आज कॉलेज में छोटा लेकिन भावुक सा कार्यक्रम था। यह था भीष्म साहनी पुस्तक मेले की शुरूआत। इस पुस्तक मेले के बहाने कॉलेज के नए-पुराने साथियों ने भीष्म साहनी को याद किया तथा कई ने अपने संस्मरण भी सुनाए। दरअसल हमारा कॉलेज जो दिल्ली कॉलेज के नाम से जाना जाता था और अब ज़ाकिर हुसैन कॉलेज है इससे भीष्मजी का गहरा नाता रहा है। अपने रिटायर होने तक भीष्मजी इसी कॉलेज में अंग्रेजी के शिक्षक थे। उनकी अधिकांश रचनाएं इसी कॉलेज के पुस्तकालय में लिखी गई हैं जिनमें तमस भी शामिल है। मैं खुद 1990-93 में इस कॉलेज का विद्यार्थी था किंतु भीष्मजी इससे पहले ही रिटायर हो चुके थे।
आज के कार्यक्रम को बौद्धिक के स्थान पर भावनात्मक रखने का सचेत निर्णय लिया गया था, इस अवसर पर प्रो. कल्पना साहनी जो रूसी भाषा की विदुषी हैं को इस नाते बुलाया गया था कि वे भीष्मजी की सुपुत्री हैं। इसी प्रकार राधेश्याम दुबे भी अतिथि थे, उल्लेखनीय है कि श्री दुबे भीष्मजी के आत्मीय मित्र रहे हैं, भीष्मजी ने अपनी आत्मकथा 'आज के अतीत से', श्री दुबे को ही समर्पित की है। कार्यक्रम में कई आत्मीय प्रसंग सुनने को मिले जो भाव विभोर कर पा रहे थे। मजे की बात है कि कॉलेज के मित्र अपने साथी को बेहद विनम्र तथा संजीदा शख्स के रूप में याद कर रहे थे जबकि श्री दुबे ने बताया कि भीष्मजी दरअसल विनोदी तथा टांग-खींचू थे ये अलग बात है कि वे इतनी आहिस्ता से ऐसा किया करते थे कि उल्लू बने शख्स को बहुत बाद में पता चलता था।
मैं इस बात पर चुपचाप मुस्करा उठा। मुझे याद आया कि किस प्रकार जब मैं कॉलेज का छात्र था तथा हिन्दी साहित्य सभा में भी कुछ कुछ था तो तय हुआ कि भीष्मजी को बुलाया जाए, उनका अपना कॉलेज रहा था वे बहुत खुशी खुशी आए। कार्यक्रम का संचालन मेरे जिम्मे था.. वाद विवाद वगैरह अपने काम रहे थे इसलिए मंच पर पहुँच ये शब्द और वो शब्द हमने गिराए, उसके बाद भीष्मजी का भाषण हुआ। कार्यक्रम समाप्त हुआ। हमें लगा हम छा गए हैं जबकि सच ये था कि तब तक तमस और एकाध कहानी के अलावा हमने भीष्मजी के बारे में कुछ खास पढ़ा न था। जब विदा करने गए तो बेहद नम्र और सौम्य सी मुस्कान में उन्होंने नाम लेकर कहा कि भई आपकी हिन्दी बहुत अच्छी है, सच कहूँ तो मुझसे भी अच्छी है। वाह वाह मैं तो जैसे सातवें आसमान पर था.. सुनो मेरी हिन्दी भीष्मजी से अच्छी है ... खुद उन्होंने कहा... वाह। झूठ नहीं कहूँगा कि मैं कई साल तक इस वाक्य को बेहद गंभीरता से लेता रहा। वो तो बाद में उनके बारे में जानकर पता चला कि उर्दू से पढ़ा ये व्यक्ति जिसने संस्कृत गुरूकुल से पढ़ी, अंग्रेजी का विद्वान अध्यापक, हिन्दी का इतना बड़ा लेखक, रूसी व कई और भाषाओं का ज्ञाता चुपचाप मुझ बालक के अकारण अपनी भाषा पर भारी शब्दों का बोझा लादने की हमारी प्रवृत्ति पर हल्के सा व्यंग्य मारकर हमें उल्लू बना गया था जिसे समझने में ही हमें कई साल लग गए। कोई शक नहीं कि मैं राधेश्याम दुबे जी से सहमत हूँ कि भीष्मजी के हाथों उल्लू बने शख्स को बहुत बाद में पता चलता है कि उसके साथ क्या हुआ।
8 comments:
"उर्दू से पढ़ा ये व्यक्ति जिसने संस्कृत गुरूकुल से पढ़ी, अंग्रेजी का विद्वान अध्यापक, हिन्दी का इतना बड़ा लेखक, रूसी व कई और भाषाओं का ज्ञाता अपनी भाषा पर भारी शब्दों का बोझा लादने की हमारी प्रवृत्ति पर हल्के सा व्यंग्य मारकर हमें उल्लू बना गया था"
संस्मरण बहुत रोचक लगा. शुरूआत में तो हम सभी भारी शब्दों का बोझा लादते रहते हैं
:)
मजेदार संस्मरण !
साहित्यिक ये संस्मरण, देते हैं विश्राम.
विमल भाव की परम्परा, आज रही ना आम.
आज रहा न आम, महापुरुषों का सुमिरन.
कर प्पायें हम कठिन पलों में जिनको वन्दन.
कह साधक कवि,यह रोकेगा सांस्कृतिक क्षरण.
देता है विश्राम, साहित्यिक ये संस्मरण.
रोचक संस्मरण.
वैसे आपकी हिन्दी वाकई बहुत अच्छी है..वो वो ..उनसे भी बहुत अच्छी. :)
बहुत अच्छा संस्मरण सुनाया आपने, मगर उस बाम को अविधा में ग्रहण करने में क्या परेशानी है:)
बाम को बात पढ़ा जाए।
अरे भाई ...गनीमत है कि आपको झाड़ पर बिठाया गया....कहीं ताड़ पर बिठा देते तो आप उन्राने लायक भी ना होते....बाकि आपको पहली बार आज ही पढ़ा अच्छा लगा....फिर पढेंगे....आशा है आप आगे भी अच्छा ही लिखेंगे....लिखेंगे ना...!!
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