जब जब लिखता हूँ कुछ
लगता है मिटा रहा हूँ सबकुछ
वह सब मिटता है
जो मुझे लिखना था दरअसल
मुझे लिखना था मैं, और लिखना था तुम्हें
किंतु कविता के ढॉंचें में अँटा नहीं मेरा अहम
कहानी में तुम अकेले आ नहीं पाईं
और पात्रों ने तुम्हें तुम रहने न दिया
निबंध औ उपन्यास भी थके से लगे पराजित
विधाएं दगा करती हैं
जब तुम पर या कि
खुद पर चाहता हूँ कुछ लिखना।
लिखने की कोशिश
शब्दों के दर्प यज्ञ में आहूति है बस
वरना
कविता भी भला सच कहती हैं कभी
लगता है मिटा रहा हूँ सबकुछ
वह सब मिटता है
जो मुझे लिखना था दरअसल
मुझे लिखना था मैं, और लिखना था तुम्हें
किंतु कविता के ढॉंचें में अँटा नहीं मेरा अहम
कहानी में तुम अकेले आ नहीं पाईं
और पात्रों ने तुम्हें तुम रहने न दिया
निबंध औ उपन्यास भी थके से लगे पराजित
विधाएं दगा करती हैं
जब तुम पर या कि
खुद पर चाहता हूँ कुछ लिखना।
लिखने की कोशिश
शब्दों के दर्प यज्ञ में आहूति है बस
वरना
कविता भी भला सच कहती हैं कभी
3 comments:
सुन्दर प्रस्तुति। सादर ... अभिनन्दन।।
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वाह.. बहुत सुन्दर सर
वाह.. बहुत सुन्दर सर
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