बच्चे अभी छोटे हैं लेकिन अपनी कुछ बातें उन्हें अजीब लगती हैं। इनमें से एक है मंदिर व मूर्ति की जीवन व घर से अनुपस्थिति, इस बारे में फिर कभी लिखेंगे आज एक और शून्य पर विचार करते हैं। ये उनके नाम के बाद। बेटे का नाम प्र.. है और बेटी का श्रे.. न कम न ज्यादा। उनकी कक्षा में बच्चे शर्मा, वर्मा, धींगरा, त्रिपाठी, शुक्ला, गुप्ता...हैं पर ये बेचारे बस पहले नाम भर हैं न कम न ज्यादा। हमारे अपने नाम में इन अलंकरणों की कोई कमी नहीं। मुझे याद है कि शादी के निमंत्रण पत्र में नाम से पहले कुँवर लगाया था बाद में तो सरनेम खैर था ही। कुँअर अजीबोगरीब प्रताप सिंह चौहान टाईप। ठकुराई का कोई अंश बकाया नहीं रखा गया आखिर बेटा जाति से बाहर विवाह करने जा रहा था, विजातीय पक्ष पर दबाब बनाना जरूरी था। सरनेम एक रूतवा है एक 'एसेट' है जिस पर कब्जा बरकरार रखना जरूरी था।
मान्यता ने सुनील दत्त के परिवार में विवाह किया और झट से मान्यता दत्त हो गईं पता नहीं उससे पहले क्या थीं। शादी प्रिया ने भी की पर वो पहले भी दत्त थीं और बाद में भी बनी रहीं। संजय को बहन की ये हरकत नागवार गुजर रही है। 'दत्त' पिता के परिवार का ब्रांड है जिसे पुत्र के ही पास जाना चाहिए। वैसे कई और जुगाड़ भी प्रचलित हैं इंदिरा 'नेहरू' नहीं रहीं गॉंधी हो गईं सोनिया न जाने क्या से गॉंधी हो गईं जबकि प्रियंका वढेरा के साथ साथ गॉंधी भी हैं- क्या पता कब काम आ जाए।
हमें ये सरनेम या कुलनाम के लिए संघर्ष, जातिवाद तथा पितृसत्ता की लड़ाई तो दिखता ही है साथ ही यह उत्तराधिकार या संपत्ति पर कब्जे की भी लड़ाई है। सरनेम समाज की यथास्थिति के पक्ष में कई काम एक साथ करता है। इस मामले में कई दलित समुदायों द्वारा सवर्ण समुदायों के नाम अपना लेना एक शानदार औजार है। इस अहम को तोड़ने का। कोई शुक्लाजी म्यूनिसिपैलिटी का पाखाना साफ करते दिखें, सिंह साहब अनुसूचित जाति वर्ग से कॉलेज में एडमिशन लें... तो कम से कम शहर में तो बहुत कुछ बदलता है। आप नाम भर से जाति पता लगा सकने लायक नहीं रहते बाकी काम शहर की गुमनामता कर देती है। लेकिन दूसरी लड़ाई ज्यादा कठिन है दरअसल पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई पश्चिमी समाजों सहित किसी भी समाज में एक सबसे कठिन लड़ाई है। इसलिए प्रिया के खिलाफ संजय का आरोप केवल ननद भाभी की नोंक झोंक नहीं है। क्योंकि जिस जमीन पर संजय ने ये लड़ाई लड़ने की ठानी है वह पितृसत्ता के सबसे मजबूत आधारों में से है।
16 comments:
कुल नाम आज भी प्रतिष्टा का धोतक है . पीछे झाँक कर देखे तो कई उधारन दीखते है , और रही सत्ता की बात तो गाँधी ,सिंधिया ,अब दत्त और न जाने कितने कुल नाम फर्जी लोगो के आगे शोभाएमान है .
इस मामले में कई दलित समुदायों द्वारा सवर्ण समुदायों के नाम अपना लेना एक शानदार औजार है। इस अहम को तोड़ने का।
यह सवर्ण समुदाय के अहम को तोड़ने का प्रयास नहीं है वरन उनके साथ शामिल होने की कोशिश जैसी है। यह यथास्थिति को तोड़ने की कोशिश नहीं है उसको और मजबूती देना है। हमें याद है कि जब उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग के लोगों के लिये कुछ जगह बनीं तो तमाम सक्सेना, शर्मा जैसे कुलनाम वाले लोग पिछड़ा वर्ग के प्रमाणपत्र बनवाते पाये गये। यह भी देखा है कि हरिजन आवास योजना में मकान पाने के लिये लोगों ने अपने नाम से जातिसूचक शब्द हटाकर अर्जियां लगा दीं। किसी हरकत का आर्थिक असर क्या होता है इस बात पर बहुत कुछ निर्भर करता है।
कुलनाम ही रख लेने से क्या होगा जब उसके अनुरूप आचरण नही होगा ! रही बात जाति की तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कम से कम निर्वाचन के मामलो में तो जाति ताउम्र वही रहेगी जिसमें जन्म हुआ है !
आपके तर्क अपनी जगह सही हैं किन्तु संजय दत्त के केस में तो यह मात्र चर्चा में बने रहने के लिए की जा रही नौटंकी लगती है.
मैं अरविन्द जी की बात से सहमत हु ,.....कुल नाम जैसा आचरण भी jaruri है......यह भी देखा है कि हरिजन आवास योजना में मकान पाने के लिये लोगों ने अपने नाम से जातिसूचक शब्द हटाकर अर्जियां लगा दीं। इसे कोई क्या कहेगा
........सोच जियादा महत्व रखती है ....
पितृसत्ता और पुरुष प्रधानता ये मनुष्य समाज के कोढ़ हैं।
बात लाभ की है. न ज्यादा न कम.
कुलनाम ही रख लेने से क्या होगा जब उसके अनुरूप आचरण नही होगा !
ये अनुरूप आचरण की अवधारणा ये मानकर चलती है की उच्च कुल कहे जाने वाले वर्णों का आचरण कुछ विशिष्ट होता है
दलितों द्वारा शहरों में रहने अंगेजी पढने तथा उच्च जातिओं वाले सरनेम रखने ने उच्च जाती के विशिष्टभाव पर चोट पहुंचाई है बल मायने में वो अहम् को चोट पहुंचता है दलित विचारणा में ये ही महत्वपूर्ण बात है इससे जातिवाद समाप्त तो नहीं होता लेकिन वे विशेषाधिकार जरुर छीन जाते हैं जो अब तक केवल उच्च जातिओं के पास थे!
पितृसत्तात्मक सामन्ती मानसिकता वाले ये संजय दत्त
अब 'समाजवादी' होने जा रहे हैं और अटल जी को नमन भी कर रहे हैं।'गोलमाल है भाई सब गोलमाल है'
प्रिया दत्त ने मान्यता के चरित्र पर उंगली उठायी हैं उनका ये कहना नितांत ग़लत हैं की मान्यता को दत्त परिवार की { नर्गिस और सुनील दत्त } की बहु के रूप मे राजनीति मे ना उतारा जाए . इस से दत्त परिवार की छवि ख़राब होगी . प्रिया दत्त ये भूल गयी की नर्गिस ख़ुद जद्दन बाई की बेटी थी . छवि हमारे कार्यो से बनती और बिगड़ती हैं . क्रिमिनल्स को राजनीति मे उत्तरने की परम्परा हमारे देश मे पुरानी हैं . संजय उसी परम्परा का हिस्सा हैं . जब प्रिया दत्त सुनील दत्त के साथ यात्राओं पर जाती थी संजय दत्त या तो किसी रहबिल्टेशन सेण्टर मे होते थे या जेल में . और उनका ये कहना नितांत ग़लत हैं की वही असली दत्त हैं क्युकी वारिस वो भी हैं और प्रिया भी अपने माता पिता की . लेकिन ये सब केवल और केवल राजनीती के तहत हो रहा हैं . रक्षाबंधन पर दोनों साथ साथ गाते नज़र आयेगे " भईया मेरे " और अब कांग्रेस हो या समाजवादी दत्त परिवार की चांदी ही चांदी हैं कुल नाम से कोई फरक नहीं पड़ता अगर आप को अपना मुकाम ख़ुद बनाना हो . कानूनी जरूरते अपनी जगह हैं व्यक्तिगत अपनी जगह पर आचरण सबसे जरुरी हैं
अगर लड़की अपने पिता का ही सरनेम इस्तेमाल करना चाहे, जिसके साथ उसके नाम को स्कूल-कॉलेज में संबोधित किया जाता रहा है, तो क्या दिक्कत है। इसमें नफा-नुकसान क्या है। सरनेम बदलने से नाम की ध्वनि भी बदल जाती,लगता है किसी और का नाम पुकारा जा रहा हो। सरनेम न बदलने से कुछ तकनीकी दिक्कत जरूर आ सकती है। प्रियंका गांधी वाड्रा हो गई तो उसमें भी नुक्स निकाल लिया...दोनों खानदान का लाभ...बेकार की बात है।
यहाँ संजय दत्त ने पितृ नाम का कार्ड खेला है ...वैसे कोई बताएगा आदम ओर हव्वा किस जात के थे...इस दुनिया में दो ही जाति है अमीरी ओर गरीबी
विशिष्टता से ज्यादा आर्थिक/राजनितिक फायदे वाली बात भी है. जाति ही क्यों धर्म भी है. अब आंध्र के सीएम साहब अपना नाम कैसे बदल सकते हैं. और वैसे ही लाखो परिवर्तित लोग जो आरक्षण का लाभ लेते हैं... सबके अपने फायदे हैं.
यह दत्त-फत्त से दलित-सवर्ण ठेलाई दूर की बात है। बाकी बाप के नाम पर बेटे की जागीर गलत बात है!
यदि स्त्री अपने पिता का नाम, उपनाम या जातिसूचक शब्द/गोत्र लगाना चाहे तो इसमें हर्ज ही क्या है लेकिन इसे दुशाला समझकर प्रतिष्ठा के लिए बड़े लोग ओड़ते हैं ताकि दूसरे के पुण्यों की कमाई लील सकें। मैं भी उनमें से एक हो सकता हूं।
बहुत सी स्त्रियाँ शादी के बाद अपने नाम के आगे अपने पति का नाम लगा लेती हैं, जैसे मेघा "मयूर", बच्चों के नाम के आगे उनके पिता का नाम लगाने का प्रचलन है, अमिताभ जी ने नाम के आगे बच्चन लगाया, जो कि जातीयता की नही पितृ प्रेम की निशानी थी। बात वही है, अपने घर अपने परिवार अपनी विरासत से प्रेम के कारण कोई भी सरनेम लगाना अपने मन का, आस्था का और संवेदनशीलता का मामला है। ये अपनी मर्जी पर ही होना चाहिये। जब स्त्रियाँ अपने पति का नाम अंगीकार करती हैं तब वो मैं से हम होने का सिंबल होता है । तुम्हारा सब मेरा और मेरा सब तुम्हारा। कोई अपने पिता का सरनेम नही छोड़ती क्योंकि वो अपना अस्तित्व विगलित नही करना चाहती और कोई पिता के साथ साथ पति का भी सरनेम ले कर चलती है, क्योंकि वो उन दोनो को ले कर चलना चाहती है। इसमें कुछ भी शायद बुरा नही है। लेकिन तब तक जब तक ये अपनी भावनाओं से जुड़ा हो....! माफ कीजियेगा लेकिन इनमे से कोई भी उदाहरण राजनीति के लिये सही नही है, वहाँ पितृसत्ता को छोड़िये पिता भी समय एवं अवसर के अनुसार चुने जाते हैं।
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