कल रविवार था यानि दरियागंज पुस्तक बाजार का दिन। एक दुकान पर चंद किताबें दिखीं बहुत परिचित लगीं... सबका एकमुश्त दाम पूछा, मांग हुई सौ रुपए हमने पिचहत्तर कहा, वो बिना हील हुज्जत के मान गया। हमने दाम चुकाकर झोले के हवाले कर दीं। पिचहत्तर रुपए में पाए हजारी प्रसाद कृत कबीर, द्विवेदीजी जी का ही हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास, लंबी कविताओं पर परमांनद श्रीवास्तव, रामस्वरूप चतुर्वेदी का हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास - चार किताबें। घर आकर खोली भी नहीं अलमारी के हवाले।
हर हिन्दीवाले के लिए ये चारों किताबें बेहद आधारभूत किताबें हैं,एमए का हर विद्यार्थी पढ़ता ही है, हमने भी देखी थीं। दरअसल ये सभी किताबें फिर से खरीदी गई हैं। किसी किताब की दूसरी प्रति खरीदना हमारे साथ कई बार हुआ है। हिन्दी की किताबें बहुत मंहगी नहीं होती किंतु जब भी एकबार खरीदी गई किताब को दोबारा या तिबारा खरीदना खुद को ही अजीब लगता है। अक्सर किताब इसलिए फिर से खरीदनी पड़ती है कि किसी विद्यार्थी या मित्र के पास गई किताब लौटती नहीं और ऐसा भी होता है कि हम खुद ही भूल गए होते हैं कि किताब है किसके पास। तिसपर किताबों का हमारा संग्रह हमारा धुर निजी नहीं है वरन पत्नी के साथ साझा है और उनका भी विषय यही, यानि किताब के कहीं और होने की वजह भी दोगुना हुईं। इसका मतलब यह नहीं कि केवल लापता किताबें ही दो बार खरीदी जाती हैं कई बार जैसे आज की ये किताबें सिर्फ इस वजह से फिर खरीद लीं कि बेहद सस्ती लगीं जब कि संदर्भ के लिए बार बार इस्तेमाल होने वाली किताबें हैं एकाध प्रति फालतू पड़ी रहेगी... कोई छात्र मांगेगा तो तकलीफ नहीं होगी कि चलो एक और प्रति है।
गनीमत है कि हम खुद से एकरूपता (कंसीस्टेंसी) की मांग नहीं करते नहीं तो भला एक ही किताब की कई प्रतियॉं भला, कोई भली बात है। जिंदगी का कोई बैकअप नहीं होता, सपनों, दोस्तों, परिजनों का कोई बेकअप नहीं रखा जाता और न जाने कितनी चीजें, बल्कि कहो जीवन की अधिकांश हरकतें बिना बेकअप की हैं।
10 comments:
सरजी,बैक-अप किताबों को लेकर आपने को मानसिक रुप से तैयार कर लिया है कि कोई भी इन किताबों को मांग ले तो देने में दिक्कत न हो। काश, इसी तरह की रत्ती भर की समझ मांगनेवालों के पास भी आ जाए।
एमए,एमफिल् के दौरान चाहे जो भी, जैसी भी तंगी रही हो( तंगी की वजह पैसे की कमी नहीं, बल्कि जितनी किताबें खरीदता उससे कहीं ज्यादा ब्रांडेड कपड़े,स्टूडेंट के लिहाज से शायद ये सही न हो) हिन्दी की अधिकतम किताबें खरीदा। शुरु से रचना से ज्यादा मुझे आलोचना पढने में मजा आता। लोग आते और आंख लगाते, तब मैंने एक रंग का कवर चढ़ा दिया, कि टाइटल पढ़ ही न पाएं।
चैनल की नौकरी बजाने गया तो लोगों ने किताबें मांगनी शुरु कर दी। मेरे मन में भी था कि अब वापस इस साहित्य की दुनिया में तो आना नहीं है, इसलिए दे भी देता। देते वक्त इतना जरुर लगता कि कैसे डिबेट जीतकर, ससुराल से आने पर जिद करके ये सारी किताबें मैंने खरीदी और खरीदवायी थी। नतीजा ये हुआ कि मेरा जो एक ठीक-ठीक कलेक्शन था वो छितरा गया।
आमतौर पर मुझे साहित्यिक किताबों की जरुरत नहीं पड़ती, पढ़ाता तो हूं नहीं लेकिन जब कभी कोई किताब का नाम लेता है औऱ मैं अपनी सेल्फ में देखता हूं तो गायब पाता हूं. बहुत याद करके फोन करता हूं, ज्यादातर तो लोग मुकर जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं- हां है मेरे पास लेकिन तुम तो मीडिया पर काम कर रहे हो न, क्या काम है इन किताबों, अभी क्या करोगे इसका, कहीं इंटरव्यू देने जा रहे हो। दुनियाभर के सवाल। अब क्या बताउं उन्हें कि कैसे कलेजा कटता है उन किताबों को याद करके।
अपनी किताबे भी पढने के बाद अक्सर गायब हो जाती हैं. अभी एक दोस्त से पटना से 'निबंध भास्कर' मंगाई. वैसे तो बस नौवी-दसवी में निबंध के लिए ये पुस्तक पढ़ी थी पर इस पुस्तक से लगाव हो गया था और हुआ वही घर से कोई उठा के ले गया !
बहुत अच्छा किया. अब हम आपके यहां से किताबें लेकर आयेंगे तो आपको कोई दिक्कत नहीं होने वाली.
काश कि जिन्दगी और हरकतों का भी बैकअप होता...
बहुत सुंदर .
बधाई
इस ब्लॉग पर एक नजर डालें "दादी माँ की कहानियाँ "
http://dadimaakikahaniya.blogspot.com/
ये तो सच में अद्भुत आदत है..हम तो अभी मनपसंद किताबों की एक ही प्रति एकत्रित कर पा रहे हैं..ऐसे लोगे के विषय में जानना अच्छा लगता है..!
फिर पढ़ने का मन किया सो चला आया.
हम तो अपने पास से बार बार पढी गई किताबों को हटाने की जुगत में लगे हैं और हालात ये हैं कि आजकल कोई लाइब्रेरी भी किताबे लेने के लिये आसानी से तैयार नहीं होती.
जैसे भारी भरकम गांधी वांग्मय हिन्दी में है लेकिन है कोई इसे लेने वाला? एकदम मुफ्त?
@ मैथिलीजी, इससे पहले कि कोई और बुक करे... हमें दे डालें यूँ तो अंबेडकर समग्र लिए दो साल होने को आए एक भी खंड पूरा नहीं पढ़ा पर गांधी समग्र जैसे ग्रंथ तो संदर्भ ग्रंथ है..आप पूरा पढ़ चुके हैं ये जानकर ही आपके प्रति नत होने को जी चाहता है।
क्या बतायें द्विवेदी जी की कबीर की हमारी प्रति भी न जाने किसके पास चली गयी। एक दिन बहुत फटफटा कर खोज रहा था मैं!
यह पोस्ट पढ़ कर याद आया।
मसिजीवी जी आप मुझे क्षमा करेंगे। आज सर्फिंग करते-करते आपके ब्लोग पर आ धमका, इतना अच्छा लगा कि एक के बाद एक पोस्ट पढ़ता गया और उन पर अपनी सहमति-असहमति दर्ज करता गया, अपने आपको रोक न सका। अब उन्हें अप्रूव करना विप्रूव करना आपके हाथ!
अब विषय पर आते हैं, हजारी प्रसाद द्विवेदी की। आपने उन किताबों को अनपढ़े ही अलमारी में ठूंस दिया, पर पढ़ लेते तो यह टिप्पणी आपको और भी मजेदार लगती। शायद आपने ये किताबें पहले जरूर पढ़ी होंगी।
बात यह है कि ये किताबें हिंदी में प्लेगियरिज्म के सबसे उम्दा मिसालें हैं। यकीन नहीं होता? हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे महिमा-मंडित, बीएचयू के वाइस चैंसलर कैसे प्लैगियरिस्ट हो सकते हैं? सब कुछ बताता हूं, फिर आप मानेंगे। और उन्होंने नकल की भी है, तो किसी ऐरे-गैरे-नत्थू गैरे की नहीं, बल्कि अपने ही पूर्वज सुप्रसिद्ध आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पुस्तकों की।
अभी हाल में मैं पढ़ रहा था आचार्य शुल्क की एक ऐंथोलजी, जिसके संपादक हैं डा. रामविलास शर्मा। अपनी लंबी संपादकीय टिप्पणी में डा.शर्मा ने यह सनसनीखेज खुलासा किया है। और अपनी बात की पुष्टि में इतने सारे उद्धरण दिए हैं कि उनकी इस स्थापना से इन्कार नहीं किया जा सकता। पुस्तक का नाम हैं - लोक जागरण और हिंदी साहित्य, प्रकाशक वाणी प्रकाशन। यदि पूरी भूमिका पढ़ने का समय न हो, तो "इतिहास लेखन की मौलिकता" वाला अनुभाग अवश्य पढ़ें।
मैंने रामविलासजी का पिछली टिप्पणी में भी जिक्र किया है। मैं उनका कायल हो गया हूं। उनकी एक-दो किताबें पुस्तकालय से लाकर पढ़ी थीं। इतना प्रभावित हुआ कि अच्छी-खासी निधि खर्च करके (लगभग पांच-छह हजार)उनकी सारी किताबें दिल्ली जाकर खरीद लाया। अब उन्हें एक-एक करके पढ़ रहा हूं। आपको भी सलाह दूंगा कि समय निकालकर उन्हें पढ़ें (और किताबों से अलमारी की शोभा बढ़ाने की अपनी आदत से बाज आएं :-))
आपने अंबेडकर की बात की है इस पोस्ट में। मैं डा. रामविलास शर्मा की एक किताब की ओर आपका ध्यान खींचना चाहूंगा जिसमें उन्होंने अंबेडकर की विचारधारा की समीक्षा की है। यदि आप अंबेडकर की संपूर्ण वाङमय को न पढ़ सकें, तो भी इस किताब को अवश्य पढ़ें। इसमें अंबेडकर के अलावा गांधी जी और लोहिया की विचारधाराओं की भी समीक्षा है। हमारे वर्तमान मूल्यहीनतावाले समय के लिए यह किताब अत्यंत प्रासंगिक है। हमारे युवा, और हम भी, गांधी जी को लेकर काफी असमंजस में रहते हैं, हम उनके बारे में और उनके विचारों के बारे में कोई राय नहीं बना पते। डा. शर्मा की यह किताब गांधी जी के विचारों को ठीक तरह से समझाने में कमाल करती है।
पुस्तक का नाम है - गांधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतयी इतिहास की समस्याएं; लेखक - डा. रामविलास शर्मा, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन
अपने ब्लोग में साहित्य की इसी तरह चर्चा करते रहें, बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
आप पहले से ही एडवांस में बैकअप प्रति लेकर रख लेते हैं, बढ़िया है। हुआ तो अपने साथ भी कुछेक बार है कि किसी फिल्म की डीवीडी या कोई उपन्यास या पत्रिका कोई मित्र ले गया और फिर उसकी वापसी नहीं हुई, लेकिन मैं इस मामले में पहले से बैकअप लेकर नहीं रखता - नदी किनारे पहुँचने पर ही उसको पार करने का यत्न किया जाता है! ;)
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