Friday, May 25, 2007

मायावती से कौन डरता है



तमाम आकलनों को धता बताकर कैसे मायावती उप्र के सिहांसन पर आरूढ़ हो गई हैं- ये अब एक पुरानी खबर है। हिंदी चिट्ठाकारों में भी सृजन व अन्‍यों ने इसका पर्याप्‍त संतुलित विश्‍लेषण किया और एक प्रकार से इस घटनाक्रम की ऐतिहासिकता से सहमति जाहिर की है। किंतु दूसरी ओर अंग्रेजी का चिट्ठाकार जगत अभी तक इस ‘सदमे’ से उबर नही पाया है। एक लेख भारतीय अंगेजी चिट्टाजगत में आजकल खूब चर्चा में है। आई.बी.एन के ब्‍लॉग्स में से एक पर हिंदौल सेनगुप्‍ता ने ‘मैं मायावती से क्‍यों डरता हूँ’ शीर्षक से एक लेख लिखा है। अजी लेख क्‍या है, मध्‍यवर्गीय आभिजात्‍य पूर्वाग्रहों की नंगी घोषणा है। कुल जमा तर्क यह कि मायावती की जीत ‘हम’ पढें लिखे मध्‍यवर्गीय कान्‍वेंट शिक्षित, मेहनती लोगों के हाशिए पर चले जाने की घोषणा है। आगे यह भी कहा कि जिस दिन बहनजी या लालू टाईप लोग देश के प्रधानमंत्री बने उस दिन ‘हम’ बेचारों के पास सिवाय देश छोड़ने के कोई उपाय न होगा। शिवम ने काफिला में इस पर अपनी प्रतिक्रिया लिखी है।

यूँ अंग्रेजी पत्रकारिता में इस प्रकार का अभिजातपन कोई नई बात नहीं है और सारी अंगेजी पत्रकारिता इससे पगी हुई भी नहीं है, लेकिन फिर भी यह लेख इस मायने में खास है कि यह इस बात को रेखाकिंत करता है कि अब वे भय की बात करने लगे हैं। न लालू मेरे प्रिय नेता हैं न मायावती ही हमें कोई खास पसंद हैं, लेकिन अगर इनमें से किसी के प्रधानमंत्री बनने से देश सेनगुप्‍ता जैसी खरपतवारों से मुक्‍त हो जाएगा तो मैं इनके प्रधानमंत्री बनने का खुशी से स्‍वागत करूंगा।

2 comments:

Divine India said...

पहले तो कांशी राम ही डरते थे अब दिल्ली कांप रही है…माया के इस नये तेवर से!!

Gyan Dutt Pandey said...

मेरी सोच का अभिजात्य होने या मायावती जी से कुछ लेना-देना नहीं है. और ऐसा भी नहीं कि इन तथाकथित माटी की गन्ध वाले नेताओं से मुझे कोई ईर्ष्या/द्वेश/जलन/चिढ है. पर देश की राजनीति जिस प्रकार से चल रही है और जिस प्रकार का दोमुहां पन दीखता है या एक्सेंचुयेट होता जा रहा है; उसे देख कर यह विचार अब बारम्बर मन में आता है कि इस देश में जन्म लेकर या देश प्रेम के नाम पर इसमें टिक कर कहीं कोई गलती तो नहीं कर दी. आप जिन लोगों के अंग्रेजी लेखन को व्यंग का निशाना बना रहे हैं; उनकी सोच वे जानें. पर अंग्रेजी में लिखना अपने आप में गुनाह नहीं है. अपने को गंवई/देसी बता कर जनता को मैनीप्युलेट करना, खुद गंवई अन्दाज में बात कर अपनी अगली पीढ़ी अभिजात्य बनाना या प्रजातांत्रिक संस्थानों का थोक/बन्धुआ वोट बैंक के सहारे दोहन करना - यह न इंटेलेक्चुअल ऑनेस्टी है न ठेठ ईमानदारी.

सॉरी, मै आपसे सहमत नहीं हूं.