बिटिया पढ़ना अभी सीख ही रही है इसलिए जो संदेश उसकी स्कूल डायरी में नत्थी किया गया था उसकी इबारत से अनजान थी। पर उसमें लिखे संदेश का मर्म उस तक पहुँचा दिया गया था। कक्षा में उसकी अध्यापिका ने कक्षा को समझाया था कि किसी भी व्यक्ति से कोई टॉफी, चाकलेट या किसी तरह का गिफ्ट न लें। गंदे लोग इसमें बॉम्ब रख सकते हैं आदि आदि। डायरी का संदेश इस तरह है-
दरअसल तीन दिन पहले की अखबारों की रिपोर्ट थी कि अब दिल्ली में आतंकवादियों का अगला निशाना स्कूल हो सकते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस ने स्कूलों को आगाह किया है कि वे सुरक्षात्मक उपाय करें। स्कूलों पर आतंकी हमला, सिहरन पैदा करने वाली आशंका है। नन्हें खिलखिलाते बच्चों को कोई निशाना भला कैसे बना सकता है। पर ये बात कहते हुए भी हमें पता है कि बात बेतुकी है। इन ताकतों पर कोई तर्क काम नहीं करता। पर सच कहें कि इस डायरी-नोट की छाया में बच्चे को स्कूल भेजते रूह कांपती है। इतना लंबा चौड़ा स्कूल हजारों बच्चे, हजारों स्कूल बैग, बीसियों स्कूल बस, टिफिन, खेल का सामान और ये सब तो बस एक ही स्कूल में, ऐसे सैकड़ों स्कूल है शहर भर में- ऐसे डायरी नोट की आशंका में बेचैन होने वाला पिता मैं अकेला तो नहीं। अब अगर कोई शैतान तय कर ही ले तो उसके लिए क्या मुश्किल है एक बम को सरका देना .... उफ्फ।
लेकिन जब फलक को थोड़ा विस्तार देते हैं तो लगता है कि बचपन पर ऐसी तलवारें तो पूरी दुनिया में हैं। फिलीस्तीन, अफगानिस्तान या इराक के बच्चे जिन्हें कोई स्कूल या तो नसीब नहीं और है तो भी उनके सुरक्षित से सुरक्षित स्कूल हमारे स्कूलों से ज्यादा असुरक्षित हैं। खुद हमारे देश के कई हिस्से वर्षों से इस हिंसा के शिकार हैं। सुना है इराक में बच्चे उन मैदानों में खेलते हैं जिनमें बारूदी सुरंगे होने की आशंका है। जब अनुराधा ने कहा कि भगदड़, आतंकवाद आदि घटनाओं को देखने का एक नजरिया औरतों जैसे हाशिए के वर्गों पर उसके प्रभाव के आकलन का भी है तो लोगों को ये अति लगा। पर हम जोर देकर कहते हैं कि आतंकवाद हो, दुर्घटनाएं या फिर प्राकृतिक आपदाएं इनकी मार होती सबके लिए बुरी ही है किंतु ये मार सब पर बराबर नहीं होती।
काश हम बच्चों को सहमा देने वाले डायरी नोट्स की छाया से मुक्त बचपन दे पाएं।
13 comments:
आपकी बात वाजिब है। अच्छा किया जो आपने यहां इसे लिख दिया।
बहुत सुन्दर लिखा है। सरल शब्दों में जीवन का सम्पूर्ण निचोड़ रख दिया। बधाई
समाज विकास की दिशा वही होनी चाहिए जिस से इन आतंकों से हमें मुक्ति मिले।
"काश हम बच्चों को सहमा देने वाले डायरी नोट्स की छाया से मुक्त बचपन दे पाएं।"
आमीन.
काश, जैसा हम चाहते हैं वैसे दुनिया होती. आपकी चिन्ता और परेशानी जायज है. बस, हमारे और आपके हाथ में इतना ही है कि बच्चों को कुछ सतर्कता के उपाय बतायें.
सहमति है. शायद वो समय भी आए जब बेहद क़रीबी लोग भी एक-दुसरे भर संदेह करने लगे. कम से कम व्यवस्था वाले तो यही कोशिश कर रहे हैं.
aatank sae mukti ho bachchey surakhit ho to bhavishy sab hii ujvaal hoga aameen
bahut sahi kaha aapne....sachmuch bachche apne bachpan se mahroom ho gaye hain.
मं स्वयं सोचती हूँ कि आज के बच्चों के माता पिता को कितना सतर्क, कितना चिन्तित रहना पड़ता होगा। आतंक, नशा, बलात्कार, बच्चों का अगुवा किया जाना, फास्ट फूड्स से उपजी बीमारियाँ, टी वी, जगह की कमी, खेलने को न समय होना न जगह होना, हम इन सब समस्याओं से काफी सीमा तक बचे हुए थे। आज माता पिता होना भी एक वीरता का काम है।
घुघूती बासूती
आपकी चिँता जायज है और
आतँकवादी बेरहम दरीँदे हैँ :-(
- लावण्या
बसते के भारी बोझ और होम वर्क से दबे मासूम कन्धों पर ये सब भी लड़ गया. :(
आतंकवादी अक्सर soft target चुनते हैं, और एक पिता होने के नाते अपने परिवार,अपने बच्चे को लेकर आपकी आशंका जायज है। इस डर का अहसास हम सभी को सालती है।
vijendra ji diary me subakti bhawaishy ke bachpan ki achi partal ki hai...
prapanna
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