जासूसी उपन्यास हर किसी की तरह हमने भी पढ़े हैं पर दिल्ली की कच्ची बस्ितयों में, जहॉं हमने उम्र का वह हिस्सा बिताया हे जिसमें लोग जासूसी उपन्यासों की बारीकियों को पढ़ते समझते हैं, वहॉं केवल हिन्दी के सस्ते किस्म के उपन्यास ही मिला करते थे। वेदप्रकाश शर्मा या राजन इकबाल सीरीज वगैरह...यानि हमारा ज्ञान इस मामले में उथला है। प्रमोदजी के मारके का तो नहीं ही है। इसलिए कुछ दिन पहले जब उदयप्रकाश ने एक जासूसी उपन्यास के हवाले से मर्डर मिस्ट्री का सिद्धांत समझाते हुए कहा कि कत्ल के केस में सबसे पहले ये जानना जरूरी है कि शिकार कौन था, उससे भी जयादा यह कि उसमें खास क्या था। क्योंकि यदि उसका कत्ल हुआ हे तो उसका खास होना जरूरी है...ही गॉट टू बी समबोडी...ही कैननोट बी नोबोडी...ओन्ली समबोडी इज़ मर्डर्ड...नोबोडी इज़ नेवर मर्डर्ड।
एक मायने में मैंने राहत महसूस की। मेरे कत्ल होने की गुंजाइश कम है। शहर में नोबोडी होना बहुत आसान है यहॉं सभी नोबोडी होते हैं। मैं बार बार महानगर की जिस सुखद ऐनोनिमिटी का जिक्र करता हूँ वह इससे ही उपजती है। जैसे ही कोई समबोडी होने की राह पर चलता है बाकी सारे समबोडी (और नोबोडी) इस समबोडी से दिक्कत में आते हैं और आगे की घटनाएं होती हैं।
अभी छोटे शहर जैसे हैं हम। बहुत जल्द ही अपने समबोडी होने का भ्रम पाल लेते हैं और नोबोडी तो हमें कष्ट नहीं देते पर हम समबोडी से परेशान हो जाते हैं। है कि नहीं ?
ये सब पुराण क्यों? बस ऐसे ही।
बस ऐसे ही यह भी कि हाल की जगह घेरने की कवायद में (जिन्हें लगा हो कि मोहल्ला भड़ास बस यूँ ही भिड़ गए, उनके भोलेपन से मैं केवल ईर्ष्या ही कर सकता हूँ) मुझे जिस बात से पुरजोर हैरानी हुई वह यह भी थी कि चोखेरबालियों को पैटर्नाइज करने(की कोशिश) के लिए उत्सुक इतने लोग कहॉं से आ गए (ये तो भारत में स्त्री संवेदनशील कुल जनसं. का एक सौ पांच प्रतिशत था)। खैर ये पतनशीलाएं खूब चेतस हैं...वे भी इसे देख ही चुकी होंगी। दे नाउ डिजर्व टू वी मर्डर्ड। इट्स नॉट इजी टू बी समबोडी एंड सर्वाइव।
2 comments:
वैसे मेरा मानना है कि ऐनीबोडी केन बी मर्डर्ड ...बिकॉज एवरीबोडी इज़ समबोडी फॉर समवन..नोबोडी इज़ नोबोडी इन दिस वर्ल्ड. बाकि तो आप ठीक कह रहे हैं.
masijeevi jee,
sach kahein aap to kathjeeve hain jee magar jaise bhee hamein hamein to pasand hain jee.
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