चलिए मान लेते हैं कि शीर्षक ज्यादा सनसनीखेज है पर अगर आप हंस के संपादक राजेंद्र यादव के विषय में बात कर रहे हों तो खुद ब खुद सनसनीखेजता आ ही जाती है, का करें कंट्रोल ई नी होता :)।
हिन्दयुग्म वार्षिकोत्सव के लिए शैलेश का इतने प्रेम से आग्रह था, उनके परिश्रम का पहले ही कायल रहा हूँ रविवार का पुस्तक बाजार भी पड़ोस में था इसलिए न जाने का सवाल नहीं था। लेकिन ये भी सच है कि राजेंद्र यादव को सुनने की भी जबरदस्त इच्छा थी। वैसे उन्हें सुनने के बेतहाशा मौके मिलते हैं, हम विश्वविद्यालय के शिक्षक हैं जो बेहद गोष्ठीबाज समुदाय होता है लेकिन ब्लॉगिंग पर उन्हें सुनने का ये पहला मौका था इसलिए छोड़ना नहीं चाहते थे। हिन्दयुग्म की कविताओं को लेकर हम बहुत उत्साही नहीं रहे हैं पर वहॉं पहुँचकर हैरानी व खुशी हुई, खासकर गौरव सोलंकी की कविता पसंद आई...पर ये भी बोनस ही था।
राजेंद्रजी को ब्लॉगिंग पर सुनने की विशेष इच्छा इसलिए थी कि मुझे लगता है कि राजेंद्र यादव मूलत: ब्लॉगर हैं, तिसमें भी ट्राल किस्म के ब्लॉगर। ये अलग बात है कि पहले पैदा हो गए, आफलाइन ही जिंदगी बिता दी (कह तो रहे हैं कि एक मित्र से सीख रहे हैं आनलाइनत्व के गुर, पर इस उम्र में अब क्या खाक मुसलमॉं होंगे) लेकिन ब्लॉगर होना एक मनोदशा है, स्टेट आफ माइंड। अगर आप बिंदास बोलते लिखते हो, गहरा सोचते हो, अपने खिलाफ सोचने वाले, बोलने वाले की इज्जत करते हो। नाकाबिले बर्दाश्त चीजों को बर्दाश्त नहीं करते तो आप समझिए कि आप ब्लॉगर मैटर से बने हुए हैं अब ब्लॉगर देह मिलेगी या नहीं ये तो ऐतिहासिक कारणों पर निर्भर करता है। कई आनलाइन प्रजाति के जीव गैर ब्लॉगर व्यवहार रखते हैं जबकि बालमुकुंद गुप्त जिनके 'शिवशम्भू के चिट्ठे' से चिट्ठा शब्द ब्लॉग का हिन्दी प्रतिशब्द बनता है वे इंटरनेट की दुनिया से सदी भर दूर होते हुए भी एड़ी से चोटी तक ब्लॉगर हैं। बिंदास कहते हैं, विरोध का जज्बा रखते हैं..;पाठक से सीधा संवाद करते हैं। राजेंद्र यादव भी यही करते हैं...इसलिए इंटरनेट सीखेंगे तब सीखेंगे ब्लॉगर वे अभी से हैं।
उनके कहे को कुछ हिन्दी के लिए शर्मिंदगी की बात मानते हैं। मानें और खुश रहें। हमें तो राजेंद्रजी की तीनों ट्रालात्मक टिप्पणियों में एक शानदार ब्लॉगिंग कौशल दिखाई देता है। बिना लागलपेट के कहें तो उन्होंने कहा-
- वे हिन्दी ब्लॉगों का स्वागत करते हैं क्योंकि इससे प्रकाशन के अयोग्य रचनाओं के लेखक हंस जैसी पत्रिकाओं के संपादक के कान खाना बंद करेंगे अब इस कूड़े को वे खुद उन्हें अपने ब्लॉग पर छाप लेंगे।
- वे खुद भी जीवन के पड़ाव पर पहुँचकर इंटरनेट- ब्लॉगिंग आदि तामझाम को सीख लेना चाहते हैं क्योंकि आखिर दोज़ख की ज़ुबान भी तो यही होगी न।
- इंटरनेटी ब्लॉगवीरों को नसीहत देते हुए कहा कि तकनीक नई सदी की और विचार सोलहवी सदी के, नहीं चलेगा...नहीं चलेगा। हिन्दी को आधुनिक बनाओ तथा मध्यकाल तक की हिन्दी के साहित्य को अजायबघर भेज दो।
पहले बिंदु पर जिसे असहमति हो वे अर्काइव छानें, ब्लॉगजगत पहले ही सहमत है कि यहॉं कूड़ा अधिक है। 80 फीसदी तो कम से कम है ही। दूसरे बिंदु पर किसी को आपत्ति का अधिकार है ही नहीं, अब रहा तीसरा बिंदु तो आधुनिकता केवल टपर टपर कीबोर्ड चलाने से आएगी नहीं, यूँ आप आनलाइन हैं लेकिन उवाचेंगे गत्यात्मक ज्योतिष, जाहिर है ये नहीं चलेगा। मध्यकालीन सोच व साहित्य, स्त्री व वंचितवर्गों के प्रति अवमाननात्मक है ये स्थापित तथ्य है, इन्हीं आधारों पर इसे अजायबघर में रखे जाने की सलाह दी गई थी। ये प्रतीकात्मक है तथा उपयुक्त है। दलित यदि तुलसी से तथा स्त्री बिहारी से तादात्मय महसूस नहीं करते तो उन्हें पूरा हक है ऐसा सोचने का। राजेंद्र इनके परिप्रेक्ष्य में ही कह रहे थे। सोलहवी सदी के विचार ब्लॉगजगत में रोजाना देखने को मिलते हैं, चोखेरबाली पर परिवारवादी, देवीवादी टिप्पणियॉं सूंघ लें सती की चिताओं की 'खुश्बू' सुंघाई दे जाएगी।
कभी न सोचा था कि राजेंद्र यादव के समर्थन में लिखूंगा क्योंकि व्यक्तिगत स्तर मुझे राजेंद्र यादव पसंद नहीं ये नापसंदगी मन्नू भंडारी प्रकरण में उनके पाखंड के कारण है लेकिन निजी नापसंद से उठने की कोशिश न करें तो कैसे चलेगा..आखिर हम भी तो ब्लॉगर हैं