तय हुआ था कि इन छुट्टियों में हिमाचल का भ्रमण किया जाएगा इसकी कुछ तस्वीरें हम दिखा चुके हैं किंतु आपको यहॉं पूरी यात्रा का वृतांत नहीं बता रहे हैं उसके ड़ाईविंग पक्ष को आपके सामने रख रहे हैं। खैर, हम सपरिवार यानि पति पत्नी और बेटा-बिटिया (क्रमश: 7 व 4 साल) के साथ कार्यक्रम बना जिसके लिए HPTDC व तमाम ब्लॉगों से शोध कर निम्न रास्ता चुना गया।
दिल्ली – अम्बाला (NH-1) – जिरकपुर – पंचकुला-पिंजौर- शिमला- फागु- नारकंडा- रामपुर- सरहन- कल्पा- सांगला- चिटकुल – सांगला- रामपुर- शिमला-दिल्ली
दिल्ली से अम्बाला राष्ट्रीय राजमार्ग -1 है और अम्बाला से कल्पा के निकट (पोवारी) तक राष्ट्रीय राजमार्ग 22 है।
वाहन के विकल्प इस हिंदी मास्टर के पास सीमित थे। या तो अपनी 1997 मॉडल की मारूति 800 (हँसो मत यार) या फिर दूसरा उपलब्ध विकल्प 2005 मॉडल की आल्टो। सहज ही आल्टो चुन ली गई। वैसे ऐंडेवर या कोई और SUV होती तो उसे ही चुनते पर ...सपने तो सपने हैं सपनों का क्या।
वाहन के विकल्प इस हिंदी मास्टर के पास सीमित थे। या तो अपनी 1997 मॉडल की मारूति 800 (हँसो मत यार) या फिर दूसरा उपलब्ध विकल्प 2005 मॉडल की आल्टो। सहज ही आल्टो चुन ली गई। वैसे ऐंडेवर या कोई और SUV होती तो उसे ही चुनते पर ...सपने तो सपने हैं सपनों का क्या।
साफ कर दें कि शहर की ड्राईविंग से हम बिदकते हैं किंतु हाईवे और पहाड़ पर मजा आता है। इससे पहले ऋषिकेश, देवप्रयाग, नैनीताल, अल्मोड़ा-बिनसर-कोसानी, मसूरी, आदि की आसान कारचालन यात्राएं उसी विनम्र 1997 की मारूति-800 से कर चुके हैं। पर इस बार मामला एकदम अलग था। NH-22 कुछ सबसे दुर्गम इलाको से गुजरता राजमार्ग है और बहुत सा हिस्सा BRO (बार्डर रोड आर्गनाइजेशन) के जिम्मे है। कुंजम पास (4551 मीटर) से रोहतांग पास(3978 मीटर) तक का रास्ता केवल 5 माह तक ही आम ट्रैफिक के लिए खुलता है। खैर उस इलाके में इतने छोटे बच्चों के साथ खुद ड्राईव करके जाना साहस नहीं मूर्खता होती इसलिए केवल कल्पा तक की योजना बनाई गई।
12 मई की सुबह यात्रा शुरू हुई कार के टायर नए थे, आल्टो छोटी कार है लेकिन पावर स्टीयरिंग व पावर ब्रेक के साथ उसे चलाना एक आनंदमय अनुभव है। NH-1 का 200 किलोमीटर का फासला मजे से गुजरा। जिरकपुर में सड़क के 6 लेनीकरण हो रहा है इसलिए थोड़ा गति धीमी हो गई लेकिन कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। पिंजौर उद्यान में उलटी चलती घड़ी और सिमंस का 1910 का DC जनरेटर देखा- अद्भुत अनुभव।
आराम से चलते हुए भी 3 बजे तक फागु पहुँच चुके थे। सड़क अच्छी थी, फागु शिमला से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जो समुद्रतल से 2500 मीटर की ऊंचाई पर है। रमणीक स्थल है। यहीं हिमाचल पर्यटन के होटल पीच ब्लॉसम में रात्रि विश्राम किया गया और सूर्योदय और सूर्यास्त का आनंद लिया। 4 किमी दूर स्थित कुफरी के बाजार को भी घूम आए।
सुबह नाश्ते के बाद आगे का सफर शुरू हुआ...ड्राईविंग की असली परीक्षा आगे थी..परिवार के साथ चलते हुए आप कोई जोखिम नहीं लेना चाहते, हमने भी अगले दिन के लिए केवल 150 किमी का ही सफर रखा था रास्ते में पड़ते थे ठियोग, नारकंडा, रामपुर, ज्योरी और फिर 17 किमी की हाईवे से हटकर चढ़ाई के बाद सरहन। सरहन बुशैर राजवंश की राजधानी रहा है और भीमकाली मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। खैर, रास्ता लगातार सतलुज के किनारे किनारे का था, थोड़ी थोड़ी देर के बाद छोटे छोटे झरने थे तस्वीरें खींचते, बंदरों को देखते और चेरी के बागों के किनारे से ज..जूम से निकलते हुए आगे बढ़ते गए। एक झरने पर तो बाकायदा मन लगाकर कार वाश भी किया...देखें।
सुबह नाश्ते के बाद आगे का सफर शुरू हुआ...ड्राईविंग की असली परीक्षा आगे थी..परिवार के साथ चलते हुए आप कोई जोखिम नहीं लेना चाहते, हमने भी अगले दिन के लिए केवल 150 किमी का ही सफर रखा था रास्ते में पड़ते थे ठियोग, नारकंडा, रामपुर, ज्योरी और फिर 17 किमी की हाईवे से हटकर चढ़ाई के बाद सरहन। सरहन बुशैर राजवंश की राजधानी रहा है और भीमकाली मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। खैर, रास्ता लगातार सतलुज के किनारे किनारे का था, थोड़ी थोड़ी देर के बाद छोटे छोटे झरने थे तस्वीरें खींचते, बंदरों को देखते और चेरी के बागों के किनारे से ज..जूम से निकलते हुए आगे बढ़ते गए। एक झरने पर तो बाकायदा मन लगाकर कार वाश भी किया...देखें।
रामपुर पहुँचकर लंच किया गया और कुछ देर में सरहन...। ज्योरी से सरहन का रास्ता एक पतली सी सड़क है जिसपर बसें चलती देख हम हैरान और आतंकित थे...पर हम कितने नादान थे इसका पता हमें अगले दिन की यात्रा में चलने वाला था। सरहन के रास्ते में हम जैसे ड्राईवर के लिए खतरा यह है कि कहीं आस पास की खूबसूरती में उलझे तो ...। सरहन में हमारा ठिकाना था हिमाचल पर्यटन का खूबसूरत होटल श्रीखंड, जो क्षेत्र की एक धार्मिक महत्व की एक चोटी के नाम पर था।
बेहद मोहक व सुंदर अगली सुबह सामने हिमाच्छादित शिखरों के साए में सरहन से कल्पा की यात्रा शुरू की जो थी तो 109 किमी की ही पर..बाबा रे। रास्ते के पड़ाव थे सरहन-ज्योरी-वाग्टू-करचम-पोवारी-कल्पा सारा हाईवे सतलुज के साथ साथ चलता है..भूस्स्खलन का इलाका है।
वांग्टू से करचम की सड़क पर दोहरी मार है एक तो प्राकृतिक रूप से ही दुर्गम इलाका है दूसरे जेपी घराना यहॉं एक बहुत बड़ी पनबिजली परियोजना का निर्माण कर रहा है जिस कारण पर्वतों को सुरंगें बना बनाकर छलनी कर दिया गया है और कच्ची सड़क पर भारी डंपर डंपर चलाकर उसे खतरनाक बना दिया है, रेंगेती गति और आशंकित हृदय से जैसे तैसे करचम पहुँचे...हर किमी इस बेचारी आल्टो के साथ अन्याय सरीखा था। पर असली परीक्षा तो अभी बाकी थी।
वांग्टू से करचम की सड़क पर दोहरी मार है एक तो प्राकृतिक रूप से ही दुर्गम इलाका है दूसरे जेपी घराना यहॉं एक बहुत बड़ी पनबिजली परियोजना का निर्माण कर रहा है जिस कारण पर्वतों को सुरंगें बना बनाकर छलनी कर दिया गया है और कच्ची सड़क पर भारी डंपर डंपर चलाकर उसे खतरनाक बना दिया है, रेंगेती गति और आशंकित हृदय से जैसे तैसे करचम पहुँचे...हर किमी इस बेचारी आल्टो के साथ अन्याय सरीखा था। पर असली परीक्षा तो अभी बाकी थी।
करचम से पोवारी है तो केवल 13 किमी लेकिन कदम कदम पर जोखिम हैं...पिछले रास्ते पर हम इतनी अधिक ऊंचाई पर होते थे कि नीचे नदी दिखाई ही नहीं देती थी...यहॉं भय और अधिक हो जाता है...एक तो बेहद पतली सड़क और जगह जगह गाड़ी के फिसलकर नीचे जा गिरने का डर दो जगह तो सड़क पर तेज धार से कार को गुजारना था और पानी, कम ग्राउंड क्लीयरेंस वाली गाडियों के लिए लिहाज से अधिक था।
यह 13 किमी जैसे तैसे कटे। इस सारे सफर में मैं यही आकलन करता रहा कि मैं इसका आनंद ले रहा हूँ कि डरा हुआ हूँ...दरअसल दोनों ही बात थीं। पोवारी जाकर पता चला कि पोवारी से रिकांगपिऊ की सड़क बंद है और तीन किमी आगे जाकर एक कच्ची सड़क से घूमकर वहॉं जाना होगा। रिकांगपिऊ किन्नौर जिले का मुख्यालय है। यह तीन किमी की सड़क और ऊपर कच्चा रास्ता मेरे अब तक के जीवन 85000 किमी के ड्राईविंग अनुभव में सबसे रोमांचक और जोखिम भरे थे। इस रास्ते को सड़क कहना इस संज्ञा के साथ अन्याय है..ये आठेक किमी के रास्ते पर संतुलन बनाए रखने में बड़ी परेशानी थी...गनीमत है कि हमें ऐसा कोई मुगालता नहीं है कि हम कोई बड़े तीस मारखां ड्राईवर हैं, इसलिए जब एक बस ने साईड मांगी तो हमने गाड़ी साईड में लगाकर हाथ खड़े कर दिए..यहॉं साईड का मतलब कोई साईड नहीं है, आठ दस फुट के रास्ते में क्या बीच क्या साईड। जैसे तैसे मुख्य सड़क तक पहुँचे और फिर रिकांगपिऊ होकर कल्पा पहुँचे जहॉं के सौंदर्य ने सारे भय और थकान को हवा कर दिया। यहॉं किन्नर कैलाश के ठीक चरणों में हमें पर्यटन विभाग के होटल किन्न्र कैलाश में हमें दो दिन रुकना था। अगले दिन 7-8 किमी के सुनसान व रोमांचक रास्ते से इस इलाके के अंतिम भारतीय गांव रोघी भी गए...देखिए रास्ते में लहराता भारतीय ध्वज
और मील के पत्थर पर टिके हमारे लाल को।
दिन में आए तूफान ने कल्पा के दृश्य को तो और सुंदर बना दिया था, शिखरों पर ताजा बर्फ पड़ी थी किंतु इसने हमारे कल्पा से सांग्ला के सफर पर ढेरो सवालिया निशान लगा दिए थे। तूफान तेज था और रास्ते में पेड़ और पत्थरों के सड़क पर आ गिरने की आशंका थी। चन्द्रगुप्त में प्रसाद का कथन है कि समझदारी आने पर यौवन चला जाता है..और हम सौभाग्य से अभी उतने समझदार नहीं है इसीलिए वावजूद इसके कि अभी अभी सांग्ला से आए एक टैक्सी ड्राईवर कम मालिक ने हमसे कहा कि भाईजी हमें तो कोई पैसे दे और कहे कि सांग्ला घूम आओ तो हम हाथ जोड़ दें..बहुत खतरनाक है। हमने तय किया कि देखा जाएगा। चाभी घुमाई और चल दिए। इस बार सड़क खुली हुई थी इसलिए पोवारी आसानी से पहुँच गए। पोवारी से करचम सड़क पर पत्थर थे और धाराओं का बहाव अणिक था पर विशेष कठिनाई नहीं हुई। असली परीक्षा थी करचम से सांग्ला का 16 किमी का रास्ता। विशेषता यह थी कि गाड़ी को बेहद संकरे रास्ते पर चलना था और पहाड़ी रास्ते के सभी जोखिम यानि घुमावदार सड़क, संकरा रास्ता और बहुत ही गहरी खाई सभी यहॉं विद्यमान थे उस पर तुर्रा ये कि इसी रास्ते पर बास्पा नदी को बांधने के पाप में रत कंपनी के विशाल डंपर भी यहॉं से गुजरते थे...जब सामने से ट्रक आता था तो किसी भी तरह कार उसके बराबर से नहीं निकल सकती थी इसलिए कार को बैक करके सुरक्षित कोने तक ले जाना होता था...कोई भी ड्राईवर जानता है कि कितना भी कुशल चालक क्यों न हो बैक करना अंतत: अनुमान का काम है और जमीन से सैकडों मीटर ऊपर, पतली सी सड़क पर पत्नी और छोटे बच्चों को कार में बैठाकर ऐसा अनुमान लगाना..उ..फ्फ।
खैर इस रोमांचक अनुभव के बाद हम जा पहुंचे सांग्ला (2680 मीटर) जो एक तरह से एंटी क्लाइमेक्स सा था जब तक कि हमने चिटकुल (3460 मीटर) की ओर रुख नहीं किया जो 26 किमी दूर है। ये रास्ता ट्रक रूपी दानवों से मुक्त था और बेहद मोहक था। चिटकुल सांग्ला क्षेत्र का अंतिम गांव है जिसके ढाबे पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा है हिंदुस्तान का आखरी ढाबा-चाय 4 रूपै। ये था हमारा अंतिम पड़ाव और यहाँ से हमारी वापसी की यात्रा शुरू....।
यह 13 किमी जैसे तैसे कटे। इस सारे सफर में मैं यही आकलन करता रहा कि मैं इसका आनंद ले रहा हूँ कि डरा हुआ हूँ...दरअसल दोनों ही बात थीं। पोवारी जाकर पता चला कि पोवारी से रिकांगपिऊ की सड़क बंद है और तीन किमी आगे जाकर एक कच्ची सड़क से घूमकर वहॉं जाना होगा। रिकांगपिऊ किन्नौर जिले का मुख्यालय है। यह तीन किमी की सड़क और ऊपर कच्चा रास्ता मेरे अब तक के जीवन 85000 किमी के ड्राईविंग अनुभव में सबसे रोमांचक और जोखिम भरे थे। इस रास्ते को सड़क कहना इस संज्ञा के साथ अन्याय है..ये आठेक किमी के रास्ते पर संतुलन बनाए रखने में बड़ी परेशानी थी...गनीमत है कि हमें ऐसा कोई मुगालता नहीं है कि हम कोई बड़े तीस मारखां ड्राईवर हैं, इसलिए जब एक बस ने साईड मांगी तो हमने गाड़ी साईड में लगाकर हाथ खड़े कर दिए..यहॉं साईड का मतलब कोई साईड नहीं है, आठ दस फुट के रास्ते में क्या बीच क्या साईड। जैसे तैसे मुख्य सड़क तक पहुँचे और फिर रिकांगपिऊ होकर कल्पा पहुँचे जहॉं के सौंदर्य ने सारे भय और थकान को हवा कर दिया। यहॉं किन्नर कैलाश के ठीक चरणों में हमें पर्यटन विभाग के होटल किन्न्र कैलाश में हमें दो दिन रुकना था। अगले दिन 7-8 किमी के सुनसान व रोमांचक रास्ते से इस इलाके के अंतिम भारतीय गांव रोघी भी गए...देखिए रास्ते में लहराता भारतीय ध्वज
और मील के पत्थर पर टिके हमारे लाल को।
दिन में आए तूफान ने कल्पा के दृश्य को तो और सुंदर बना दिया था, शिखरों पर ताजा बर्फ पड़ी थी किंतु इसने हमारे कल्पा से सांग्ला के सफर पर ढेरो सवालिया निशान लगा दिए थे। तूफान तेज था और रास्ते में पेड़ और पत्थरों के सड़क पर आ गिरने की आशंका थी। चन्द्रगुप्त में प्रसाद का कथन है कि समझदारी आने पर यौवन चला जाता है..और हम सौभाग्य से अभी उतने समझदार नहीं है इसीलिए वावजूद इसके कि अभी अभी सांग्ला से आए एक टैक्सी ड्राईवर कम मालिक ने हमसे कहा कि भाईजी हमें तो कोई पैसे दे और कहे कि सांग्ला घूम आओ तो हम हाथ जोड़ दें..बहुत खतरनाक है। हमने तय किया कि देखा जाएगा। चाभी घुमाई और चल दिए। इस बार सड़क खुली हुई थी इसलिए पोवारी आसानी से पहुँच गए। पोवारी से करचम सड़क पर पत्थर थे और धाराओं का बहाव अणिक था पर विशेष कठिनाई नहीं हुई। असली परीक्षा थी करचम से सांग्ला का 16 किमी का रास्ता। विशेषता यह थी कि गाड़ी को बेहद संकरे रास्ते पर चलना था और पहाड़ी रास्ते के सभी जोखिम यानि घुमावदार सड़क, संकरा रास्ता और बहुत ही गहरी खाई सभी यहॉं विद्यमान थे उस पर तुर्रा ये कि इसी रास्ते पर बास्पा नदी को बांधने के पाप में रत कंपनी के विशाल डंपर भी यहॉं से गुजरते थे...जब सामने से ट्रक आता था तो किसी भी तरह कार उसके बराबर से नहीं निकल सकती थी इसलिए कार को बैक करके सुरक्षित कोने तक ले जाना होता था...कोई भी ड्राईवर जानता है कि कितना भी कुशल चालक क्यों न हो बैक करना अंतत: अनुमान का काम है और जमीन से सैकडों मीटर ऊपर, पतली सी सड़क पर पत्नी और छोटे बच्चों को कार में बैठाकर ऐसा अनुमान लगाना..उ..फ्फ।
खैर इस रोमांचक अनुभव के बाद हम जा पहुंचे सांग्ला (2680 मीटर) जो एक तरह से एंटी क्लाइमेक्स सा था जब तक कि हमने चिटकुल (3460 मीटर) की ओर रुख नहीं किया जो 26 किमी दूर है। ये रास्ता ट्रक रूपी दानवों से मुक्त था और बेहद मोहक था। चिटकुल सांग्ला क्षेत्र का अंतिम गांव है जिसके ढाबे पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा है हिंदुस्तान का आखरी ढाबा-चाय 4 रूपै। ये था हमारा अंतिम पड़ाव और यहाँ से हमारी वापसी की यात्रा शुरू....।
11 comments:
वाह, बड़ा बढ़िया विवरण रहा...तो आप भारत के अंतिम ढ़ाबे की चाय का लुत्फ भरपूर जोखिम उठा कर ले ही आये.
विवरण से राह बड़ी खतरनाक लग रही है. पढ़ कर और तस्वीर देखकर ही संतोष धरे रहेंगे. इतना जोखिम लेकर जाने से तो रहे.. :)
बहुत बढ़िया रहा आपका वर्णन ... अब तो लगता है हमको आपसे ही सीखनी पड़ेगी ड्राइविंग ... बोलिये कब से आ जायें.
कमाल की आपकी ड्राइविंग और उतने ही अच्छे फोटो है। विवरण पढ़ते हुए लगा मानो हम भी यात्रा कर रहे है।
हम तो कपकंपायमान गति को प्राप्त हुये. इत्ती जोखें जान को, काहे जायें वहां?
आपका हौसला खूब है.
बढ़िया यात्रा वृत्तांत दिया, जानकारी भरा और रोमांचक भी!
(हँसो मत यार)
क्यों?
जानकारी के लिए धन्यवाद।
अच्छा ब्यौरा दिया। हमारा तो जब भी गांव जाना होता है ऐसे ही रास्तों से पाला पड़ता है, ये बात अलग कि हम बस में जाते हैं। :)
पसंद करने के लिए मित्रों का शुक्रिया। ये केवल ड्राईवरी नजर से बताया गया ब्यौरा है। हमने कवि नजर और अन्य तरीके से भी किन्नौर को अनुभव किया है उसका भी ब्यौरा दिया जाएगा।
काफी रोमांचक सफर रहा...उससे भी अच्छा विवरण किसी रोमाँचक कहानी से कम नही..चाय का स्वाद का सफर भी जोखिम भरा रहा.चित्र बढिया हैँ..और भी होने चाहिये थे..कम से कम उस ढाबे का फोटो..जिसके हिज्जे थे "हिंदुस्तान का आखरी ढाबा-चाय 4 रूपै।"
विजेंद्रजी यही तो कहानी का सैड पार्ट रहा। कुल जमा 360 फोटो खींचे, लेकिन सबसे खूबसूरत हिस्से यानि चिटकुल के पास जब कैमरा निकाला तो याद आया कि ...धत तेरे की...कैमरे की बैटरी गेस्ट हाऊस में चार्ज होती छोड़ आए हैं। रास्ते के संयोग से मिले एक मित्र के कैमरे में वहॉं की कुछ तस्वीरें हैं...अभी मिली नहीं।
जोख़िम भरी यात्राएँ ... और नाज़ुक से वाहन ... रोमाँचित कर गया सारा यात्रा वर्णन...हमारे दोनो बेटे जो भारत दर्शन इस तरह से करना चाहते हैं..उन्हे पहले आपका शार्गिद बनाएँगे तभी इजाज़त देंगे..
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