सही सही गणना करूं तो बात छब्बीस साल पुरानी होनी चाहिए क्योंकि याद पड़ता हे कि ये मेरे नए स्कूल का पहला साल था यानि छठे दर्जे में। नया स्कूल घर से खासा दूर था बस लेनी होती थी, वापस आते आते शाम के सात बज जाते थे इसलिए टिफिन ले जाना शुरू करना पड़ा जिसके मायने थे पिछले सप्ताह के दैनिक हिंदुस्तान में लिपटे दो परांठे जिसके बीच में या तो कोई सूखी सब्जी होती या फिर घर का डाला आम का अचार...वैसे बंदे को इनसे कोई खास तकलीफ नहीं थी..पर एक दिन घर आकर हमने शिकायत की, कि क्या मम्मी आप रोज ये सब भेज देती हो..बाकी लोग कितने मजे से रोज छोले खरीदकर डबलरोटी के साथ खाते हैं। सुनकर घर में सब हँसे मैं चुप हो गया।
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सर्दियों की आहट शुरू हो गई है। मेरे बच्चों की स्कूल यूनीफार्म बदल गई है, नेकर और स्कर्ट की जगह ट्राउजर्स, फुल स्लीव शर्ट उस पर टाई। पर नहीं बदला तो टिफिन। प्लास्टिक का ये डिब्बा जिसमें एल्यूमिनियम फाइल में लिपटा एक परांठा साथ में कोई सब्जी। जितना कष्ट मुझे बच्चे को बेपनाह भारी बस्ते लादे देखकर होता है उससे कम इस टिफिन को देखकर नहीं होता। नवम्बर-दिसम्बर की सर्दी में किस लायक बचेगा ये 'खाना' - तीन घंटे बाद। मैं बेहद ग्लानि महसूस करता हूँ क्यों ये संभव नहीं है कि स्कूल बच्चों के खाने गर्म करने की कोई व्यवस्था करे।
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बेटे के साथ उसकी स्कूल बस का इंतजार करते हुए मैंने उसे जैसे तैसे फुसलाकर ये पूछा कि यार सच बता कि ये रोज रोज खाना क्यों बचा लाते हो, 'फिनिश' क्यों नहीं करते। 'क्या करूं 'पा' आप लोग रोज रोज इतना 'मुश्किल' खाना भेजते हो अगर रोटी सब्जी जैसा खाना पूरा फिनिश करूं फिर तो सारी 'ब्रेक' खाने में ही खत्म हो जाएगी फिर स्किड (कॉरीडोर में दौड़ना और फिर जड़त्व के सहारे जूतों के बल फिसलना) कब खेलूंगा।
5 comments:
हा हा हा हा !! ह्म्म!!:-(
हमारी संतान की भी यही समस्या है। एक दिन बहुत डपटने पर पता चला कि रोज़ टिफिन इसलिए बचता है और कभी कभी तो छुआ भी नही जाता कि "खेलते हुए पता नही चलता ब्रेक ओवर हो जाती है " 20 मिनट की ब्रेक मे दिन भर के बैठे बच्चे को अपनी स्वाभाविक खुजली खेल कूद कर मिटानी होती है ,भोजन भी करना है - और सही बात है कि मै जितना भी गुस्सा हो ऊँ रोटी और सब्ज़ी या कुछ भी बहुत मुश्किल खाना है । इसलिए जिस दिन रोटी पर जैम लगा कर रोल देती हूँ , एक भी टुकड़ा नही बचता ...कारण ...उसे हाथ मे लेकर खेलते खेलते भी खाया जा सकता है ।
बच्चे बहुत दिक्कत मे हैं आजकल ....
आज के बच्चे, बिना बचपन वाले बच्चे ।
खेल चुराना पड़ता है बच्चों को। और खेल के लिए खाना छोड़ना सदियों पुरानी रवायत है।
एक नन्हे बच्चे का पिता होने के नाते शायद मै भी कई बार अलग अलग दुकानों पे टिफिन के अलग अलग मोडल देख चुका हूँ की किस्म उनका खाना गर्म रहे ....पर हाल में ही मै PNB की एक शाखा में गया तो मैंने देखा वहां उनके टिफिन एक एलेक्टिक ओवन में रखे थे ....वो आईडिया मुझे अच्छा लगा था ...कुछ सॉफ्टवेयर कम्पनिया भी इस तरह इस्तेमाल करती है ,शायद स्कूल में भी क्रान्ति आये ?
नाइस वन :-)
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