Tuesday, May 01, 2007

फो-ग्रास उर्फ बत्‍तख का कलेजा..... अहिस्‍ता से निकालो


हमारी अंगेजी बहुतई खराब है लेकिन इस बार तो इस बहाने भी नहीं बच सकते क्‍योंकि ये फो-ग्रास अंग्रेजी नहीं वरन फ्रेंच शब्‍द निकला, तो लो कह देते हैं कि हमारी फ्रेंच और भी खराब है। हमने कभी भी ये ग्रास नहीं खाई है लेकिन हमारी हालत यही रही है कि हम ये हमेशा से खाना चाहते थे वो इसलिए कि कथित लक्‍जरी फूड आइटम में ये हमें शाकाहार की नाक लगता था। हास्‍टल के जमाने में भी सब मँहगा यानि मटन, मछली और चिकन होता था और हम शाकाहारी लोगों को मिलता था बस पनीर पनीर और पनीर :( । बृहत्‍तर संदर्भ में भी कोबे बीफ, कैवियार, ओर न जाने क्‍या क्‍या जो भी मं‍हगा माना जाता है वो कमबख्‍त माँसाहारी निकलता है। केवल फो-ग्रास से इज्‍जत बची मानता था। सोचता था कि पैसे हुए तो इसे जरूर खाउंगा लेकिन बुरा हो वीर संघवी का- इस रविवार के ब्रंच में जब उन्‍होंने हम जैसे कमअक्‍लों की बुद्धि पर तरस खाते हुए घोषणा की कि भाई लोगो ये फो-ग्रास कोई ग्रास नहीं है। ये तो प्रवासी पक्षियों के कलेजे को कहा जाता है। हमारे तो पांव के नीचे से जमीन ही खिसक गई। अपने शाकाहार पर एक बार लिख चुके हैं खैर... चलो अब बचा है ट्रफल, उम्‍मीद है कि किसी दिन कोई शैतान घोषणा कर देगा कि यह भी किसी कबूतर का गुर्दा होता है।

खैर इसी लेख में वीर संघवी ने एक और लफड़े के विषय में बताया कि आजकल दुनिया भर में विशेषकर अमेरिका में फो-ग्रास के खिलाफ आंदोलन जारी है क्‍योंकि यह पशुओं (बत्‍तखों) के खिलाफ क्रूरता को बढ़ावा देता है। वीर संघवी को और मुझे भी यह बड़ा बत्‍तख तर्क लगता है कि जी बत्‍तख का कलेजा ऐसे निकालना उसके साथ क्रूरता है, अरे भई या तो सारा माँसाहार क्रूरता है नहीं तो कुछ भी नहीं। कहा जाता है कि प्रवासी पक्षी जब लंबी यात्रा पर निकलते हैं तो बहुत सा खाकर कलेजे को बढ़ा लेते हैं जो स्‍वादिष्‍ट होता है। अब पॉल्‍ट्री फार्म में किया यह जाता है कि वे प्रवास पर तो जाते नहीं लेकिन फॅनल लगाकर उन्‍हें जबरन खिलाया जाता है और कलेजे का आकार बढ़ने पर ...जै राम जी की। क्रूरता है तो सही, पर आराम से मारेंगे तब भी है। दरअसल देखें तो आदमजात है बहुत खुदगर्ज अपने लिए बाकी सारी प्रजातियों को नष्‍ट करने में उसे कोइ्र तकलीफ नहीं।
खैर हमें क्‍या अब माँसाहारी होते भी तो भी शायद कोबे बीफ या फो ग्रास हमें तो नसीब होने वाला नहीं था।

9 comments:

RC Mishra said...
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अभय तिवारी said...

सही लिखा है बन्धु..

ePandit said...

अरे क्या करें जी हम शाकाहारियों के लिए दुनिया बहुत बेरहम है, हर नई चीज खाते हुए डर लगता है कहीं मांसाहार न हो। कमबख्त कई चीजों का तो पता ही नहीं चलता कि वैज है या नॉन वैज।

Anonymous said...

सही कहा आपने शाकाहारियों के लिये तो यदि कुछ है तो वो है पनीर पनीर और पनीर .हॉस्टल में इसी अनुभव से हम भी गुजर चुके हैं . लेकिन ये 'ग्रास', 'कलेजा' होती है ये तो हमें नहीं मालूम था . अब इस मांसाहार के लिये ग्रास क्यों कहा गया. इस पर भी प्रकाश डालिये.

Udan Tashtari said...

खैर, हमारे लिये थोड़ी बात अलग है...खाना खा लें, फिर सोचेंगे. चिकन हो या उसका कलेजा...हम तो कटा कटाया लाये हैम महाराज...खुद नहीं काटे हैं!!! और जब सब्जी खाते हैम तो उसे भी खुद नहीं उखाड़ते, उखड़ी हुई लाते हैम दुकान से.. :)

Anonymous said...

मसिजीवी जी, इस शब्द का सही उच्चारण है "फ़ुआ ग्रा". फ़्रांसीसी में फ़ुआ मतलब कलेजा और ग्रा मतलब बड़ा. इसीलिये इसका ग्रास यानि घास से कुछ भी लेना-देना नहीं है. सचमुच बहुत बेरहम भोजन है यह. इस सम्बन्ध में मैंने एक-दो बार अपने अंग्रेज़ी चिट्ठे पर भी कुछ लिखा था, ये रहीं कड़ियां:
Foie Gras, a cruel food
Foie Gras, revisited

मसिजीवी said...

धन्‍यवाद अमित।

इस फ्रांसीसी शब्‍द के सही उच्‍चारण की तो कोशिश भी नहीं कर पाउंगा :)

अब बेरहम मॉंसाहारी भोजन का क्‍या मतलब हुआ। मॉंसाहारी है तो बेरहम तो होगा ही। क्‍या कम क्‍या ज्‍यादा।

Anonymous said...

दरअसल देखें तो आदमजात है बहुत खुदगर्ज अपने लिए बाकी सारी प्रजातियों को नष्‍ट करने में उसे कोइ्र तकलीफ नहीं।

हाँ, वाकई बहुत क्रूर है, इक्का दुक्का भी नहीं, पूरी आदमजात। अब देखिए न, गेंहूँ और अन्य शाक-सब्ज़ियाँ उगाती है उनको एक दिन बेदर्दी से काट के उबाल/पका खाने के लिए। गाय/भैंस को खिलाया पिलाया जाता है ताकि उसका दूध निकाला जा सके, बहुतया बार तो बछड़े को भी नहीं पेट भरने देते!!

विकास दिव्यकीर्ति said...

मसिजीवी,
मैं आपकी चिंताओं से सहमत हूँ लेकिन पशु को 'मारने' और 'क्रूरता से मारने' मे गहरा फर्क होता है जिसे हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। सोच कर देखिए कि 'दर्द' की यदि इतनी बड़ी भूमिका ना होती तो सर्जरी में अनेस्थेसिया क्यों दिया जाता , यूथेनेसिया के लिए लोग आंदोलन क्यों करते ? पशु अधिकारों का आंदोलन इसी थीम पर आधारित है कि पशुओं मे चाहे विवेकशीलता हमसे कम हो, पर दर्द महसूस करने की क्षमता बराबर है और इतना ही काफी है उनके अधिकारों को स्वीकारने के लिए। इसलिये यदि उनका मारा जाना नहीं रूक सकता तो उनकी मौत को कम दर्दनाक तो बनाया ही जाना चाहिए। आजकल तो मृत्यु-दण्ड के बारे मे भी यह विचार चल रहा है कि इसे फांसी या गोली मारने जैसे दर्दनाक तरीकों के बजाय तीन क्रमिक इंजेक्शनों की दर्दरहित प्रक्रिया से दिया जाये। पशुओं का पशु होना ठीक वैसे ही संयोग मात्र है, जैसे हमारा मानव होना। यदि संयोग से हम पशु होते तो हमारी सोच क्या होती? क्या सारे विचार इस संयोग से ही जन्मते हैं कि हम किस स्थिति मे हैं?