तुम्हारे आइने से चुराया
मुस्कराकर मैंने
तुम्हारा थोड़ा सा अक्स
सहेजकर बो दिया उसे मन में,
मन ही मन में
तुम तुम रहीं तुम्हारे पास
मेरे पास फूटता पलता तुम्हारा एक अक्स रहा..
फिर एक दिन
सारे दर्पणों को किरिचें उड़ा तुम
चल पड़ीं अनजान देशों में शिखरों की यात्रा पर
देश जिसमें होते नहीं दर्पण
लेकिन भीतर वह
छतनार हो चुकी तुम
हो वैसी, तुम जैसी नहीं
यूँ भी मैं तुम्हारे अक्स के ही सहारे था
मन अक्सों के ही खेत हैं।
5 comments:
बहुत सुन्दर
बहुत सुन्दर
वाह माट साब बहुत अच्छे जी
बहुत सुंदर प्रस्तुति ... जय मां भवानी
ऐसे अक्स से पहले रश्क होता है और फिर इश्क हो जाता है ।
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