जिद पालतें हैं इसे लेकर।
तो वाक्य बनेगा दिल्ली आखिर दिल्ली ठहरी
इसलिए हमारे लिए यह शहर मुकम्मल शख्सियत रखता है इतनी कि शहर मात्र यानि किसी भी शहर में इसे शामिल न करें यह जिद पालतें हैं इसे लेकर।
तो वाक्य बनेगा दिल्ली आखिर दिल्ली ठहरी
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