Monday, December 29, 2008

ज्‍योतिहीन राह के स्‍पर्शक

सड़के चिकनी हों, फुटपाथ समतल हों ये किसी शहर के विकसित होने के मापदंडों में से माने जाते हैं। ऐसा कम ही होगा जब आप ऊबड़ खाबड़ फुटपाथ देखें और खुशी महसूस करें या गर्व तथा राहत की अनुभूति हो। साफ समतल फुटपाथ ऑंखों को अच्‍छा दिखता है, सुन्‍दर लगता है। पर ये सुन्‍दरता तो देखने की चीज है... जो ज्‍योतिहीन हैं, जिनकी ऑंखे चेहरे पर बने वे दो गड्ढे भर हैं जो जब तब दुखते हैं जिनसे पानी निकलता है जिनके कारण डाक्‍टर के पास भी जाना पड़ता है लेकिन वे किसी काम नहीं आते। मैं अक्‍सर सोचता हूँ कि किसी नेत्रहीन के लिए शहर कैसा होता है ? वह शहर को छू सकता है, सूंघ सकता है स्‍वाद ले सकता है सुन सकता है लेकिन देख नहीं सकता। जबकि हम देख सकने वालों ने शहर को बनाया बसाया ही इस तरह है कि ये केवल देखने के ही लिए है। अपने खुद के अनुभवों पर विचार करें 98 प्रतिशत अनुभव व स्‍मृति केवल दृश्‍यात्‍मक होती हैं।

इसलिए कल जब दिल्‍ली गेट से आईटीओ की ओर चला तो जो दिखा (पुन: दिखा, छूआ नहीं) उसने एक राहत की अनुभूति दी। फुटपाथ की यह खुरदराहट शहर की स्‍िनग्‍धता का प्रमाण थी। शहर के फुटपाथ के स्पर्शक-

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ये अलग बात है कि कहीं कहीं लगता है कि ठेकेदार ने इन्‍हें नेत्रहीनों की सुविधा के लिए लगे स्‍पर्शक न मानकर सजावट की वस्‍तु तरह लगा दिया है। मसलन इस हिस्‍से में देखें-

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वृक्षदेव से बचकर बिना चोट खाए निकलना किसी नेत्रहीन के लिए भाग्‍य की ही बात होगी। शुरुआत में इस तरह कमियों को छोड़ दें तो ये राजधानी के एक जिम्‍मेदार शहर बनने के निशान हैं। विकलांगता के कारण हाशिए पर धकेले गए लोगों के शहर पर बराबरी के हक की घोषणा भी। एक नजर देखकर सराहा तस्‍वीर खींची और चंद कदम ऑंख बंद कर इन स्‍पर्शकों पर चला, मुझे अपना शहर और सुंदर लगा।

4 comments:

वर्षा said...

मुझे तो पता नहीं था ये पट्टियां स्पर्श के लिए बनाई जाती हैं। एक विदेशी, न देख सकनेवाली लड़की का लेख पढ़ा था कुछ दिन पहले, कहती है अगर मुझे सिर्फ तीन दिन के लिए देखने की शक्ति मिल जाए तो मैं क्या-क्या देखना पसंद करुंगी...सड़कें, लाइब्रेरी और भी बहुत कुछ था उसमें। आगे कहती है मान कर चलो कि हर दिन को आखिरी दिन मान कर चलो कि तुम देख सकते हो, जी भरकर देखो, आखिरी दिन मान कर चलो कि तुम सुन सकते हो..सब सुनने की कोशिश करो.....इसे पढ़कर वो याद आ गई

आशीष कुमार 'अंशु' said...

मसिजीवी और वर्षा दोनों की बातें सच्ची लगी

संजय बेंगाणी said...

पढ़ कर अच्छा लगा.

Himanshu Pandey said...

संजीदगी से लिखा है आपने.
पढ़कर अच्छा लगा.