Thursday, February 14, 2008

कमलानगर की जलेबी में कड़वा फोर्डीय शीरा और रम भरी चाकलेट की मिठास...

अविनाश ने दो बार मोहल्‍ले पर और एक बार भड़ास पर ब्‍लॉगसंगत की सूचना दी थी। हम पहुँचे। मुख्‍य आकर्षण सुनील दीपक का वहॉं होना था। सुनील दीपक हमारे पसंदीदा चिट्ठाकार हैं और आज से नहीं वर्षों से हैं। तो सराए से जब लौटे तो हमारे कंप्‍यूटर में राकेश से मांगी हुई कुछ तसवीरें थीं। सुनीलजी से मिली रम वाली कुछ इतालवी चाकलेट थीं और सुखद यादें भी थीं] अच्छी बैठक थी। हॉं सराए के पैसे की जलेबियॉं और समोसे तथा एक प्‍याला चाय भी भकोसीं थीं। घर पहुँचकर भड़ास की पोस्‍ट दिखी-

विदेशी धन(फोर्ड फाउन्डेशन जैसी संस्थाओं के पैसे से) पर चलने वाली दुकानों से अविनाश जैसों का लगाव देख कर दुख हो रहा है। सराय , csds जैसी दुकानों के द्वारा बौद्धिक साम्राज्यवाद कैसे फैलाया जाता है उससे हिन्दी चिट्ठेकारों को सावधान होना होगा। मसिजीवी - नीलिमा अब यह भी बतायें कि 'चोखेर बाली'का 'सराय' जैसी दुकान से कोई सम्बन्ध है या नहीं?मैथिलीजी या सुनील दीपक विदेशी फन्डिंग एजेन्सियों से धन ले कर चलने वाली दुकानों के बारे में क्या सोचते हैं-यह उन्हें बताना होगा।

चोखेर बाली किस पालिटिक्‍स से चलेगा ये आंख की किरकिरियॉं ही जानें, कम से कम अब तक हम उसके सदस्‍य नहीं हैं। IMG_0008 इसलिए हम जो कुछ लिख रहे हैं अपने बारे में लिख रहे हैं। वैसे चोखेरबाली के ऐजेंडे से हमारी सहमति है पर वक्‍त आने पर उस मामले में अपना पक्ष रखेंगे यहॉं तो उस आपत्ति पर विचार किया जाए जो अफलातूनजी उठा रहे हैं। सबसे पहले तो समझें कि मूलत: आपत्ति क्‍या है- मूल विचार यह है कि सराए और इस जैसी संस्‍थाएं जो विदेशी वित्‍त से पोषित होती हैं वे एक व्‍यापक बौद्धिक साम्राज्‍यवाद का औजार होती हैं जो जाने अनजाने इन 'फोर्ड फाउंडेशनों' के कहे अनकहे एजेंडों को ही क्रियान्वित कर रही होती हैं। इसलिए इस तरह की संस्‍थाओं से जुड़ने, इनसे पैसे लेने में नैतिक दिक्‍कतें हैं।

जिन लोगों को सराए के विषय में कम पता है वे इसकी साइट से जानकारी हासिल कर सकते हैं। जानकारी के लिए बताया जाए कि अपने चिट्ठाकारों में रवि रतलामी लगभग नियमित रूप से सराए की फैलोशिप का लाभ लेते हैं, मुझे गैर चिट्ठाकारी विषयक एक शोध परियोजना पर फैलोशिप मिल चुकी है, नीलिमा को भी ब्‍लॉग संबंधी शोध के लिए वित्‍त समर्थन सराए से मिला था। इरफान, आलोक पुराणिक, गौरी पालीवाल, नरेश, राकेश, विनीत, नीटू, शिवम, महमूद फारूकी आदि लोग (और भी हैं सभी अब याद नहीं आ रहे) जिन्‍हें कोई न कोई वित्‍तीय जुडा़व सराए से रहा है। कहने का आशय यह है कि वाकई यदि ये कोई बौद्धिक गुलामी का यंत्र चल रहा हे तो 'डेमेज इज आल्‍रेडी डन'  (हम पर तो चलो मान लो सराए ने पैसा बरबाद ही किया पर बाकी तो खासे बौद्धिक हैं)

इससे पहले कि हम इस मसले पर अपनी राय बताएं स्‍पष्‍ट कर दें कि खुद सराए के रविकांत जो सराए की हिंदी वाली गतिविधियों को निकटता से देखते हैं और दीवान नाम की मेलिंग लिस्‍ट चलाते हैं, उनसे हमने अफलातूनजी के इन सवालों को सीधा दागा था, इसलिए भी कि खुद हमें भी ये सवाल परेशान करते रहे हैं- रविकांत के वे जबाव जो हमें अब तक याद रह पाए हैं वे कुछ इस तरह थे-

  1. पैसे की कोई राष्‍ट्रीयता नहीं होती, हॉं फंडिंग ऐजेंसियों की अपनी वरीयताएं होती हैं पर कम से कम हम अपने शोधकर्ताओं को पूरी आजादी देते हैं, हमारा ऐजेंडा हम खुद तय करते हैं और फिर उसके अनुकूल फंडर खोजते हैं।
  2. लोकलाइजेशन व क्षेत्रीय भाषाओं के कार्यक्रमों में जो काम सराए ने किया है वह साम्राज्‍यवाद के प्रतिरोध में है
  3. संवाद क प्रक्रियाओं से चीजें अपनी राह खुद बना लेती हैं
  4. रजनी कोठारी, आशीष नंदी, योगेन्‍द्र यादव, शाहिद, अभय कुमार दुबे .... क्‍या इन नामों से ये उम्‍मीद की जा सकती हे कि ये बोद्धिक रूप से खरीदे बेचे जा सकते हैं या ये किसी अन्‍य से कम प्रतिबद्ध हैं, यदि ये आजादी से काम कर पाते हैं तो...

ऐसे ही कुछ और तर्क भी रहे होंगे। तर्क विरोध में भी होंगे। हमारा कहना बस इतना है कि शायद नैतिक अपेक्षाओं का ही समय नहीं रहा है। मेरा मन अफलूजी से सहमत होने का करता है पर मेरे अनुभव में ऐसा कुछ नहीं है कि मेरे काम के दौरान मुझ पर कोई दबाब था। पर यह भी सही है कि इन पुरानी शोधवृत्तियों के विषयों को छान जाइए आपको शायद ही कोई विषय ऐसा दिखे जो सामूहिक प्रति‍रोधपरक चेतना का समर्थन करता दिखाई दे। आम तौर पर वैयक्तिता, उद्यमशीलता, निजी पाठों और निजी रचनाधर्मिता को ही बौद्धिक विमर्श के केंद्र में लाते विषय हैं। मतलब बहस अभी चालू आहे। ये भी सही है कि अब देशी-विदेशी धन की शब्दावली में बात ही कौन करता है।

हॉं संगत के दौरान सुनीलजी ने हम सबको चाकलेट खिलाई- ये चाकलेट जाहिर है विदेशी थी और चूंकि उसमें रम भरी थी इसलिए कड़वी भी थी पर इन्‍हें भेंट करते शख्‍स का दिल बिल्‍कुल देसी है जनाब। दूसरी तरफ सराए के पैसों से आई जलेबी कमलानगर से आई थी, इसमें देसी चाशनी भरी थी और ये मीठी थी, कोई कड़वाहट नहीं लेकिन पैसा तो फोर्ड फाउंडेशन का ही था क्‍या मुझे कुछ कसैला लगना चाहिए ?   बहुतई कन्‍फ्यूजन है सर।।

11 comments:

azdak said...

वैसे सर्वविदित सच्‍चाई जो है यहां अफलातून भाई कह रहे हैं, अन्‍य जगह और लोग कहते रहे हैं. सवाल यह नहीं है कि सराय के पीछे पैसा फोर्ड फाउंडेशन का है, सवाल यह है कि कुछ लोगों को जो अपने कांखने में भी वैचारिक आग्रहों का दावा करते हैं, ऐसी स्‍वछंदता से इन जगहों कूद-फांद करें तो उसमें सीधे दोहरे मानदंड देखे जाने चाहिएं. देखे क्‍या जाने चाहिए, मुझे दिखते हैं.

विनीत कुमार said...

सरजी,विदेशी फंडिंग वाली बात तो समझ में आती है लेकिन वहां के फंड मिलने से आदमी मानसिक रुप से गुलाम हो जाएगा और साम्राज्यवाद को अनिवार्यता बढ़वा देगा,ये तो मगज वाली बात लगती है,कम से कम सराय के संबंध में। मिसनरी स्कूल में भेजते समय मेरी मां ऐसी ही सोचती थी कि जाकर क्रिस्तानी हो जाएगा, लेकिन जो हूं आपके सामने हूं। हमसे तो कोई एग्रीमेंट नहीं लिखवाया था सराय ने कि फंड मिलने के बाद आप हमेशा अमेरिका या फिर साम्राज्यवाद की नीतियों का समर्थन करेंगे। और जो भी लोग वहां से जुड़ते हैंस उन्हें रिसर्च के मामले में एक नई आजादी मिलती है जो कि मेरे जानते यूनिवर्सिटी में भी नहीं है। इसलिए जबरदस्ती का हॉय-हॉय करने का कोई मतलब नहीं है। और फिर स्वदेशी जागरण वालों की तरह पर्चा लेकर स्वदेशी,विदेशी का विभाजन इस ग्लोबल फेज में करना बड़ा ही इम्मैच्योर एप्रोच है। वो

Anonymous said...

मसिजीवी आपकी कई बातों से सहमत होना मुश्किल है. विनीत तो निपट अनाड़ी की तरह बात कर रहे हैं वे जो टिप्पणी कर रहे हैं उससे साफ होता है कि वे उस खेल के बारे में कुछ नहीं जानते जिसका शिकार लगभग हर बुद्धिजीवी है.

सामाजिक कार्यों और लिखत-पढ़त में विदेशी पैसे का अर्थशास्त्र इतनी जल्दी समझ में नहीं आता. जब तक समझ में आता है तब तक वह पैसा आपकी कमजोरी बन चुका होता है और उसे सही ठहराने के लिए हम तर्क गढ़ने लगते हैं.

और अगर कोई अपना ही सवाल खड़ा करे तो हम उसे गलत साबित करने में जुट जाते हैं. यह विदेशी पैसे का प्रभाव नहीं तो और क्या है?

सुजाता said...

ब्लोग संगत कहीं और भी होती है तो हम कूद फान्द करते हैं वहँ भी अफलातून जी ।
वैसे ,
चोख्रेर बाली कहाँ क्यूँ जाए यह सार्वजनिक रूप से पूछा जाएगा ? अगर ऐसा है तो उत्तर देने की मुझे ज़रूरत नही ।
अपने मानदण्ड आप स्वयम दिखा रहे हैं । अगर नही तो
अब पूछिये
इरफान का क्या लेना देना
भूपेन का क्या लेना देना
सुनील जी का , अर्चना वर्मा का क्या लेना देना ।
हद है !!
चोख्रेर बाली हडबडी में है । पोस्ट पे पोस्ट ठेल रहे हैं । कंफ्यूज़्ड हैं .....और अब क्या सम्बंध है सराय से ...........

आखिर मर्दवादी साबित किया खुद को आप लोगो ने।यही तो करते हो घर पर बहन पत्नी के साथ

किस्के साथ क्यू है बहन । वह तो गुंडा है , उसके साथ तू क्या कर रही थी ? बता तेरे मन मे क्या है ?

रवि रतलामी said...

दरअसल लोगबाग हवा में मुंह उठाकर सीधे सर्वज्ञ, सर्वज्ञानी की तरह बातें करते हैं खासकर बिना सोचे समझे, और विषय वस्तु का अध्ययन किए बगैर, तब इस तरह की बातें हो जाती हैं.

हम आप अकसर ऐसी बातें कभी न कभी कह जाते हैं... जैसी कि सराय के विदेशी फन्ड के लिए कही गई है. लोग कुछ भी कहने को स्वतंत्र हैं. बात ये है कि उनका नोटिस लिया जाना चाहिए या नहीं?

यूँ सराय में बहुत से काम हुए हैं , और सराय की साइट पर अब तक की स्वीकृत फेलोशिप की सूची भी है जिसे कोई भी देख पढ़ सकता है - मैं अपनी बात करूंगा - मुक्त स्रोत हिन्दी लिनक्स परियोजना हेतु सराय से नियमित, निरंतर फेलोशिप मिलती रही है, और जो आज रूप हिन्दी लिनक्स का है, यदि सराय नहीं होता तो उसका वो रूप कतई नहीं होता. मुक्त स्रोत की दुनिया में हिन्दी नजर आने को अभी भी संधर्षरत होती.

वैसे, बहुत सी बातें आपने और विनीत जी ने कह ही दी हैं...

रवि रतलामी said...

और, हाँ, ऊपर की टिप्पणी लिखते लिखते सुजाता जी ने भी बेहतर जवाब दे ही दिया है...

Neelima said...

अफलातून जी ,
आपको अलग से पोस्ट लिख कर उत्तर देना ठीक रहेगा !पर यहां साफ दिख रहा है कि हमारे समाज में किसी भी स्त्री विमर्श को ऎसे की लांछ्नापूर्ण , लिजलिजे थोथे सवालों ,शकों से देखा और गिराया जाता है !

azdak said...

अरे, यहां तो बड़ा उखड़ा-उखड़ी का माहौल है, भाई.. फोर्ड फाउंडेशन के पैसों से अफलातून भाई को एतराज़ है, संजय को भी है वह दिख रहा है, बाकी किसको है? मुझे तो नहीं है. दिल्‍ली में था तो सराय मैं खुद गया था कि कहीं कुछ पैसा-वैसा निकलता हो तो रवि भैया, निकलवाओ. रवि भैया हंसते रहे, पैसा निकलवाया नहीं. मगर जहां तक फंडिंग की बात है दुनिया में ऐसी ढेरों एजेंसियां हैं जो बुद्धिजीवियों को विमर्श में लगाये रखने के पैसे देती हैं, बस एक महीन सी अंडरकोटिंग उसमें यह रहती है कि खूब सारा विमर्श चलता रहे, वह सोशल पॉलिटिकल एक्टिविज़्म के रास्‍ते अपनी बेचैनियों को ट्रांसलेट करने का जरिया न बने. बस इतनी सी बात है, इसको जो समझना इंटरप्रेट करना चाहता हो, करे. बा‍की फिर एक गरीब फटेहाल मुल्‍क में पैसों से किसे परेशानी है? मुझे तो नहीं है! हालांकि कोई दे नहीं रहा है..

Neelima said...

खूब सारा विमर्श चलता रहे, वह सोशल पॉलिटिकल एक्टिविज़्म के रास्‍ते अपनी बेचैनियों को ट्रांसलेट करने का जरिया न बने. ----

सही बात पकडी और कही प्रमोद जी !!

Priyankar said...

आदर्श के क्लियरिंग एजेंट और होलसेल डीलर प्रमोद का 'समरशॉल्ट' रोचक लगा . अफ़लातून भाई का सवाल अब भी अपनी जगह खड़ा घूर रहा है .

बाकी लोगों की नमकहलाली बोल रही है . सो कोई बुरा मानने की बात नहीं है .

राजस्थानी में कहावत है : 'जीका खावै घूघरा,बीका गावै गीत' . अब जब बुलउआ लगेगा,ढोलक बजेगी तो गीत भी बतासा-खड़पुड़ी बांटने वाली गृहस्वामिनी की रुचि और उसके घर के अवसर के अनुकूल ही गाए जाएंगे .

पैसे के रंग और राष्ट्रीयता के बारे में जानकारी से ज्ञानवर्धन हुआ .

हां! उन्नीसवीं सदी के 'ओरिएंटलिस्टों' ने भी देश का कुछ तो भला किया ही . वैसा ही कुछ भला सराय से भी हो रहा होगा इससे इन्कार क्या करना .

पूंजी के कॉस्मिक-नाच के सुंदर समय में पैसों के अफ़लातूनी-अपमान से पनपा क्रोध थूक देने और रंग में भंग डालने वाले अफ़लातून को माफ़ करने की अपील करता हूं चचा गालिब के शब्दों में :

अगले वक्तों के हैं यह लोग,इन्हें कुछ न कहो,
जो मै-ओ-नग्मः को अन्दोहरुबा कहते हैं ।


चलते-चलते गालिब का एक और शेर अर्ज़ है :

गालिब वजीफाख्वार हो,दो शाह को दुआ,
वह दिन गए कि कहते थे,नौकर नहीं हूं मैं।

मसिजीवी said...

बात हो इसलिए ही तो लिखा था पर बबाल हो इसलिए नहीं।
पहली बात कृपया ध्‍यान दें हमने अफलातूनजी को कोई जबाव नहीं दिया है..एक एक कर दिए गए उत्‍तर वे हैं जो हमें सराए की पेरवी में रविकांतजी ने दिए..हम उनसे सहमत हैं ऐसा हमने नहीं कहा।(हम तो कन्‍फ्यूज भर हैं)

हम इसलिए भी कनफ्यूज कहे जा सकते हैं कि हम मनसा तो मानते हैं कि प्रियंकर, संजय ओर अफलातून की बातों में रविकांत की बातों से ज्‍यादा दम है। ये भी सही है कि विनीत व रवि बात का जबाव नहीं दे रहे हैं बस बचपने जैसे तर्क भर सरका रहे हैं जो उन महीन धागों की व्‍याख्‍या नहीं करते जिनका उल्‍लेख प्रमोद कर रहे हैं।
चुहल भर के ही लिए याद दिला रहा हूँ कि दिल्‍ली में सराए को चुके हुए क्रांतिकारियों की पुनर्वास बस्ती कहा ही जाता है। हम तो खैर कभी क्रांति की मरीचिका में फंसे नहीं पर किसी निर्दोषता का दावा नहीं ठोक रहे।
वैसे सरकार भी तो इसी तरह की पूंजी से चल ही रही है...सारी अर्थव्‍यवस्‍था भी...कौन है मानसिक साम्राज्‍यवाद से मुक्‍त।