Friday, January 01, 2016

'क्‍लेमिंग द स्‍पेस': किंतु क्‍लेमोपरांत स्‍पेस वही रहता कहॉं है ?

'क्‍लेमिंग द स्‍पेस' उदार लोकतंत्र का एक बेहद चलता मुहावरा है हम इसके अक्‍सर पक्षधर रहे हैं। मसलन जब दिल्‍ली बलात्कार कांड के बाद स्त्रियों ने क्‍लेमिंग द अरबन स्‍पेस की मुहिम चलाई या फिर दलित व अन्‍य वंचित वर्गो द्वारा उन स्‍पेसों को क्‍लेम करने की बात होती है जो परंपरागत रूप से वर्चस्‍व प्राप्‍त वर्ग के पास रहे हैं तो यह क्‍लेमिंग द स्‍पेस इतनी जायज लगती है कि हम जीभर इसका समर्थन करते हैं भाषा में भी और सड़कों पर भी। इसी तरह स्‍पेस क्‍लेम या रीक्‍लेम करने की कवायद में जो अपने हक के लिए संघर्ष करने छटपटाहट छिपी है वह काम्‍य ही जान पड़ती है।
लेकिन स्‍पेस क्‍लेम करने की हर कवायद सदैव ऐसी ही छटपटाहट से भरी जरूरी नहीं। कभी कभी याद आता है कि कैसे स्‍कूल में जब सीट साझा करने वाले पक्‍के दोस्‍त से कुट्टी होती थी तो डेस्‍क पर अपना हिस्‍सा क्‍लेम करना मुझे एक सबसे मुश्किल कामों में से लगता था, मैं दरअसल सीट छोड़कर कहीं पीछे अगर मिल जाए तो अकेला बैठना ज्‍यादा पसंद करता था। माने जो हमारे स्‍पेस पर जम कर बैठा आतताई है उससे अपना स्‍पेस लड़कर लेने में जो उदात्‍तता है वो इस क्‍लेमिंग द स्‍पेस में हर जगह मौजूद हो जरूरी नहीं।
फिर स्‍पेस उतना भौतिक बचा भी नहीं तो नहीं। मसलन वर्चुअल स्‍पेस को लो, फेसबुक पर हमारी वॉल कितना हमारा स्‍पेस है कितना वह उन मित्रों उनके लाइक कमेंट उनकी वॉल आदि से मिलकर बनी एक समन्वित शै है यह वँटवारा कितना तो मुश्किल है। हमारा ब्‍लॉग हमारी पोस्‍टों से बनता है कि ढेर कमेंट्स और पुरानी पोस्‍टों के इतिहास से यह तय होना कठिन है ऐसे में कोई अपने वर्चुअल स्‍पेस को क्‍लेम करने में कितने दूसरे स्‍पेसों तक अपनी चेष्‍टा को पहुँचाता है इसका निर्धारण आसान नहीं है।
यह सब कहने का मतलब मात्र इतना है कि स्‍पेस पर दावा ठोंकने से पहले हमें यह जरूर समझना चाहिए कि कोई भी स्‍पेस सिर्फ हमारा नहीं होता हम उसे कितना भी निजी स्‍पेस क्‍यों न मानते हों। स्‍पेस की अपनी भी एक स्‍वायत्‍तता होती है तथा एक संतुलन भी। क्‍लेम्‍ड स्‍पेस इस दावे से पहले जो होता है वह इस दावे के बाद ठीक वही नहीं रह जाता। मसलन दोस्‍त और मेरी साझा डेस्‍क का संतुलन जो पहले था वह जब पूरी तरह दोस्‍त के 'कब्‍जे' में आ जाता है तो वही नहीं रह जाता जैसा हमारे संयुक्‍त दावे में हुआ करता था। अब अगर डेस्‍क पर दावे के वक्‍त यह ध्‍यान ही न रखा जाए कि जिस पर दावा किया जा रहा है वह मिल जाने भर से वह रह ही नहीं जाएगा जो अब है तो फिर ऐसे दावे का क्‍या लाभ।
मेरा जंतर आसान है अगर स्‍पेस पर क्‍लेम व्‍यक्तिगत रूप से अपने लिए है तो मुझे ये स्‍पेस क्‍लेम करने की क्रिया फूहड़ जान पड़ती है जबकि अगर स्‍पेस व्‍यक्तिगत रूप से अपने लिए नहीं बल्कि यह एक व्‍यापक जाति का स्‍पेस है तो दमभर इस पर दावा जरूर करना चाहिए। इसी तरह कोई व्‍यक्ति या समूह आपके जायज स्‍पेस से अपदस्‍थ करे तो भले आप डटें लेकिन अगर कोई अपना साझे स्‍पेस पर दावा ठोंके तो उस पर जिद करना निरर्थक है। मैं सालों तक जिस दोस्‍त के साथ स्‍कूल में बैठा उससे हर लड़ाई के बाद चुपचाप अलग जा बैठने का लाभ यह था कि फिर  से कुट्टी से अब्‍बा होने पर न कभी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा न माफी मॉंग लेना इतना मुश्किल हुआ।

1 comment:

शचीन्द्र आर्य said...

एपल मैक बुक पर यह पोस्ट ठीक नहीं दिख रही है। कितने तो सात (7) दिखे इसमें। फ़िर थोड़ी देर बाद पैटर्न पता चला। सात का मतलब 'र'। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। घर आया, अब पढ़ रहा हूँ। सुकून से।