Wednesday, February 18, 2009

आहती जीवों की बन आई है

एक समाचार होले से आया और चुपचाप निकल गया, ब्‍लॉगजगत ने नोटिस तो लिया पर बस ...।  समाचार का संबंध स्‍टेट्समैन के संपादकों की गिरफ्तारी से है। कोलकाता के इस अखबार के संपादकों रवीन्‍द्र कुमार तथा आनन्‍द सिन्‍हा को इसलिए गिरफ्तार किया गया कि उन्‍होंने इंडिपेंडेंट में प्रकाशित एक लेख को अपने अखबार में पुनर्प्रकाशित किया था। जोहन हरी ने अपने लेख 'व्हाई शुड आई रिस्‍पेक्‍ट दीज आप्रेसिव रिलीजंस' में सवाल उठाया है कि हाल के वर्षों में धार्मिक आस्‍थाओं का सम्‍मान करने के नाम पर धार्मिक कठमुल्‍लई पर सवाल उठाने के हक से महरूम करने की साजिश की जा रही है। एक भले लोकतांत्रिक समाज में हर किसी को अपने धर्म में आस्‍था रखने (या न रखने) की आजादी होनी चाहिए। इन समाजों को धार्मिक व्‍यवहारों की आलोचना की भी आजादी होनी चाहिए लेकिन अक्‍सर धार्मिक आस्‍थाओं को चोट न पहुँचाने के नाम पर हम ऊत-बाबली बात बिना आलोचना परीक्षण के फलती रहती है।

हरी की मूल आपत्ति है कि भले ही हर इंसान सम्‍मान का हकदार है पर हर विचार का सम्‍मान करने पर विवश करना गैर लोकतांत्रिक है वे सवाल उठाते हैं कि

All people deserve respect, but not all ideas do. I don't respect the idea that a man was born of a virgin, walked on water and rose from the dead. I don't respect the idea that we should follow a "Prophet" who at the age of 53 had sex with a nine-year old girl, and ordered the murder of whole villages of Jews because they wouldn't follow him.

I don't respect the idea that the West Bank was handed to Jews by God and the Palestinians should be bombed or bullied into surrendering it. I don't respect the idea that we may have lived before as goats, and could live again as woodlice

(प्रत्‍येक इंसान सम्‍मान का हकदार हे लेकिन हर विचार नहीं। मेरे लिए इस विचार का सम्‍मान करना संभव नहीं कि एक कुंवारी ने आदमी को जन्‍म दिया, कोई पानी पर चला तथा मौत के बाद फिर जिंदा हो गया। मैं इस विचार का सम्‍मान नहीं करता कि हम किसी ऐसे पैगंबर का अनुगमन करें जो 53 साल की उम्र में किसी नौ साल की बच्‍ची से संभोगरत हुआ हो तथा जिसने पूरे के पूरे यहूदी गांव को इसलिए कत्‍ल करने का हुक्‍म दिया हो क्‍योंकि वे उसके भक्‍त बनने को राजी नहीं थे।

मैं इस विचार का सम्‍मान नहीं करता कि वेस्‍ट बैंक भगवान ने यहूदियों को सौंपा है तथा फिलीस्‍तीनियों पर बमबारी कर उन्‍हें समर्पण करने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। मैं इस बात का सममान करने पर राजी नहीं कि हम किसी जन्‍म में बकरी रहे होंगे तथा अगले जन्‍म में घुन बन सकते हैं। )

सेकुलरवाद का अतिवादी अर्थ लेने वाले भारत में इन मूर्खतापूर्ण आस्‍थाओं पर सवाल उठाना और कठिन है। जो लेख इंग्‍लैंड में छपा और अब भी मजे से उपलब्‍ध है उसे केवल पुनर्प्रस्‍ततु करने की सजा के रूप में इन्‍हें गिरफ्तारी सहनी पड़ी। हमेशा की तरह हमारा मानना है कि यदि आस्‍था या ठेस पहुँचाने से बचने की कोशिश में हम धर्म को आलोचना से परे कर देंगे तो स्‍वात घाटी की स्थितियॉं चॉंदनीचौक पर आ पसरेंगी। 

मजे की बात ये है कि धर्म का सहारा लेकर आप कितनी भी फूहड़ घोषणाएं करें आप पर सवाल नहीं उठाए जाएंगे नही तो स्‍यापा करेंगे कि हाय हाय हमारी आस्‍थाएं आहत हो गई हैं। फिर आप ग्रहों और नजर टोटकों की 'वैज्ञानिक' व्‍याख्‍याएं करें या खांसी चुकाम के लिए ग्रहो, रत्नों, देवों को जिम्‍मेदार ठहराएं... झट स्‍वीकार कर लिया जाएगा... कोई सवाल नहीं।

10 comments:

dhurvirodhi said...

बहुत खतरनाक लिख रहे हैं
धर्म तो बहुत ही कमजोर है, जरा से शब्दों की फूंक से इसे जुकाम हो जाता है, और हमारी आस्थायें दरक जातीं हैं.
धर्म सामूहिकता है और सामूहिकता में विचार नहीं भेड़ चाल का जयघोष होता है.
गनीमत है कि रवीन्‍द्र कुमार तथा आनन्‍द सिन्‍हा द्वय को सिर्फ गिरफ्तारी ही सहनी पड़ी वरना तो ये सामूहिकता, हर अस्वीकृति के सिरों को भालों की नौंक पर नचा डालती है.

Anil Pusadkar said...

सरकार और नेता चाहें तो धर्म का तमाशा बना सकते हैं अगर दूसरा कोई,खासकर पत्रकार इस मामले मे कुछ बोले भी तो सरकार उसका तमाशा बना देती है।छत्तीसगढ मे सरकार हर साल कुंभ का आयोजन कर रही है मजाल है कोई उसके खिलाफ़ बोले यही अगर किसी और ने किया होता त्तो धर्म को ठेस लग जाती और उसे जेल मे ठूस दिया जाता।अफ़्सोस ही कर सकते है या ज्यादा से ज्यादा निंदा और ज्यादा हुआ तो धरना प्रदर्शन……………………

Anonymous said...

ऊपर कही गयी दोनों टिप्पणियों पर काफी वजन है,

roushan said...

मज़हब के नाम पर किए जा रहे अतिवाद को बर्दाश्त नही किया जाना चाहिए. अगर मज़हब अपने दावों पर खरा है तो उसे प्रश्नों से परहेज़ नही करना चाहिए उनके उत्तर खोजने की कोशिश होनी चाहिए. आहत हो सकने वाली आस्थाएं कमज़ोर होती हैं

अभय तिवारी said...

सही मुद्दा उठाया आप ने!

Anonymous said...

लोग सच के लिये नहीं, आस्थाओं के लिये फिक्रमंद हैं. सच आहत हो तो हो, आस्था नहीं होनी चाहिये.

संभल के, आस्थाओं के मामले में सच बोलने की कीमत बहुत बड़ी है और अब तो आप मुखौटाधारी भी नहीं रहे.

Abhishek Ojha said...

हद है ! अपने देश में तो कोई कुछ भी कर लेता है. अगर ४००० 'भारतीय तालिबान' सड़क पर आ जाएँ और हम इसलिए किसी को गिरफ्तार लें ! दुखद है. मुझे तो आर्टिकल का एक-एक शब्द पसंद आया. अगर इसके लिए आपको या फिर मुझे भी गिरफ्तार कर लिया जाय तो आश्चर्य नहीं. शर्म आती है ऐसी घटनाओं पर.

Gyan Dutt Pandey said...

गिरफ्तारी कलकत्ते में हुई। अहमदाबाद में होती तो घना सेकुलर बवाल होता!

राजकिशोर said...

धन्यवाद मसिजीवी जी। इस लेख पर प्राप्त सभी टिप्पणियों से सहमत हूं -- खासकर ज्ञानदत्त जी से।
रा.

Dr. Amar Jyoti said...

बहुत सही सवाल उठाया है आपने। धर्मनिरपेक्षता के स्वघोषित ठेकेदारों का वैचारिक पतन तो बहुत पहले ही स्पष्ट हो चुका है। कट्टरपन्थियों के दवाब में तसलीमा नसरीन को निकालना भी एक ऐसा ही कदम था।