स्मृति किन्हीं बहानों की मोहताज नहीं। लोग अपने गंवाए प्रियजनों को केवल उनकी बरसी पर याद करते हों, ऐसा नहीं है। किंतु फिर भी समय-आवृत्ति की स्मृति के उदृदीपन में अपनी भूमिका तो होती ही है। एक नवंम्बर भी ऐसा ही अवसर है। 1984 में मेरी उम्र 12 साल थी, कक्षा आठ में पढ़ता था और मेरी वैकल्पिक भाषा संस्कृत नहीं थी जैसा दिल्ली के स्कूलों में तब आमतौर पर होता था वरन पंजाबी थी। इसलिए मेरी कक्षा में कई सिख छात्र थे। एशियाई खेल हो चुके थे, दिल्ली के मध्यवर्ग तक रंगीन तो नहीं पर ब्लैक एंड व्हाईट टीवी पहुँच चुका था, हम आपरेशन ब्ल्यू स्टार से परिचित थे। इंदिरा गांधी, भिंडरावाले, खालिस्तान सुनी हुई संज्ञाएं थीं पर ये मेरे स्कूली खेलों को प्रभावित नहीं कर पाई थीं। ये सब सिख साथी मेरे दोस्त थे। मैंने दोस्त सुखदेव से पूछ लिया कि खालिस्तान बन गया तो क्या करोगे। मैं सुनना चाहता कि दोस्त सुखदेव सिंह कहे कि वह मुझे छोडकर किसी खालिस्तान नहीं जाएगा पर उसने कुछ सोचकर कहा कि 'मैं सभी हिंदुआं नू वड देवेंगा' इस जवाब पर तब मैंने क्या सोचा मुझे नहीं याद, पर आज सोचता हूँ कि इस बात का मतलब था कि दिलों में दीवार बढ़ रही थी, बच्चों तक भी पहुँच रही थी। लेकिन तब भी प्रभात फेरियों में हिंदू सिख शामिल होते थे।
फिर 31 अक्तूबर आया और 31 की रात को कुछ सुगबुगाहट रही होगी पर हमें पता नहीं चली। हमारे लिए इंदिरा की मौत केवल छुट्टी लाई थी। क्रिकेट खेलने पहुँच गए पर तब दोपहर तक धुएं की लकीरें दिखने लगीं। सिख विरोधी दंगे शुरू हो चुके थे। खून का बदला खून से लेंगे वह नारा था जो दंगाईयों की जुबान पर था। हमारा मोहल्ला भजनपुरा नाम का इलाका था जो यमुनापार के सबसे अधिक प्रभावित इलाके में से था। गांवड़ी की वह गली जिसे बाद में इस दंगे की सबसे अधिक प्रभावित गली के रूप में माना गया पास ही थी। गुरूद्वारों, ट्रकों, घरों को जलाना शुरू हुआ। लोग सकते में थे। अफवाहों और जलने की गंध से सारा वातावरण भरा हुआ था। पड़ोस में एक सिख परिवार था। रात को हमारा दरवाजा खटखटाया गया इस परिवार के बुजुर्ग, महिलाएं व बच्चे हमारे घर में आ गए, पुरुष लोग एक दूसरे पड़ोसी के यहॉं जाकर टिके। बड़े भाई ओर पिताजी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे पर हम बच्चों के लिए ये भी उत्सव ही था, सारा मोहल्ला छत पर था- इस तरह छतों पर उग आए मोहल्ले की तुलना मेरी माताजी ने 1978 की बाढ़ से की पर एक बड़ा फर्क यह था कि तब आपस में सहयोग था जबकि अब नफरत थी।
अगले दो दिन तक दिल्ली में वही रहा जिसे बाद में मोदी ने गुजरात में लागू किया। पुलिस चुप थी। लोग छतों से पुलिस के सिपाहियों को एक तरफ जाने को कहते ताकि कुछ लोग बचाए जा सके पर वे दूसरी ओर जाते। अपनी आंखों, लूट, तलवारें, जली लाशें देखीं। मोहल्ले का कलसी का गुरूद्वारा जला दिया गया वह और उसके तीनों लड़के मार दिए गए। घर जला दिया। कुल मिलाकर 7 लाशें निकलीं वहॉं से। दिल्ली की जनता भली-भांति जानती है, उसे किसी स्टिंग की जरूरत नहीं 1984 के दंगों में कांग्रेस शामिल थी, बिला शक। स्थानीय कांगेसी दंगों की अगुवाई कर रहे थे। इसलिए जब पिछले महीने सीबीआई ने टाईटलर के खिलाफ आरोप वापिस लिए तो तय हो गया कि मोदी के खिलाफ भी कुछ नहीं हो सकता।
स्रोत:http://www.sikhspectrum.com/012003/images/1984.jpg
मेरी स्मृति के लिए इन दंगों की विशेष भूमिका है। मुझे पता लग गया था कि दंगाई कहीं बाहर से नहीं आते। आम घरबारी लोग ही किसी दिन दंगाई बन जाते हैं। हम मौने-सरदार को मारो का खेल खेलते थे। यह भी जाना कि अच्छाई बुराई एक ही मन में होती है। इन दंगों में हिंदू और मुसलमानों दोनों ने मिलकर हत्याएं कीं जबकि पूरे देश में ये कौमें एक दूसरे को ही मारती आई हैं। सिख परिवार के घर में होने से हम डरे हुए थे इसलिए जब उन्हें राहत शिविर भेज दिया गया तो हमने राहत की सॉंस ली पर उन तीन दिनों में हम कई बार मरे। जब दोबारा स्कूल खुले तो पंजाबी की कक्षा से कई बच्चों के परिवार में लोग मारे गए थे या घर जला दिए गए थे। आज सोचता हूँ कि एक उन दंगों ने इस शहर की एक पूरी पीढ़ी से उसकी सहजता छीन ली।
टाईटलर आज भी दिल्ली के सांसद हैं।
13 comments:
वही कांग्रेस आज धर्म निरपेक्षता की राजनीति करती है..वो हमें भाजपा की साम्प्रदायिकता से बचाना चाहती है.. क्या किया जाय.. सबसे बड़ी तक़लीफ़ तो तब होती है जब साम्प्रदायिक मन इस प्रसंग को अपनी दलील की तरह इस्तेमाल करता है..
यह कोलाज उस दंगे की विभीषिका का शिद्दत से अहसास कराता है।
असल सवाल वही हैं जो अभय जी ने उठाए हैं।
माओ और स्टैलिन के शिष्य जब "अहिंसा परमो धर्म:" , "सर्वे भवन्तु सुखिन:", "एको सत विप्रा: बहुधा वदन्ति" आदि मन्त्रों का युगों-युगों से जाप करने वाले हिन्दुओं को शिक्षा देने उतरते हैं तो पंचतन्त्र वाले बूढ़े शेर की याद ताजी हो जाती है। दाल में कुछ काला है...
ये जीवन की सबसे बुरी यादे मे से एक है जब हम कर्फ़्यू से बचते बचाते अपने दोस्तो को ढूढते फ़िरते थे..और उन्हे साईकिल पर कंबल मे छुपा कर किस किस तरह से किश्तो मे अपने कमरे तक लेकर आये थे..लोग विरोध मे थे और आखिर हमे उन्हे मिलट्री की गाडी मे बैठा कर विदा करना पडा..जिन से हम काफ़ी बाद मे ही मिल पाये..
सही चित्रण किया आपने.वो दिन अब भी याद हैं.
आपने बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है...पर दुख की बात है कि हम कुछ कर नहीं पा रहे हैं....इन दंगाइयों का।
मार्मिक और दुखद.
इसे पढ़कर टोबा टेक सिंह की एक कहानी याद आ गई. एक हिंदू अपने घर आता है तो देखता है की उसकी जान से भी प्यारी बेटी का किसी ने दुष्कर्म कर हत्या कर दी है. उसके आंखो में खून उतर आता है वह भी गंडासा से लेकर मुसलमान के मोहल्ले में जाता है और एक लड़की के साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर देता है. हत्या करने के बाद उसके दिल को थोडी ठंडक मिलती है और लेकिन सहसा उस लड़की में उसे अपनी लड़की का चेहरा दिखता है. अब वो जब वह से जाता है तो उस लड़की का पिता घर पहुचता है और लाश को देख गंडासा उठा लेता है......
कहने का मतलब है की ऐसे कब तक चलेगा इससे तो कड़ी डर कड़ी बनती जायेगी. और रही बात तैत्लर अभी भी सांसद है की बात टू सांसद उन्हें हम और आप ने बनाया है. राजनीति पर गौर करने वाली एक पोस्ट पर जरा गौर करे. यहा बात भाजपा और कांग्रेस की नही है
आज आपकी लेखनी का कतरा कतरा दिल के इमानदार और संवेदनशील भावों की कहानी कह रहा है. बहुत मार्मिक चित्रण किया है. अच्छाई बुराई एक ही मन में होती है-यह एक गहन सत्य है. इसे उजागर मात्र तात्कालिक परिस्थितियां कर सकती हैं.
-बहुत कुछ सोचने को मजबूर किया आज आपने.
इस बेजोड़ आलेख के लिये साधुवाद.
इंदिरा गांधी ने हिंदू वोट बैंक को बनाने और खींचने के लिए सिखों और हिंदुओं को लड़ाया था। लेकिन समय का खेल देखिए, इससे अंतत: कांग्रेस को नहीं, भाजपा को फायदा मिला।
बहुत दर्द् नाक था वह सब..आज भी उस समय के भुक्तभोगियों के जख्म नही भरे हैं...
kya baat kahi hai smriti kinhi behano ki mohtaaj nahi hai, baaki sampradayikta aur dhram nirpekshta me to in parties ke liye yehi keh sakte hain, "ek daal daal duja paat paat'
ऐसा ही अनुभव मुझे गोधरा कांड के बाद हुए दंगों में हुआ था।
सब कुछ फिर से याद आ गया इस पोस्ट को पढ़ने के बाद।
मार्मिक!!
मैं 1984 में आठ साल का था तीसरी कक्षा में पढ़ता था। आज भी याद है , तब शहर में देखते ही गोली मारने के आदेश दे दिए गए थे लेकिन उससे पहले अपनी आंखो से यह भी देख चुका था कि घर से कुछ दूरी पर ही नेशनल हाईवे पर स्थित एक सरदारजी की बड़ी सायकल स्टोर और एक बड़े टेलरिंग शॉप में कैसे लूटपाट कर उसे आग के हवाले कर दिया गया था।
आज भी वो मंजर आंखो मे घूम सा जाता है
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