अरसे बाद आज ऐसा हुआ कि दिन भर में ही एक किताब खत्म की। और हॉं आज छुट्टी का दिन नहीं था यानि कॉलेज जाना पढ़ाना फिर घर आकर बच्चों की देखभाल, उन्हें पढ़ाना, खिलाना ताकि पत्नी कॉलेज जाकर पढ़ाकर आ सकें- ये सब भी किया फिर भी वह किताब जो सुबह आठ बजे मैट्रो की सवार के दौरान शुरू की थी, शाम सात बजे समाप्त हो गई है। ये एक उपलब्धि सा जान पड़ता है। ऐसा लग रहा है मानो एक लंबी यात्रा पूरी कर घर वापस पहुँचा हूँ। कल कॉलेज के पुस्तक मेले से कुछ किताब खरीदी थीं, इनमें से एक है असग़र वजाहत की - चलते तो अच्छा था। ये पुस्तक असगर की ईरान-आजरबाईजान की यात्रा के संस्मरण हैं।
कुल जमा 26 संसमरणात्मक लेख हैं जो 144 पेज की पुस्तक में कबूतरों के झ़ु़ड से छाए हैं जो तेहरान जाकर उतरते हैं और पूरे ईरान व आजरबाईजान में भटकते फिरते हैं अमरूद के बाग खोजते हुए। तेहरान के हिजाब से खिन्न ये लेखक 'कोहे क़ाफ' की परियों से दो चार होता है और ऐसी दुनिया का परिचय हमें देता है जिसकी ओर झांकने का कभी हिन्दी की दुनिया को मौका ही नहीं मिला है। मध्य एशिया पर राहुल के बाद किसी लेखक ने नहीं लिखा, राहुल का लिखा भी अब कम ही मिलता और पढ़ा जाता है।
यात्रा संस्मरण पढ़ना जहॉं आह्लाद से भरते हैं वही ये अब बेहद लाचारगी का एहसास भी देते हैं, दरअसल अब विश्वास जमता जा रहा है कि संचार के बेहद तेज होते साधनों के बावजूद दुनिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा शायद कभी नहीं देख पाउंगा। देश का ही कितनाहिस्सा अनदेखा है, दुनिया तो सारी ही पहुँच से बाहर प्रतीत होती है।
पुस्तक का विवरण : चलते तो अच्छा था, असगर वजाहत, राजकमल प्रकाशन 2008, पृष्ठ 144, कीमत- 75 रुपए।
11 comments:
दरअसल अब विश्वास जमता जा रहा है कि संचार के बेहद तेज होते साधनों के बावजूद दुनिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा शायद कभी नहीं देख पाउंगा। यही दुख हमारा भी है।
जरुर पढ़ना चाहूँगा अब यह किताब!!
आभार आपका!!
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मध्य एशिया और रूस के एशियाई हिस्से में पर्यटन अति-अति-अति कठिन है, लोग अपनी ही भाषा बोलते समझते हैं (कजाक, मंगोली, उजबेक, ताजिक, अज़रबैजानी, उइगूर, किरगीज़ इत्यादि इत्यादि). इनके आलावा एक लिंगुआ फ्र्नका चलती है जैसे की अंग्रेज़ी बोलने वाले कुछ लोग भारत के कस्बों में मिल जाते हैं, वैसे ही रूसी बोलने वाले वहां मिलते हैं. बिरले ही कोई अंग्रेज़ी समझने वाला मिलता है. वहां भ्रमण करने के लिए कम से कम रूसी में प्रवीणता या एक रूसी दुभाषिया ज़रूरी है. तो जो रूसी सीखने के लिए कुछ साल दे सकें या दुभाषिये रखने की हैसियत रखते हों वही इस महान मध्य एशिया का पूरा आनंद उठा सकते हैं.
हिन्दी में अच्छे सफ़रनामों की ऐसी किताबों का न होना काफ़ी अफ़सोसजनक है. होना तो है ही. माने असग़र वजाहत ने महज़ हिन्दीवालों को चिढ़ाने की गरज से ही ईरान, अज़रबैजान की यात्रा लिखी होगी, क्योंकि सच्चायी तो है ही कि ढेरों लोग अभी सीवान तक के सफ़र का लिख क्या नहीं पा रहे,अभी तक जा भी नहीं पा रहे.. जैसे मैं ही अभी तक सीवान क्या सासाराम तक नहीं पहुंचा हूं, जबकि शेरशाह, देखिए, कुछ सदियां निकल गयीं ऑलरेडी वहां पहुंचे हुए थे! क्या शेरशाह के सासाराम में पहले से पहुंचे होने में किसी नस्ली प्रेफरेंशीयल भेदभाव की पहचान की जाये? आज शशाम बूदापेस्ट के लिए निकलते हुए इन सभी दु:खों की ठीक-ठीक पहचान करूंगा, फिर संभव हुआ तो उस पर निर्मल सी, अज्ञेयनुमा कविता भी करूंगा- अरे, यायावर रहेगा याद! अहाहा, मन कैसा अलंगित, प्रमुदित हो रहा है! ईरान, ईरान, व्हेयर आर दो? हूमसि, हूमसि!
यदि लिखने वाले न होते तो दुनिया बहुत ही बड़ी होती इस यूनिवर्स जैसी।
अच्छी हिंदी किताबो का नाम ले लेकर खूब चिढाइए हमें.. हम यहाँ उसे खरीद जो नहीं सकते हैं..
मौका मिला तो ये किताब जरूर पढूँगा, यात्रा वृतांत पढने का अपना अलग मजा है
यह किताब रचनाकार पर यहाँ प्रकाशित है -
http://rachanakar.blogspot.com/2007/03/asghar-wazahat-ka-iraan-yatra-sansmaran.html
इसकी पीडीएफ प्रति भी उपलब्ध है, जिसकी कड़ी ऊपर की कड़ी पर उपलब्ध है.
यह किताब वाकई एक बैठक में आद्योपांत पठनीय है.
शुक्रिया रविजी,
इस लिंक के बाद कई पाठकों के लिए सहुलियत हो जाएगी।
एक रात में किताब पढ़ी तो है पर कुछ दिन हो गए... अच्छा याद दिलाया आपने. कुछ किताबें पड़ी है, एक सप्ताहांत में समाप्त करने का बीडा उठाता हूँ. ये पुस्तक भी उठा लेता हूँ. रविजी का आभार.
किताबों का भंडार इतना बड़ा है कि सभी नहीं पढ़ी जा सकती, कुछ अच्छी किताबों की चर्चा हो जाए तो ढूंढ़ी भी जा सकती है।
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