इधर चिट्ठाकार मित्रों में अलग अलग अनुपात में एक आचार संहिता के लिए उत्साह देखने में आया है। कुछ मित्र मसलन सृजन, अमिताभ आदि मिशनरी रूप से इसके पक्षधर हैं तो कुछ असमंजस में ही सोच रहे हैं कि मोहल्ला प्रकरण के आलोक में शायद ये जरूरी है। चूँकि मौन को स्वीकृति मानने की नाजायज सी परंपरा सागर शुरू कर चुके हैं इसलिए मुझे लगा कि जो मानसिक कवायद हमने की है उसे साझा किया जाए। अविनाश और अन्य लोगों से जो छुटपुट चर्चा रविवार को हुई थी उसमें और अन्यथा भी मुझे अक्सर लगा है कि हिंदी चिट्ठाकारी के लोग स्वयं को चिट्ठाशास्त्र (ब्लॉग थ्योरी) से अलगा कर एक नई दुनिया बना रहे हैं।
यह ठीक है कि उपलब्ध चिट्ठाशास्त्रीय प्रतिमान हिंदी चिट्ठाकारी की प्रवृत्ति का पूरा ढाँचा व्याख्यायित करने में असमर्थ हैं किंतु इसका समाधान अपना मौलिक चिट्ठाशास्त्र गढ़ना है न कि उससे निरपेक्ष हो जाना। ऐसा करना सारे चिट्ठा जगत को गिफ्टरैप कर बरास्ता अविनाश इलैक्ट्रानिक मीडिया को भेंट कर देने जैसा होगा। हम कितना भी नकारें हमें मानना होगा कि कि चिट्ठाजगत को बाकी मीडिया वाले चिट्ठा उद्योग की तरह देखते हैं अत: उससे दो दो हाथ करने के लिए हमें अपना चिट्ठाशास्त्र चाहिए ठीक वैसे ही जैसे कि साहित्य को अपना स्वरूप निश्चित करने के लिए साहित्यशास्त्र चहिए होता है।
ऐसा तुरंत क्यों जरूरी है ?
इसलिए कि चिट्ठाकारी को ‘एक तरह की डायरी’, मीडिया ऐक्सटेंशन, छपास रोगियों का अभयारण्य आदि प्रचारित कर इसके स्वतंत्र रूप पर प्रश्नचिह्न लगाने की कवायद खूब आसानी से दिखाई दे रही है। ‘लो चलो हम सिखाते हैं’ के भाव से लोग टीवी की दुनिया से आ रहे हैं और महमूद फारूकी जैसे मित्र जाने अनजाने इस ‘बेचारे’ चिट्ठाजगत पर जो कृपा कर रहे हैं बिना इसे जाने समझे वे ऐसा इसलिए कर पा रहे हैं कि वे आँखों में आँखें डाल कह पा रहे हैं कि हिंदी चिट्ठाकारी क्या है यह खुद हिंदी चिट्ठाकारी को ही नहीं पता। वे इसलिए ऐसा कर पा रहे हैं कि अपने जैविक विकास में चिट्ठाकारी ने जो अपना विशिष्ट रूप हासिल किया है वह खुद को उस सैद्धांतिकी से नहीं जोड़ पाया है जो ब्लॉगिंग ने पिछले दस वर्षों में खड़ी की है। ब्लॉग शोध की प्रवृत्ति शायद ऐसा करने की दिशा में एक सही कदम हो पर अभी तो एक ‘शायद’ मुँह बाए खड़ा है।
क्या सैद्धांतिकी इस औपनिवेशिक सोच को रोक पाएगी जिससे खतरा झांक रहा है ?
हाँ, जरूर। एक बार दम भर इस ओर देखें आप पाएंगे कि चिट्ठाशास्त्र मुख्यधारा हिंदी जगत का मातहत या छोटा भाई नहीं है। वह खुद एक मुकम्मल संरचना है। यह बोध चमत्कार करने में समर्थ है।
चलिए मान लिया कि चिट्ठाशास्त्र जरूरी है पर कौन रचेगा इसे, समय की तो कमी है ही साथ ही हम साइबर कैफै चलाने वाले हैं, ऐकाउटेंट हैं, साफ्टवेयर वाले हैं ये सैद्धांतिकी का काम हम कैसे करें?
इसी लिए जरूरी है कि ये काम हम करें, कोई सुधीश पचौरी, कोई नामवर, कोई राजेंद्र यादव इसे करने बैठ जाए इससे पहले जरूरी है कि हम इसे निष्पादित करें। क्योंकि हम जो है उसके जैविक विकास से इसके सिद्धांत निकालेंगे, कृत्रिमता से मुक्त। विश्वविद्यालयी एप्रोच से चिटठाकारी का भला संभव नहीं, ये अपने अनुभव से कह रहा हूँ मान लीजिए। बाकी रही आचार संहिता की बात तो कितनी भी बना लो ये तो नूह्हें चाल्लेगी।
11 comments:
आपने अच्छी बात शुरू की है। दरअसल जीवन जब पहली बार धरती पर हलचल में आया होगा, तो बेचैनियों से उसकी शुरुआत हुई होगी। इन्हीं बेचैनियों से निकले होंगे जीवन जीने तरीक़े। खूब जीया गया होगा, तभी समाजशास्त्र आया होगा कायदे से। अभी हिंदी ब्लॉग्स की दुनिया चार साल की हुई है। थोड़ा इंतज़ार कर लेते हैं, फिर तुम ही शुरू करना ये काम। मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ है।
अविनाश पर प्रतिटिप्पणी जो साइडलाइंस पर हुई.....
masijeevi: 'हिंदी ब्लॉग्स की दुनिया चार साल की हुई है। थोड़ा इंतज़ार कर लेते हैं,'..........
कहीं तब तक हिंदी ब्लॉगस , हिंदी ब्लॉगस लिमिटेड (ए होलली ओन्ड सब्सिडियरी ऑफ NDTV) न बन जाए
हा हा हा
avinash: ठीक है यार... उससे क्या फर्क पड़ता है...
तुलसी और कबीर फिर भी महान हैं...
बाद की किताबों की मार्केटिंग ज्यादा होने के बावजूद...
लेकिन सुनो... तुमने जो ये टिप्पणी की है, उसे भी अपने कमेंट बॉक्स में डालो...
masijeevi: अमॉं यार दिल रखने के लिए ही कह दो 'हम' ऐसा नहीं करेंगे
avinash: नहीं करेंगे नहीं करेंगे...
masijeevi: थैंकयू
हा हा :D
भाई लोग... आपने एक बात पर जरूर गौर किया होगा... कि अविनाशजी एंड कंपनी ने टिप्पणियों को मोडरेशन पर डाल रखा है अब पता नहीं वो कौन सी टिप्पणियां हैं जो इस सेंसर का शिकार हो रही हैं। ऐसा इरफान प्रकरण के बाद से हो रहा है... क्या इसे चिट्ठाकारी का एनडीटीवी शैली माना जाये? अविनाशजी इस पर शायद कुछ प्रकाश डाल पायें।
आपकी बात सही है कि हमें ही ऐसा चिट्ठाशास्त्र रचना होगा, चिट्ठाकारी क्या है ये तो हिन्दी चिट्ठाकार ही तय कर सकते हैं कोई और नहीं, इसका स्वरुप तो आप जैसे बुद्धिजीवी ही तय कर सकते हैं।
बाकी रही आचार संहिता की बात तो उस पर अपने विचार पोस्ट द्वारा पेश करुंगा।
अच्छा विषय चुना है आपने अपने लेख का । चिट्ठाकारिता तो स्वतः विकसित होने वाली विधा है । इसे मापदंडों के दायरे में कसेंगे तो ये संकुचित हो जाएगी और अपना वास्तविक स्वरूप खो देगी ।
चलिये देखते चलते हैं आगे आगे क्या होता है ।
रच लो यही शेष रह गया था :)
बहुत खूब! बहुत अच्छा लगा यह लेख बांच कर। आपकी बात में दम है कि विश्वविद्यालयी एप्रोच से चिटठाकारी का भला संभव नहीं, ये अपने अनुभव से कह रहा हूँ मान लीजिए। बाकी रही आचार संहिता की बात तो कितनी भी बना लो ये तो नूह्हें चाल्लेगी। आगे भविष्य क्या तय होगा उसका मुझे नहीं पता लेकिन फिलहाल अभी यह लगता है कि अनगड़ता ,अनौपचारिकता और अल्हड़ता ब्लागिंग के खास पहलू हैं। एनडीटीवी वाले साथी अभी ब्लाग की नब्ज नहीं समझ पाये हैं। वे ज्ञानपीड़ित हैं और कुछ-कुछ 'मोहल्ला मंडूक' भी।
यह आप समझ लें कि कोई भी नयी दुनिया बनेगी लेकिन ब्लागिंग की ताकत, आकर्षण और सौंदर्य इसका अनगड़पन और अनौपचारिक गर्मजोशी रहेगी। ऐसा मैं अपने दो साल के अनुभव से कहता हूं। मेरे पास तमाम कालजयी साहित्य अनपढ़ा है लेकिन उसको पढ़ना स्थगित करके मैं यहां तमाम ब्लागर की उन रचनाऒं को पढ़ने के लिये लपकता हूं जिनमें तमाम वर्तनी की भी अशुद्धियां हैं, भाव भी ऐं-वैं टाइप हों शायद लेकिन जुड़ाव का एहसास सब कुछ पढ़वाता है। यह अहसास ब्लागिंग की सबसे बड़ी ताकत है। यह मेरा मानना है। अगर बहुमत इसे नकारता भी है तब भी मैं अपने इस विश्वास के साथ ही चिट्ठाजगत से जुड़ा रहना चाहूंगा! :)
नाजायज परंपरा ही सही पर इसी बहाने में याद तो किया जाता रहूँगा.. हा हा हा
मैं अनूपजी से सहमत हूँ हिन्दी चिट्ठों का अनगढ़पन ही इसकी खासियत है।
बड़े साहित्यकार इसका नीती निर्धारण करें इससे ज्यादा अच्छा है कि यह पहल हम ही करें।
चिट्ठों पर न कोई नियम हो सकते हैं, न ही होना चाहिये। बस स्वयं के संयम की बात है। जो निभाता है वह ठीक है जो नहीं, वह भी ठीक। जो न निभाये बस उसके चिट्ठे पर न तो जाने की, न ही टिप्पणी की जरूरत है।
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