Saturday, April 09, 2016

मन अक्सों के खेत हैं

तुम्हारे आइने से चुराया मुस्कराकर मैंने तुम्हारा थोड़ा सा अक्स सहेजकर बो दिया उसे मन में, मन ही मन में तुम तुम रहीं तुम्हारे पास मेरे पास फूटता पलता तुम्हारा एक अक्स रहा.. फिर एक दिन सारे दर्पणों को किरिचें उड़ा तुम चल पड़ीं अनजान देशों में शिखरों की यात्रा पर देश जिसमें होते नहीं दर्पण लेकिन भीतर वह छतनार हो चुकी तुम हो वैसी, तुम जैसी नहीं यूँ भी मैं तुम्हारे अक्स के ही सहारे था मन अक्सों के ही खेत हैं।

5 comments:

कविता रावत said...

बहुत सुन्दर

कविता रावत said...

बहुत सुन्दर

अजय कुमार झा said...

वाह माट साब बहुत अच्छे जी

समयचक्र said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति ... जय मां भवानी

amit kumar srivastava said...

ऐसे अक्स से पहले रश्क होता है और फिर इश्क हो जाता है ।