दिल्ली कॉलेज (अब इसका नाम जाकिर हुसैन कॉलेज है) को दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना से पहले ही अस्तित्व में होने का गौरव प्राप्त है। यह शिक्षण संस्था स्वयं में तीन सौ सालों का इतिहास संजोए है। 18वीं सदी के अंतिम वर्षों में बादशाह औरंगजेब के दक्कन के एक सिपहसलार गजिउद्दीन खान के संरक्षण में यह मदरसा गाजिउद्दीन के नाम से जाना जाता था। कॉलेज के पुराने परिसर में एक मस्जिद के साथ साथ गजिउद्दीन की मजार आज भी विद्यमान है। फिर मुगल शासन के अंतिम चरण की शुरूआत हुई और इसने दिल्ली शहर की सास्कृतिक व शैक्षिक जिंदगी को भी प्रभावित किया जिससे कॉलेज भी प्रभावित हुआ। कॉलेज पर संकट के बादल छाने लगे किंतु शहर की बौद्धिक जमात की दिलचस्पी के परिणामस्वरूप 1792 में ओरिएन्टल कॉलेज के रूप में पुनर्व्यवस्थित होने पर इस कॉलेज ने साहित्य, कला एवं विज्ञान के प्राच्य कॉलेज के रूप में ख्याति प्राप्त की। बाद में यह एंग्लो अरेबिक कॉलेज के रूप में जाना गया। इस कॉलेज में भाषा, तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र, दर्शन, ज्योतिष और चिकित्सा की पढ़ाई होती थी।
मुगल साम्राज्य का पतन हो चुका था और औरंगजेब के परवर्ती शासक नाममात्र के शासक थे। इसी दौरान सन 1824 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस कॉलेज से ही एक नवीन आधुनिक कॉलेज को खड़ा किया और इसे दिल्ली कॉलेज का नाम दिया गया। अगले 150 सालों तक, यानि 1975 तक यह दिल्ली कॉलेज के नाम से ही प्रसिद्ध रहा। 1824 में ही अवध के वजीर नवाब इत्मदुद्दौला ने 1,70,000 रुपए का अनुदान यहॉं शास्त्रीय भाषाओं अरबी, फारसी और संस्कृत के विभागों को मजबूत करने के लिए दिया।
इस कॉलेज के इतिहास का दिल्ली शहर के इतिहास से अटूट संबंध है। यह संस्थान इतिहास के अनेक उतार चढ़ावों का साक्षी रहा है। एक ओर 1857 व 1947 की ऐतिहासिक घटनाओं ने कॉलेज को गहरे प्रभावित किया जबकि दूसरी ओर 19वीं सदी सृजनात्मक उभार का वह दौर जो दिल्ली नवजागरण के रूप में प्रसिद्ध है, उसकी गतिविधियों का केंद्र भी यही कॉलेज था। इस काल में कॉलेज ने प्रगतिशील आदर्शों के निर्माण में अहम भूमिका अदा की। यही वह संस्थान था जिसने 1824 में एक विषय के रूप में अंग्रेजी पढ़ाए जाने की शुरूआत करने का साहसिक निर्णय लिया था जो उस जमाने के लिहाज से एक खासा विवादित मुद्दा था। 1843 में कॉलेज में दिल्ली वर्नाक्यूलर सोसाइटी की स्थापना हुई जिसके माध्यम से अनेक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक व गणितीय ग्रंथों, शास्त्रीय ग्रीक साहित्य एवं फारसी कृतियों का उस जमाने की जनभाषा उर्दू में अनुवाद हुआ।
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति एवं महान शिक्षाविद् डा. जाकिर हुसैन की महत भूमिका का सम्मान करते हुए 1975 में कालेज का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया गया। अगले डेढ़ दशक बाद जाकिर हुसैन कॉलेज अपने वर्तमान परिसर मे स्थानांतरित हो गया। आज जाकिर हुसैन कॉलेज भौगोलिक एवं प्रतीकात्मक रूप से ऐसे स्थान पर है जो पुरानी दिल्ली को नई दिल्ली से जोड़ता है इस प्रकार प्राचीन परंपरा एवं नित नवीन प्रगति व आधुनिकता के बीच समन्वय को द्योतित करता है।
1925 में कॉलेज को नवस्थापित दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध कर दिया गया। इस कॉलेज ने शिक्षा के प्रचार प्रसार में निरंतर एक केंद्रीय भूमिका अदा की है, चाहे वह स्त्री शिक्षा का क्षेत्र हो अथवा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के निर्माण का या फिर भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के परस्पर अनुवाद का।
दिल्ली नवजागरण के केंद्र के रूप में दिल्ली कालेज की विरासत को स्वीकार करते हुए आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस ने हाल ही में एक विद्वतापूर्ण शोधग्रंथ प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है- ‘द दिल्ली कॉलेज: ट्रेडिशनल इलीट्स, द कोलोनियल स्टेट एंड एजूकेशन विफोर 1857’।
यह ग्रंथ उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ब्रिटिश शिक्षा नीति एवं पारंपरिक शिक्षा की पृष्ठभूमि में दिल्ली कॉलेज की विरासत की पड़ताल करता है। इसमें कॉलेज और इससे जुड़े लोगों के जरिए तत्कालीन दिल्ली के समाज पर अलग अलग नजरिए से विचार किया गया है। पुस्तक का संपादकीय सुस्थापित विद्वान मार्ग्रिट पर्नाउ ने लिखा है। यह पुस्तक इतिहास, समाजशास्त्र, शिक्षा एवं साहित्य के शोधार्थियों व विद्यार्थियों के लिए अत्यधिक उपयोगी है विशेषकर उनके लिए जिनकी रुचि संस्थाई इतिहास, उर्दू भाषा के विकास अथवा दिल्ली के इतिहास में है।
वैसे दिल्ली के इतिहास पर लिखी कोई भी पुस्तक शायद ही इस कॉलेज की उपेक्षा कर सके क्योंकि मुगलकालीन दिल्ली के जीवन का पूरा परिचय केवल इसी संस्थान से मिल पाता है। इस कॉलेज ने गालिब और मीर को खुद सुना और अब तक बचा रखा है (वैसे ‘गालिब ने इस कॉलेज में पढ़ाया है’ किवंदती की, असलियत यह है कि उन्हें ऐसा कोई प्रस्ताव ससम्मान दिया ही नहीं गया था किंतु वे इस कॉलेज के उत्कर्ष के दिनों में दिल्ली में सक्रिय थे और दिल्ली नवजागरण का हिस्सा हैं जिसका यह कॉलेज केंद्र रहा है।
जहॉं तक मेरे इस कॉलेज से संबंध की बात है...एक सीधा संबंध यह है कि मैं इस कॉलेज में विद्यार्थियों को कबीर, सूर, दिनकर, प्रसाद, रूपिम, स्वनिम, वाक्य पढ़ाता हूँ। लेकिन उससे भी गहरा संबंध यह है कि ये सब मैंने 1990-93 में इसी कॉलेज में सीखे थे। मदरसा गजिउद्दीन वाली इमारत में पढ़े विद्यार्थियों का अंतिम बैच हमारा ही था, हमने एक साल मजारों और बलुआ पत्थर वाली पुरानी इमारत में और शेष दो साल नई चमचमाती सुविधा संपन्न इमारत में बिताए थे। और यहीं दिसंबर 1992 में भी मैं छात्र था ओर सीखा कि कैसे गहरी नींव की संस्थाए इतिहास के धक्कों को सह जाती हैं। यहीं मुझे पता लगा कि 1857 के विद्रोह में पहले विद्रोहियों ने इस कॉलेज के प्रिसीपल व कई शिक्षकों मार दिया (वे अंगेज थे) और गदर के बाद बदला लेने के उपक्रम में अंगेजों ने कॉलेज को ही तहस नहस कर दिया, विद्यार्थियों ओर शिक्षकों को फांसी चढ़ाया गया और कॉलेज को बंद कर दिया गया। कॉलेज फिर उठ खड़ा हुआ।
1947 के विभाजन ने तो कॉलेज को तोड़ ही दिया था, पुरानी दिल्ली का कॉलेज था और बहुत से शिक्षक व विद्यार्थी पाकिस्तान चले गए और वहॉं के लाहौर कॉलेज को उन्होंने चुना। लेकिन तब भी डा. बेग जैसे लोग यहीं रहे और इस कॉलेज ने अपने दरवाजे पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के लिए खोल दिए। उन्हें बिना प्रमाणपत्रों के ही प्रवेश दे दिए गए और पढ़ाई जारी
यह कॉलेज अपनी संस्कृति में दिल्ली का प्रतिनिधित्व कर पाता है क्योंकि इसमें विरोधों के समन्वय की अद्भुत शक्ति है। इसमें एडवांस्ड टिश्यू कल्चर लैब में प्रयोग करने के बाद छात्राएं सहजता से अपना बुरका पहनती हैं और रिक्शे पर सवार हो जाती हैं। हिंदू-मुसलमान प्रेम प्रसंग जितने इस कॉलेज ने देखे हैं उतने तो बॉलीवुड ने भी नहीं। और भी बहुत कुछ है जो इस शहर में है और इसीलिए कॉलेज में भी....कोई हैरानी नहीं कि हमारे शिक्षक श्री भीष्म साहनी यहॉं ‘तमस’ लिख पाए क्योंकि वह इतिहास ही तो है..और उनके संस्थान के हर पत्ते और पत्थर के पास ये कथाएं थी।
पुरानी इमारत से स्थापत्य के कुछ नमूने:
खुला प्रांगण, आज भी कॉलेज का छात्रावास इसी इमारत में चलता है और इस ओर खुलता है।
एक पुरानी तस्वीर, सामने के गलियारों में आजकल एंग्लो अरेबिक स्कूल चलता है।